फिर पटरी पर आए अदालती वाहन

राजेन्द्र हाड़ा
राजेन्द्र हाड़ा
न्यायाधीश उमेश कुमार शर्मा 31 अगस्त को जिला जज की कुर्सी से रिटायर्ड क्या हुए, कुछ चुनिंदा वकीलों को मानो छूट मिल गई। वकील भी कैसे मुकदमा एक नहीं, घर में चार बड़ी गाड़ियां तो दो अदालत में। जिला जज की सरकारी गाड़ी पर ना सही परंतु उनकी सभी गाड़ियों की नंबर प्लेट पर लाल पट्टी। धेले भर का भी पद नहीं पर आगे के कांच पर वीआईपी लिखा स्टीकर। कभी-कभी लाल बत्ती भी। अजमेर के पत्रकारों की हालत ऐसी पतली कि लिखने की हिम्मत तक नहीं और यातायात पुलिस जिधर से ये गाड़ियां गुजरती है उधर पीठ कर खड़ी हो जा जाती हैं। बस तो गरीब-लाचार-बेचारे आम शहरी पर ही चलता है ना। कानून तोड़ने में माहिर, अंदाज मे शातिर, ऐसों की गाड़ियों ने और भी वकीलों को मौका दे दिया। गुरूवार 8 अक्टूबर को अदालत का सीन देखते। एक के पीछे एक कम से कम एक दर्जन से ज्यादा कारें और इससे कुछ दुगुने मोटर साइकिल वकील चैंबर्स के आगे सारा दिन पेड़ों की ठंडी छांव खाते रहे। भूल गए कि जज शर्मा ने कैसी-कैसी और कितनी गालियां, बददुआएं लेकर इस अदालत को स्मार्ट अदालत का वह रूप दिया था कि वही नाम शहर को दिलाने की खातिर हर छोटा-बड़ा अफसर अब तक ना जाने कितनों के साथ कितने समोसे तोड़ चुका है। इसके पहले वकील हो या जज अदालत परिसर में खड़ी गाड़ियों से आड़ा तिरछा होकर ही निकल पाता था। हम ठहरे हिन्दुस्तानी और उसमें भी ठेठ अजमेरी, जो दुनिया में देहात से ज्यादा बडे शहर की हैसियत नहीं रखता। सो आदत से मजबूर हम नियम से चलना जानते ही नहीं। ऐसे में करीब महीना भर नए जिला जज जीआर मूलचंदानी ने किसी को कुछ नहीं कहा। इससे वकीलों की हिम्मत बढ़ गई। 8 अक्टूबर का जो नजारा जिला जज ने देखा तो शुक्रवार, 9 अक्टूबर से फिर सख्ती शुरू कर दी। सुबह दस बजे बाद जैसे ही कुछ गाड़ियों ने पेड़ों की छांव तलाशनी शुरू की तो अदालत के नाजिर की अगुवाई में आए कर्मचारियों ने सभी वाहनों को बाहर निकालना शुरू कर दिया। फिर से अदालत साफ सुथरे और खुले अंदाज में नजर आने लगी। अदालत की स्थिति से परिचित लोग जानते हैं कि जिसका जी चाहा वह बगैर काम के ही अदालत आने लगा था। अपने किसी परिचित को वहां देखकर जब वकील पूछते कैसे तो बड़ा गर्वीला जवाब मिलता। ऐेसे ही घूमने। शायद अदालत की चाय-कचौरी का स्वाद कई की लार टपकाता है। इस पर भी तुर्रा यह कि हर कोई अपनी गाड़ी चार पहिया हो या दो पहिया अदालत में घुसाए चला जाता था। जिला जज का पोर्च भले एक कार केे लिए है परंतु वहां भी पोर्च के अगल-बगल दो-तीन कारें तो अपनी जगह ही बना लेती थीं। कुछ अदालतों के दरवाजे की मामूली दूरी तक वाहन जमे रहते थे। जिला जज की कार जिस गेट से आती-जाती उस गेट तक कुछ कर्मचारियों को तैनात रहना पड़ता था ताकि उनकी कार ही जाम में ना फंस जाए। वाहन पार्किंग की मनाही वाली जगह में ही वाहनांे का जमावड़ा आम बात हो गई थी। वकील जहां बैठते और कर्मचारी जिस अदालत में ड्यूटी पर होते वहां तक उनके स्कूटर, मोटर साइकिल, यहां तक कि कार तक जाने लगी थी। पक्षकारों का तो कहना ही क्या ? उसकी गाड़ी भी वहां तक जाती थी जहां तक उसके वकील की जाती। हालत संभालने के लिए वाहन पार्किंग का ठेका भी दिया परंतु वकील कोई पैसा दे। जब वकील ही नहीं दे तो उसके पास आया कैसे पैसे देगा। ठेकेदार भी हाथ खड़े करने लग गए। अदालत के कर्मचारी तो पहले ही तौबा ही कर चुके थे। किताब, कपड़े, जूते चप्पल, चादर बेचने वाले, भिखारी, फकीर, साधु, कान साफ करने वाले, दलाल वगैरह हर कोई तो ड्यूटी देने के अंदाज में बगैर नागा चला आता था। जैसा समाज, वैसी व्यवस्था। बिगड़ने बिखरने जा रही वाहन पार्किंग अब फिर सुधरने लगी। वाहनों की आवाजाही पर लगाम के लिए अदालतों के सभी गेटों पर चेन-ताला डालकर पैदल आने-जाने की जगह छोड़ी हुई है। किसी ने नए जज साहब से अर्ज किया सर, गेटों के ताले तो खोलिए। मुस्कुराते होठों से जवाब मिला, दिल खुले रखिये……..!
राजेन्द्र हाड़ा 09829270160

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