कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे

zसरकार विदा, बहुत अच्छा लगा आप आयीं हमारे नगर। फिर आना, आते रहना।
किसी ने मुझसे पूछा किससे बात कर रहे हो मियां..?
मैंने कहा वो अपने प्रदेश की रानी साहिब आयीं थीं, तो बस उन्हें ही विदा कर रहा हूँ।
अरे पर तुझे क्या.??
मैं बोला, नहीं माने मेहमान को इज़्ज़त से विदा करना फ़र्ज़ है।
वो बोले, अमां यार वो शाही मेहमान थीं, निज़ाम ने जम के खातिरदारी की उनकी, तू कौन और मैं कौन..?
मैंने कहा, नहीं यार “विकास” लाएगी सरकार।
बहुत भोला है रे तू। मेरे भाई “विकास” किसी भी सरकार का “कल्पना पुत्र” होता है। उसका भ्रूण तो नज़र आता है, मगर पूर्ण जन्म कभी नहीं होता। अच्छा बता, आजादी को सत्तर साल हो गए, “विकास” अब तक पैदा क्यों नहीं हुआ। अब तक तो उसे पड़ दादा बन जाना चाहिए था..!! है कि नहीं..?
मेरा सर चकराया। मैंने कहा चच्चा ये क्या अंट शंट बक रहे हो,, भ्रूण जन्म…?
वो बोले, देख भोले राजा। सरकार आजादी का पर्व मनाने अजमेर आ रही थी। आनन फानन शहर के “विकास” के लिए सारा लाव लश्कर लग गया। फिर शहर की दो एक सड़कों का “पैबंदीकरण” कर “विकास” के जन्म की तैयारी की गयी। “विकास” के नामकरण के लिये कुछ एक छोटी मोटी रस्में अदा करते हुए उद्घाटन और शिलान्यास करवाये गए। ये सब “विकास” के “भ्रूण बीजारोपण” की रस्म थी। शहर को उम्मीद जागी कि सरकार आ रही है, अब “विकास” ज़रूर “पूर्ण जन्म” लेगा। मगर क्या हुआ?? “विकास” की भ्रूण हत्या हो गयी मेरे भाई।
अब मैं पूरी तरह घनचक्कर हो गया। मैंने कहा, अमां ला हौल विलाकुवत चच्चा, हम सरकार की विदाई की बात कर रहे हैं और आप लगे जापा कराने।
उसने कहा, मिट्ठू मियां शहर की सड़कें आज भी गड्ढों में हैं, कुछ दस पांच फीसदी रास्ते छोड़ दो तो बाकी सड़कों पर आज भी रात को अँधेरा पसरा रहता है। मियां सिर्फ सर्किट हाउस और पटेल मैदान जाने वाले दो रास्तों को चकाचक कर देने से “विकास” जन्म नहीं लेगा। समझ रहे हो न हम क्या कह रहे हैं..!?!
हमने पैंतरा बदला, ओ तेरी..!! मियाँ खां ये तो हमने सोचा ही नहीं। यार बात तो सो सही पकड़ी आपने।

अमित टंडन
अमित टंडन
वो बोले, भाई रानी साहिब ने at home में चंद हुक्मरानों की पीठ थपथपाई, जितना सौंदर्यीकरण उन्हें सेम्पल के रूप में दिखाया गया उसी पे वो नंबर दे गयीं 100 में से 100….। भाई जब ट्रायल टेस्ट से ही प्रशासन को मेरिट लिस्ट में अव्वल घोषित कर दिया गया, तो मुख्य परीक्षा अब देगा कौन.? करना था तो सरकार के आने से पहले ही पूरे शहर को चमका देते। पूरे शहर को खम्भा रहित कर देते। सरकार ने एकदम तो फैसला लिया नहीं होगा कि अजमेर में राज्य स्तरीय 15 अगस्त समारोह मनाएंगे।
हम बड़बड़ाये, भाई तुम तो बहुत नकारात्मक सोचते हो। शुरुआत हो गयी है, अब देखना जैसे सर्किट हाउस और पटेल मैदान के आस पास चमक दिख रही है, जल्दी पूरा शहर ऐसे ही चमकता दिखेगा।
वो भुनभुनाए, अबे तुम चिरकुट ही रहोगे। मियां पंद्रह अगस्त मना के सरकार जो शहर से विदा हुयी तो उसी रात को सजावट की लाइटों के साथ कई स्ट्रीट लाइट की भी बत्ती गुल थी। खैर जाने दो, चलो अभी दो दिन हुए हैं इसलिए कुछ नहीं कहते। तेल देखो और तेल की धार देखो। सत्तर साल में तो तेल की धार ऐसी रोती रोती ही टपक रही है।
हमने बीच में टोका, ऐसा नहीँ कह सकते आप। “विकास” की कई पीढ़ियों ने जन्म लिया है आजादी के बाद। शहर मॉडर्न हो गए, कई जगह मेट्रो ट्रेन आ गयीं, मॉल तो हर शहर में हैं, एकल ठाठिया सिनेमा बंद हो गए और मल्टीप्लेक्स आ गए, सेलफोन क्रांति आई है। नही नहीं यार हम आगे तो बढे हैं।
उन्होंने नाक भौं सिकोड़ी, तुम हो गधे प्रसाद। अबे तकनीकी विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट तो अंग्रेज ही कर रहे थे देश में। ट्रेन क्या तुम्हारे ताऊ ने ईजाद की..? फोन, रेडियो, टीवी, फ्रिज तुम्हारी खाला का आविष्कार है क्या?? लालटेन में बैठा करते थे तुम्हारे दादे परदादे। अंग्रेज बिजली लेके आये तो तुम बल्ब से आज LED तक पहुंचे। और इंफ्रास्टक्चर की बात करते हो तो भैया अंग्रेजों की बनायी बिल्डिंगें आज भी ढाई तीन सौ सालों से अडिग खड़ी हैं। ये अपने घोटालेबाज निर्माताओं के पुलों और भवनों की तरह नहीँ कि उधर उद्धाटन करके मंत्री जी पलटे और उधर पुल धड़ाम। यार मियां घौंचु अगर यही विकास है तो फिर देश में अंग्रेज क्या बुरे थे। सेल फोन क्रांति, मॉल कल्चर आदि आदि तो वो पहले ही ला चुके होते। एक किशनगढ़ का एअरपोर्ट तो पिछले पच्चीस तीस सालों से दलों की दलदल में अटका है। अंग्रेज होते तो मदार को भी अब तक छोटा मोटा हेलीपेड तो बना ही चुके होते। मुन्ना, भौतिक सुविधाओं का विस्तार “विकास” नहीं होता। अच्छा सोच, आजादी किस “विकास” के लिए ली थी..? अत्याचार से मुक्ति,
भ्रष्टाचार से मुक्ति,
तानाशाही से मुक्ति,
राजशाही से मुक्ति,
अनाचार दुराचार और व्यभिचार से मुक्ति,
बेरोजगारी से मुक्ति,
गरीबी और भुखमरी से मुक्ति,
अशिक्षा और अज्ञानता से मुक्ति,
रूढ़ीवाद और अंधविश्वास से मुक्ति, ऊँच नीच तथा धार्मिक व जातीय भेदभाव से मुक्ति,
किसानों और मजदूरों की दुर्गति से मुक्ति,
अपराधों से मुक्ति।
पर इन सब से मुक्ति मिली क्या?? ये सब विडंबनाएं और बढ़ गयीं देश में।
हम हैरान और परेशान, हमने कहा भैया तुम्हारा दिमाग तो गज़ब ही चलता है। कहाँ की बात कहाँ ले जाके जोड़ी, ससुरा इतना जोड़ बाकी तो गणित का मास्टर भी नहीं कर पाता होगा। पर फिर भी आप सरकार की विदाई के मुद्दे से हमें भटकाओ नहीं। देखो रानी साहिबा ने भाषण में कहा था कि पहले स्कूल नहीं थे, स्कूल थे तो शिक्षक नहीं थे, शिक्षक थे तो शिक्षा नहीं थी, अस्पताल थे तो डॉक्टर नहीँ थे, डॉक्टर थे तो दवाइयाँ नहीं थीं, ये था तो वो नहीं था और वो था तो ये नहीं था, मगर अब सब कुछ है।
सामने चच्चा को हम पे ऐसा गुस्सा आया कि बस गनीमत रही के पान की पीक ही हमारे मुंह पे नहीं थूकी। बुरा सा मुंह बनाते हुए बोले, बेटा बच्चे हो अभी। हम सत्तर साल से यही जुमले हर भाषण में सुन रहे हैं। ना पहले कुछ था, ना अब कुछ् है। और जो कुछ है भी तो वो निजी कंपनियों, निजी अस्पतालों या निजी शिक्षण संसाथनों में है, और इतना महंगा है कि देश की 80 फीसदी जनता की तो औकात के बाहर है। जो सब निजी में उच्च स्तर का है वो सब सरकारी में उस स्तर का क्यों नहीं है। बेटा बातें हैं बातों का क्या..?
हमने हाँ में सर हिलाया और कुछ सोचते हुए बोलने के लिए मुंह उठाया ही था कि सामने वाले ने झिड़कते हुए कहा, अबे चुप..! ये बताओ हम अजमेर वाले सोच रहे थे सरकार आ रही है, सौगातें दे जायेगी, कुछ मिला..?
हमने कहा, नहीं
वो बोले, अबे मिला न
हमने अचरज से पूछा क्या..?
तो हँसते हुए बोले, बाबा जी का ठुल्लू।
फिर कहा, देख बेटा जब कोई बड़ा हमारे यहां बहार से आता है न विदेशी महान की तरह तो घर के हर सदस्य के लिए कई सौगातें और महंगे तोहफे साथ लाता है। और सरकार आये तो समझ ले कि वारे न्यारे हो जाने चाहिए थे। राजे महाराजों की कहानियाँ सुनी हैं न। जहां जाते थे तो कहीं अशर्फियाँ दान कर गए, कहीं गले से निकाल के नौलखा हार दे गए, कहीं ज़मीनें तोहफे में दे गए। मगर बच्चे ये लोकतंत्र के राजे रानियां तो ख़ुशी में सिर्फ आश्वासन ही देते हैं। इस बार तो घोषणाओं की लॉलीपॉप भी नहीं मिली। सरकार का कारवां निकल गया, पीछे रह गया ग़ुबार। बेटा अभी तो विचारों का ग़ुबार निकला है। आगे आगे देख जब समय के साथ हालात वही ढाक के तीन पात दिखेंगे न, तो और कैसे कैसे ग़ुबार निकलेंगे। अभी तो धूल के ग़ुबार मुंह पे उड़ रहे हैं बेटा, उन्हें झाड़। चल अब भाग यहां से। ख्वामखां हमारे समय का सत्यनाश किया, बहुत काम हैं। हम हैं गरीब अवाम इन प्रपंचों में पड़ेंगे तो रोज़ी रोटी कौन तुम्हारे अब्बा कमा के देंगे।
हमने भी वहां से खिसकने में अपनी भलाई समझी और विचारों की जुगाली करते वहां निकले और फिर दुनिया की भीड़ में खो गए।
–अमित टंडन, अजमेर
9462071182

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