बात उस दौर की है जब अजमेर शहर ऑर्गेनाइज क्राइम से जकड़ा हुआ था। हर ओर हाहाकार के हालात थे। जुए सट्टे की फड़ें आबाद थीं। ऐसी लाइनें लगती थीं मानों राशन की दुकान पर भीड़ जमा है। सभी टॉकीजों के इर्द गिर्द गिरोहों का जमावड़ा हुआ करता था। सिनेमा घर दरअसल टिकटों की कालाबाजारी से लेकर शांति व्यवस्था बनाए रखने में गुंडों की मदद लेते थे। शहर में शायद ही कोई कारोबारी ऐसा बचा हो जो इन गुंडों को हफ्ता न देता हो।
गैंगवार भी चरम पर थीं। गिरोहों के इलाके बंटे हुए थे। किसी एक गिरोह का गुंडा दूसरे के इलाके में जाता या हफ्ता वसूली में सेंधमारी करता तो जान से हाथ धो बैठता था। गिरोह एक दूसरे को कमजोर करने के लिए या पूरे शहर में अपनी धाक बनाए रखने के लिए बड़े कांडों को अंजाम भी देते थे। यूं समझिए, अजमेर अंडरवर्ल्ड का मिनी मुम्बई मुम्बई था। वहां बड़े पैमाने पर होता था, यहां छोटे रूप में।
एक बड़ा गैंगस्टर था नथरमल उर्फ नत्थू काणा। एक बड़े गिरोह का सरगना। नाम ही नत्थू काणा गैंग था। गिरोह में फूट पड़ी। नत्थू गैंग के दो गुंडे मारे गए। जिसने मारा। वो तीसरे के दिन अपने पिता की अस्थियां चुनने आशागंज श्मशान स्थल पहुंचा। गुंडों ने वहां उसका खात्मा कर दिया। नत्थू काणा गिरोह के छिन्न भिन्न होने आैर अपनी हत्या की आशंका के चलते अजमेर से भाग छूटा।जो गिरोह इस पूरे घटनाक्रम के लिए जिम्मेदार था उसका उद्देश्य पूरा हो गया। नया गिरोह बना। उसने पूरे शहर के अवैध कारोबारों पर अपना कब्जा कर लिया। नत्थू काणा अहमदाबाद में मारा गया, ऐसी खबरें कई बार छपीं।
एक दिन…..
मैं पुलिस थाना क्लॉक टावर पहुंचा। तत्कालीन डीएसपी कन्हैया लाल बैरवा वहां बैठे थे। उन्होंने चाय मंगवा ली। हम चाय पी रहे थे तभी एक कांस्टेबल के साथ नत्थू काणा आया। वो फर्श पर बैठ गया। दरअसल नत्थू काणा अजमेर लौट आया था। उसके आते ही अजमेर के अपराध जगत में बुरी तरह खलबली मच गई। जो गिरोह उस वक्त मठाधीश बने हुए थे उन्हें लग रहा था कि नत्थू बदला लेने लौटा है। उनके गिरोहों काख्ातमा कर वापस सभी कारोबारों पर अपना कब्जा कर लेगा। पुलिस भी उसकी मौजूदगी से अनजान नहीं थी। बैरवा ने ही नत्थू को बुला भेजा था। उन्होंने नत्थू से पूछा-वापस क्यों आ गया।
मेरी बेटी बड़ी हो गई है साहब। मुझे उसकी शादी करनी है। मुझे और कुछ नहीं करना है यहां। अब कौन यहां क्या कर रहा है इससे भी मुझे कोई मतलब नहीं। मुझे एक दो महीने का वक्त दे दो। मैं बच्ची की शादी करके चला जाउंगा। मेरे दुश्मनों की बुरी नजर है साहब। बैरवा ने उसे चेताया कि यहां तेरे कई दुश्मन है। जो करना है जल्दी कर और चला जा यहां से।
वो मार्च का महीना था। होली आने वाली थी। एक दिन सीआईडी इंटेलीजेंस ने एक चौंकाने वाली रिपोर्ट पुलिस मुख्यालय भेजी। रिपाेर्ट अजमेर के उस समय के एक बड़े क्राईम सिंडीकेट की गोपनीय बैठक को लेकर थी। इसमें तय हुआ था कि होली के पहले नत्थू काणा को खत्म कर दिया जाए।
रिपोर्ट में क्या था, इसकी जानकारी जुटाई और राष्ट्रदूत अखबार में प्रकाशित की। मैं तब वहीं काम करता था। उस समय डीजीपी राजेंद्र कालिया थे। राज्यपाल थे बलिराम भगत। भगत राष्ट्रदूत के मालिकों के करीबी थे। इसलिए उसमें छपी खबरों पर प्राथमिकता से कॉग्नीजेंस भी लेते थे। खबर में हमने इस बात को प्रमुखता दी कि यदि नत्थू काणा का मर्डर होली के मौके परी हुआ तो कानून व्यवस्था की स्थिति खराब होगी। रंगों के त्यौहार में खून क छींटे पड़ जाएंगे। राज्यपाल के कार्रवाई के निर्देश मिलते ही अजमेर में पुलिस ने बड़े पैमाने पर धरपकड़ शुरु कर दी। कोई 200 से अधिक गुंडातत्वों को गिरफ्तार कर जेल भ्ज्ञैज दिया गया।
खैर होली तो शांति से खेल ली गई। मगर नत्थू काणा मारा गया। दो माह बाच मई में न्यू मैजेस्टिक सिनेमा के सामने ही उसे गोली मार दी गई। सुनवाई के दौरान एक महत्त्वपूर्ण सवाल उठा। इसका जवाब आज तक लंबित है। सवाल था-नत्थू काणा के शरीर में जो गोली पाई गई वो सर्विस रिवाल्वर की है। आखिर हत्यारों के पास पुलिस के सर्विस रिवाल्वर की गोली आई कहां से।
तब से अब तक बहुत कुछ बदल गया है। डीएसपी कन्हैया लाल बैरवा आईपीएस बने, वहां राजस्थान लोक सेवा आयोग में मेम्बर होकर रिटायर भी हो गए। अजमेर से संगठित गुंडा गिरोह एक के बाद एक खत्म होते गए। अब ना वो हलाकू हें न उसके जैसे गिरोह बाज। सबकी हस्थियां मिट गईं। बदलता गया सबकुछ। जीवन का वास्तविक रंग बदलाव ही लेकर आता है। होली के पावन पर्व पर दुश्मनी भूलिए, कटुता समाप्त करिए, गले मिलिए, मिलाइए। सदभावनाओं के रंगों से होली खेलिए। हैप्पी होली।
-प्रताप सनकत
वरिष्ठ पत्रकार