जलदाय मंत्री सांवरलाल जाट को उलझा दिया वसुंधरा ने

 सांवरलाल जाट
सांवरलाल जाट

जलदाय मंत्री रहते प्रो. सांवरलाल जाट को लोकसभा का चुनाव लड़ाते वक्त ही भले ही यह माना गया कि हर कीमत पर मिशन पच्चीस हासिल करने के लिए मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने ये कदम उठाया है, मगर तभी ये आशंका थी और सवाल था कि जाट का क्या होगा? हार जाने पर मंत्री बनाए रखा जाता या नहीं ये सवाल तो अब बेमानी हो गया है क्योंकि वे जीत गए, मगर जीतने के बाद क्या उन्हें केन्द्र में भी मंत्री बनवा पाएंगी या फिर एक अदद सांसद रहने को मजबूर कर देंगी, यह सवाल अब भी कायम है। इतना ही नहीं, अब तो हालत ये है कि अकेले उन्हीं को निशाने पर ले कर सरकार के अस्तित्व पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। इसकी वजह से अजमेर के साथ जो अन्याय हुआ है, वो तो सबके सामने है ही। न वे ठीक से मंत्री पद की भूमिका निभा पा रहे हैं और न ही सांसद के नाते केन्द्र में कुछ कर पा रहे हैं।
बेशक विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने अपनी व्यवस्था दे कर कांग्रेस की आपत्ति को नकार दिया है, मगर कानूनविदों व जनता में यह विषय चर्चा का विषय बना हुआ है। ज्ञातव्य है कि कांग्रेस ने विधानसभा में यह तर्क दे कर हंगामा किया था कि सरकार अस्तित्व में ही नहीं है। ऐसे सदन की कार्यवाही कैसे चल सकती है क्योंकि 8 दिसंबर को चुनाव के नतीजे आने के बाद 13 दिसंबर को मुख्यमंत्री ने और 20 दिसंबर को सभी मंत्रियों के साथ सांवर लाल जाट ने मंत्री पद की शपथ ली। नियमों के अनुसार तब तक उन्होंने सदन में विधायक की शपथ नहीं ली थी, ऐसे में वे विधायक नहीं थे। यानी वे गैर विधायक मंत्री बने थे। संविधान की धारा 164 (4) के तहत बिना विधायक कोई भी व्यक्ति मंत्री रह सकता है, लेकिन 6 माह तक के लिए है। जाट मंत्री बनने के समय विधायक नहीं थे, लेकिन 21 जनवरी को उन्होंने शपथ ले ली। यानी 6 माह के अंदर विधायक बन गए। वे लगातार मंत्री रह सकते थे, लेकिन उन्होंने 29 मई को ही विधायक पद से इस्तीफा दे दिया। ऐसे में अब भी वे गैर विधायक मंत्री हैं। जबकि उनके गैर विधायक मंत्री बनने के छह महीने 20 जून को ही पूरे हो गए। ऐसे में उनके मंत्री पद की संवैधानिक स्थितियां 20 जून को ही समाप्त हो गईं। इसका अर्थ यह है कि इस समय राज्य मंत्रिमंडल में केवल 11 मंत्री हैं। जबकि संविधान की 164-(1 ए) के तहत 12 मंत्रियों से कम मंत्री नहीं हो सकते। चूंकि जाट 20 जून से मंत्री नहीं हैं, ऐसे में यह स्थिति संविधान का उल्लंघन है। इस पर अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने उनके तर्क को नकार दिया।
अब चूंकि विधानसभा अध्यक्ष व्यवस्था दे चुके हैं कि सरकार अस्तित्व में है, इस कारण मामला तकनीकी रूप से समाप्त हो गया है, बावजूद इसके कांग्र्रेस इस मुद्दे को लगातार गरमाये हुए है। न्यूज चैनल्स पर भी इसको लेकर बहस जारी है कि क्या सरकार वैधानिक संकट में है? इन बहसों से भले ही सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा हो, मगर उसकी किरकिरी तो हो ही रही है। ये सवाल उठाए जाने लगे हैं कि वसुंधरा ने जाट को क्यों अटका रखा हैïï? या तो उन्हें हटा कर किसी और को मंत्री बना दिया जाए ताकि संवैधानिक सवाल उठे ही नहीं, या फिर मंत्री बनाए रखना है तो सांसद पद से इस्तीफा दिलवाएं। दोनों में से कुछ तो करें, मगर अज्ञात कारणों से इस पर निर्णय नहीं कर पा रही हैं।
एक संभावना ये है कि केन्द्र में राज्य मंत्री बनाए जाने की मांग पूरी होने तक वे उन्हें यहां मंत्री बनाए रखना चाहती हैं। या फिर महज इसी कारण मामला अटका हुआ है कि किसी वजह से मंत्रीमंडल विस्तार हो नहीं पा रहा और इसी वजह से जाट लटके हुए हैं। जो कुछ भी हो मगर कांग्रेस को तो बैठे ठाले मुद्दा मिला हुआ है ही। रहा सवाल जाट का तो उनकी स्थिति भी त्रिशंकु जैसी है। उन्हें ये पता ही नहीं कि उनकी क्षमता का उपयोग राज्य में किया जाएगा या फिर केवल सांसद बने रह कर जनता की सेवा करनी होगी। या फिर केन्द्र में मंत्री बनने का कोई चांस है। जाहिर तौर पर उनकी इस असमंजस का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। वे न तो एक मंत्री के रूप में ठीक से काम कर पा रहे हैं और न ही एक सांसद के नाते स्थानीय मुद्दे केन्द्र में उठा पा रहे हैं।
निजी तौर पर जाट के लिए तब यह घाटे का सौदा होगा, यदि उन्हें वसुंधरा केन्द्र में मंत्री नहीं बनवा पातीं हैं। वे भले चंगे केबीनेट मंत्री पद का रुतबा लिए हुए थे, मगर पार्टी की खातिर या किसी अज्ञात चाल के कारण एक अदद सांसद ही बन कर रह गए। आज तक इस बात का खुलासा नहीं हुआ है कि वसुंधरा ने आखिर क्या मंत्र मार कर या आश्वासन दे कर जाट को लोकसभा का चुनाव लडऩे के लिए राजी किया, जबकि खुद उनकी इच्छा नहीं थी।
-तेजवानी गिरधर

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