भा.ज.पा. का नया वैचारिक स्वरूप: 2014

प्रो. एस.एन. सिंह
प्रो. एस.एन. सिंह

भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) का भारत में उद्भव एवं विकास कई घटनाक्रमों एवं नये वैचारिक विकास के साथ हुआ है। कांग्रेस के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं होने तथा वैचारिक भिन्न्ाताओं के कारण जो महात्मा गाँधी, नेहरू एवं अन्य प्रमुख कांग्रेसी नेताओं से वैचारिक समन्वय स्थापित नहीं कर सके उन्होंने ”जनसंघ“ के नाम से एक नयी पार्टी का गठन किया और कांग्रेस से पृथक हो गये। भा.ज.पा. 1974 तक भारतीय जनसंघ के नाम से भारतीय राजनीति में हिन्दू और हिन्दुत्व के संरक्षक के रूप में राजनीति करती थी। 1974 में बिहार-गुजरात के छात्र आन्दोलनों और बाद में ”जयप्रकाश नारायण आन्दोलन“ के ध्वज की वाहक बनी। आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता और जनसंघ के विधायकों और सांसदों ने इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। 1974-75 में मंहगाई, भ्रष्टाचार, पुलिस दमन और कांग्रेस पार्टी की हठधार्मिता और प्रशासनिक विफलता पर होने वाले आन्दोलन में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया। इससे पहले जनसंघ के नेता गौ हत्या रोकने, राम मन्दिर बनाने और कश्मीर के मुद्दे पर ही प्रायः आन्दोलन करते थे और जेल भरते थे। उनका संघर्ष पूर्ण और राष्ट्रीय मुद्दों पर आन्दोलनकारी स्वरूप 1974 में राष्ट्रीय स्तर पर सामने आया। 26 जून 1975 में कांग्रेस प्रधानमंत्री श्रीमती गाँधी ने आपात काल लागू किया। जेल में जनसंघ के नेताओं ने कांग्रेस पार्टी के वर्चस्व को खत्म करने के लिए जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में ”जनता पार्टी“ बनाने की रूपरेखा तैयार की तथा उसके बाद 1977 में आपात् काल की समाप्ति के बाद जनसंघ का जनता पार्टी में विलय कर दिया गया। 1977-79 के बीच केन्द्र और उत्तर भारत के प्रायः सभी राज्यों में जनता पार्टी ने शासक दल बनकर अन्तोदय योजना के अन्तर्गत पार्टी रोजगार परक कार्यक्रम समाज के अन्तिम लोगों के उत्थान के लिए भी शुरू किये। साथ ही जनसंघ के पुराने नेता जनता पार्टी को पुनः जनसंघ बना देने के लिए भी प्रयत्नशील रहे। लेकिन जार्ज फर्नाडीस एवं अन्य समाजवादी नेताओं ने ”दोहरी सदस्यता“ यानि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और ”जनता पार्टी“ की दोहरी सदस्यता धारण करने के मुद्दे पर विरोध करना शुरू कर दिया। समाजवादी नेता आर.एस.एस. से जनता पार्टी को पूर्णतः मुक्त रखना चाहते थे। इसी मुद्दे के आधार पर मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार गिर गई। 1980 में छठीं लोक सभा का चुनाव हुआ। जनता पार्टी का पराभव हुआ। भारतीय जनता पार्टी काफी फेर बदल के बाद अस्तित्व में आई। 6 मई 1980 को अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवानी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी का गठन पुराने ”दीप“ के निशान के जगह ”कमल के फूल“ के साथ हुआ। पार्टी का निशान ही तो बदला था परन्तु उद्देश्य मूलतः ”हिन्दू और हिन्दुत्व“ ही रहा। यद्यपि जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति और गाँधीवादी अर्थनीति की अपनी 5 निष्ठाएँ-राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय समन्वय, लोकतंत्र, प्रभावकारी धर्म-निरपेक्षता गाँधीवादी समाजवाद और सिद्धान्तों पर आधारित साफ-सुधरी राजनीति के साथ इस पार्टी ने स्वीकार किया गया। लेकिन इन सब उद्देश्यों के साथ-साथ हिन्दुओं को उद्वेलित करने वाले नारे जय श्रीराम का उद्घोष, अयोध्या में भव्य राम मन्दिर का निर्माण, जम्मू कश्मीर में संविधान के अनुछेद 370 की समाप्ति और भारत के सभी नागरिकों के लिए समान आचार संहिता जैसे जनसंघ के समय की निष्ठाएँ भी कायम रही। इस तरह अन्ततः भाजपा ने आठवीं लोक सभा का चुनाव अपने नये चुनाव चिह्न कमल के फूल पर लड़ा। लेकिन श्रीमती गाँधी की 31 अक्टूबर 1984 की गई हत्या के कारण उत्पन्न्ा संवेदना ने मतदाता का एक तरफा झुकाव कांग्रेस के पक्ष में कर दिया। फलस्वरूप भा.ज.पा. को मात्र 2 सीटों पर विजय मिली। इस तरह यह जब संघ के द्वारा 1952 में जीती गई 3 सीटों से भी कम था। इसके बाद आडवाणी जी की रथ यात्रा और विश्व हिन्दू परिषद का राम मंदिर अभियान (1991-1996) के मुद्दे ने भा.ज.पा. को सत्तारूढ़ दल बनाया। इस तरह 1996 में तेरह दिन, 1998 में तेरह माह और 1999-2004 के बीच साढ़े चार साल तक देश की सत्ता को सम्भाला। इस दौरान भाजपा ने उत्तर भारत के प्रमुख राज्यों में भी अपनी सत्ता स्थापित की।
आगे चलकर अपने राजनीतिक स्थायित्व को कायम रखने के लिए भा.ज.पा. ने सत्तासीन होने के लिए और भारत के प्रमुख राजनीतिक दल ”भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी“ को परास्त करने के लिए गठबंधन सरकार की नीति अपनाया। इसी नीति से इसने 1967-1971 के बीच कई राज्यों में जनसंघ और समाजवादी पार्टी की साझा सरकार भी चलायी थी। बाद में भा.ज.पा. की 21-23 जून, 1996 को भोपाल में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उत्तर और पश्चिमी भारत में नये दलों से गठबंधन कर अपने प्रभाव क्षेत्र में विस्तार करने का नीति स्वीकार किया गया। इसके बाद सत्ता के स्थायित्व के लिए दिसम्बर 1997 में तमिलनाडु में अन्न्ााद्रमुक (जयललिता), उड़ीसा में बीजू जनता दल, (नवीन पटनायक) कर्नाटक में लोक शक्ति पार्टी (रामकृष्ण हेगड़े) बिहार में समता दल (जार्ज फर्नाडीस) और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (ममता बनर्जी) से गठबन्धन किया गया। इन सभी राजनैतिक दलों का स्वरूप और सिद्धान्त ”धर्मनिरपेक्ष“ था। अतः इनके साथ समझौता होने से भा.ज.पा. पर साम्प्रदायिक होने का दाग थोड़ा कम हुआ तथा इसके बाद राजनैतिक रूप से इस पार्टी को अछूत नहीं माना जाने लगा। इन्हीं दलों के दवाब में भारतीय जनता पार्टी ने अपने मूल सिद्धान्त के विवादित मुद्दों पर समझौतावादी रूख अपनाया और गौ वध-निषेध, राम-मंदिर, कश्मीर और समान आचार संहिता को अलग रखकर 24 दलों का एक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एन.डी.ए.) बनाया। इसे तरह भाजपा ने अपने समर्थक राजनीति दलों के द्वारा एन.डी.ए. को जन्म दिया।
एन.डी.ए. गठबंधन के नेतृत्व में 1998 एवं 1999 के लोक सभा चुनावों में भाजपा सफलता प्राप्त की। भा.ज.पा. के राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल कृष्ण अडवाणी ने 12वीं लोक सभा चुनाव 1998 में 3 फरवरी 1998 को घोषणा पत्र जारी किया। इसमें पुराने विवादित मुद्दे भी शामिल किए गए थे। लेकिन इन पुराने मुद्दों के साथ राष्ट्र निर्माण और आर्थिक पुर्नरचना को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। इसके परिणामस्वरूप भा.ज.पा. को कई राज्यों में अच्छी सफलता मिली। मार्च 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भा.ज.पा. सरकार बनी जो तेरह महिने बाद ही 17 अप्रैल 1999 को लोक सभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित होने के कारण पराजित हो गया। सहयोगी दल ”अन्न्ाा द्रमुक“ ने अपना समर्थन सरकार से वापस लेकर सरकार को पराजित करवा दिया। 26 अप्रैल 1999 को लोक सभा को भंग कर दिया गया लेकिन इसके साथ ही वाजपेयी सरकार को अगले चुनाव तक कार्य करने की अनुमति राष्ट्रपति के द्वारा प्रदान की गई। इसी दौरान पाकिस्तान का ”कारगिल“ पर हमला हुआ। वाजपेयी सरकार ने हमलावरों को खदेड़ कर कारगिल सहित कश्मीर के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों पर भारत का कब्जा पुनः कायम किया। इस तरह देश में वाजपेयी (भाजपा) की लहर देखी गयी। सितम्बर 1999 के तेरहवें लोक सभा चुनावों में भा.ज.पा. ने अपना कोई घोषणा पत्र जारी नहीं किया। 16 अगस्त 1999 को एन.डी.ए. का घोषणा पत्र जारी किया गया जिसे छंजपवदंस ंहमदकं वित ळवअमतदंदबम का नाम दिया गया। इसमें विभेदकारी विवादित मुद्दों को स्थान नहीं दिया गया।
1999 के लोक सभा चुनावों में भा.ज.पा. ने कुल 543 सीटों में 182 पर विजय प्राप्त की। इससे पूर्व 1998 में भी 182 सीट पर ही भा.ज.पा. के उम्मीदवार जीते थे तथा भा.ज.पा. के अटल बिहारी बाजपेयी फिर से भारत के प्रधानमंत्री बने। लेकिन इस बार वोट का प्रतिशत 1998 के प्रतिशत 25.59 से गिरकर 23.07 प्रतिशत हो गया। भा.ज.पा. के सहयोगी दल यथा – तेलगू देशम पार्टी (29), जनता दल एकीकृत (20), शिवसेना (15), डी.एम.के. (12), बीजू जनता दल (10) और तृणमूल काँग्रेस (8) सीट जीते। भा.ज.पा. से गठबंधन करने वाले इन क्षेत्रीय दलों के लिए गठबंधन काफी लाभकारी रहा। भा.ज.पा. को भी राज्यों में गठबन्धन का लाभ मिला लेकिन उत्तर प्रदेश में इसे 1998 में 57 सीटें मिली थी, वहाँ 27 सीट गंवाने के बाद मात्र 20 सीटें ही जीत सके। सम्भवतः उत्तरप्रदेश में भव्य राम-मन्दिर का निर्माण नहीं करवा सकने, राम मन्दिर आन्दोलन के कमजोर पड़ने, हिन्दुत्व के जगह ”जातिवाद“ का नारा बुलन्द होने से भा.ज.पा. को उत्तर-प्रदेश में भारी हानि उठानी पड़ी। अक्टूबर 1999 से फरवरी 2004 तक राजग सरकार ने देश में राजनीतिक स्थायित्व के लिए आर्थिक विकास भी किया। इससे उत्साहित होकर भाजपा नेताओं ने 6 फरवरी 2004 को तेरहवीं लोक सभा को समय से पहले भंग कर ”इंडिया शाइंनिंग“ के नारा और ”फीलगुड नया“ के माहौल में जनादेश लेना चाहा। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में गठित भा.ज.पा. विरोधी दलों के हाथों सत्ता गंवा बैठी। ”साम्प्रदायिकत या धर्म निरपेक्षता“ का नारा काम नहीं आया और भा.ज.पा. के सभी अच्छे कार्यों को इसने महत्वहीन कर दिया। अल्पसंख्यक मतों का धु्रवीकरण भा.ज.पा. के विकासोनुमुख नारे पर भारी पड़ा। भारत में बहुसंख्यक हिन्दुओं की जाति और उपजाति में सामाजिक रूप से विभाजन, धर्म निरपेक्षता का संरक्षक है। फलतः भा.ज.पा. 2004 और 2009 के लोक सभा चुनाव में भी पराजित हुई। धर्म के नाम पर मुस्लिम वोट एकीकृत रूप से काँग्रेस और यू.पी.ए. को प्राप्त हुए। साथ ही मुस्लिम नेताओं ने भा.ज.पा. के पराजित करने में सक्षम अन्य दलों को भी एकीकृत रूप से वोट दिलवाया।
राम मन्दिर-बाबरी मस्जिद विवाद भा.ज.पा. की सफलता और हिन्दू मतदाताओं के अपने पक्ष में ध्रुवीकृत के लिए महत्वपूर्ण ”प्रतीक“ (ैलउइवसपेउ) था। बावरी मस्जिद के 6 दिसम्बर 1992 के विध्वन्स के बाद और उसके स्थान पर अस्थायी राम मन्दिर का निर्माण तत्काल करके ”राम लला“ मूर्ति की स्थापना करने के बाद ”हिन्दुवादी“ मकसद पूर्ण हो गया। लेकिन 1996 एवं 1998 के लोक सभा चुनाव में भा.ज.पा. इसका भरपूर लाभ ले चुकी थी। बाद के चुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज वादी पार्टी के पक्ष में अन्य पिछड़े वर्ग, दलित और मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण हो गया था। इसके विपरीत भा.ज.पा. का हिन्दू वोट बैंक सिर्फ सवर्ण जाति ब्राह्मण, राजपूत, बनिया और जाट तक ही सीमित रह गया था। इस तरह जातीय संरचना ने हिन्दू एकीकरण को विखण्डित कर दिया। राजनीतिशास्त्री-समाजशास्त्री- इस जातीय संरचना को धर्मनिपेक्ष भारत में संरक्षक के रूप में वर्णित करते हैं। विश्व हिन्दू परिषद के नेता इस जातिगत भावना के हिन्दुओं के एकीकरण में बाधक मानते हैं। अतः राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपने विभिन्न्ा संगठनों को दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग में अपनी पैठ बढ़ाने के निर्देश दिये। इन वर्गों के अनेक नेता उभरे और उन्हें महत्वपूर्ण स्थान भी दिया गया। लेकिन फिर भी भा.ज.पा. का स्वरूप 2009 के चुनावों तक सवर्णवादी ही रहा जिसमें ब्राह्मण-राजपूत और बनिया का वर्चस्व ही बना रहा। अतः भा.ज.पा. का सामाजिक आधार आगे नहीं बढ़ सका। इसी तरह हिन्दू-हिन्दुत्व का महत्वपूर्ण एजेण्डा गठबन्धन सरकार में भी पूरा नहीं हो सका। इससे हिन्दुवादी संगठन, वाजपेयी-अडवाणी की 2004 एवं 2009 के चुनाव में मूक दर्शक ही बन कर रह गए।
इस दौरान सोनिया गाँधी के नेतृत्व में भा.ज.पा. विरोधी शक्ति उभरी और ”धर्म निरपेक्षता“ के नाम पर ”यू.पी.ए.“ गठबन्धन बनाकर केन्द्र में सत्ता हासिल कर ली। यू.पी.ए. ने प्रारम्भ में काफी गरीबोन्मुख कार्यक्रम चलाये जिसके फलस्वरूप दुबारा 2009 में अच्छी बढ़त लेकर सत्ता हासिल की। मतदाता को भी भा.ज.पा. के मात्र सुशासन, विकास और सुरक्षा के मुद्दे के नाम पर मत देना गंवारा नहीं हुआ। भा.ज.पा. का ”देश पहले“ और ”मजबूत नेता-निर्णायक सरकार“ का नारा कांग्रेस के ”जय हो“ के नारे के उद्घोष से पिछड़ गया। कांग्रेस पार्टी ने 206 सांसद एवं 28.55 प्रतिशत वोट हासिल कर 2009 के चुनाव में 2004 से भी 61 सीट अधिक जीती। लेकिन 2009-2013 के दौरान यू.पी.ए. सरकार के कई घोटाले उजागर हुए। मनमोहन सिंह एक बंधुआ प्रधानमंत्री साबित हुए जैसा कि उनका पूर्व प्रेस सलाहकार अपनी पुस्तक ”द एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर-द मेकिंग एण्ड अनमेकिंग ऑफ मन मोहन सिंह“ में लिखा है। फलतः कांग्रेस के दो ध्रुव कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी एवं मनमोहन सिंह के आपसी द्वन्द्व और सहयोगी दलों के नेताओं के दवाब में जनता में अपना विश्वास खो दिया। परिणामस्वरूप कई राज्यों के चुनावों में कांग्रेस पार्टी पराजित हुई और ऐसा प्रतीत होता है कि अप्रैल-मई 2014 के 16वीं लोकसभा चुनाव में अब तक की सबसे बड़ी पराजय के ओर बढ़ रही है।
कांग्रेस पार्टी की असफलता और पराभव का लाभ लेने के लिए भा.ज.पा. ने गत एक वर्ष में कई दलों से गठबंधन किया और विभिन्न्ा सामाजिक जातीय समूहों में भी अपना आधार बढ़ाने के लिए प्रयत्नरत है। इसी प्रयास में भाजपा और आर.एस.एस., ने मिलकर पिछड़े जाति के नरेन्द्र मोदी को जो गुजरात में अपना प्रभुत्व सिद्ध कर चुके हैं को 16वीं लोक सभा में अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है। कांग्रेस और समाजवादी दल के नेताओं ”चाय वाला“ का पुत्र होने, एवं ”चाय बेचने“ वाला प्रधान मंत्री नहीं हो सकता आदि टिप्पणियों से अपमानित करना शुरू कर दिया है। इस विवाद ने मोदी को आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग और जाति, उपजाति, विभिन्न्ा छोटे-मोटे कारोबार करने वाले, मेहनतकश लोगों के सामाजिक समूह के साथ आर्थिक आधार यानि मार्क्सवादी शब्दों में ”निम्न वर्ग“ को वर्गीय आधार दिया। इससे उन पर लगाया गया साम्प्रदायिक और दंभी होने का आरोप कम हुआ और भारत के 50 प्रतिशत गरीब-पिछड़े लोगों के प्रतिनिधि के रूप में नयी पहचान सामने आयी। भा.ज.पा. ने अपने प्रचारतंत्र में ”चाय की थड़ी“, ”मोदी चाय“, ”नमो चाय“ का प्रचलन कर रहे है। अपना संदेश गरीब तबके तक पहुँचाने का कार्य किया। एम.जे. अकबर का लेख ”मैं भा.ज.पा. में क्यों आया ने भी इसे व्यापक स्वीकार्यता प्रदान की है। काफी संख्या में मुस्लिम नेताओं और बुद्धि जीवियों ने भी इसमें शामिल होकर भाजपा व्यापक दृष्टिकोण और नये स्वरूप के प्रति अपना विश्वास व्यक्त किया है।“
2014 के चुनाव से पूर्व भा.ज.पा. नेता नरेन्द्र मोदी साम्प्रदायिकता के दाग से अदालत के द्वारा दोषमुक्त हो गए। ”चाय वाला“ के नये नाम ने उसे काफी लोकप्रिय भी बना दिया। साम्प्रदायिकता का दाग हटते ही एन.डी.ए. को बिछुड़े साथी राम विलास पासवान (लो.ज.पा.) और चन्द्रबाबू नायडू (टी.डी.पी.) बिहार और आन्ध्रप्रदेश जैसे बड़े राज्यों के नेता का समर्थन भी मिल गया है। एन.डी.ए. का विस्तार उत्तर-पूर्व के राज्यों और सुदुर दक्षिण के तमिलनाडू में पाँच सहयोगी दलों से समझौता कर हुआ है। नरेन्द्र मोदी की विशाल सभाएँ सम्पूर्ण देश में हो रही है, स्वप्रेरित श्रोता या टिकट खरीद कर आने वाले श्रोताओं में उनके प्रति काफी उत्साह है। यह उत्साह सम्भवतः मत देने और दिलवाने में भी बदलता दिख रहा है। गत् चार चरणों में हुए काफी मतदान में एन.डी.ए. को विभिन्न्ा निष्पक्ष सर्वे के द्वारा बढ़त के रूप में बताया जा रहा है। सम्भव है एन.डी.ए. 272 प्लस सीटें भा.ज.पा और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जीत कर एन.डी.ए. की सरकार बनाने और अपने वादों के अनुरूप विकासोन्मुख और समावेशी स्थायी सरकार देश को दे जिसमें सभी सामाजिक-धार्मिक समूहों का विकास हो सके और किसी के साथ भेदभाव नहीं हो।
भा.ज.पा. का चुनावी घोषणा-पत्र जो 7 अप्रैल 2014 को जारी किया गया उसमें पुराने तीनों विवादित मुद्दे राम मन्दिर निर्माण, अनुच्छेद 370 और समान आचार संहिता के स्थान पर ”समावेशी विकास“, ”सबका साथ सबका विकास“ के नारे को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसमें भा.ज.पा. का विश्व और देश के बदले आर्थिक स्वरूप, भूमण्डलीकरण, उपभोगितावादी संस्कृति के प्रति जनमानस और विशेषकर युवाओं की रूचि को ध्यान में रखा गया है। भा.ज.पा. के घोषणा-पत्र को कांग्रेस पार्टी अपने घोषण-पत्र की नकल कहती है। लेकिन भा.ज.पा. नेता इसे अकल के साथ नकल मानते है। यह बात सही है कि कांग्रेस पार्टी ने गरीबों के लिए कई कानून बनाये, कई सुविधाएं उपलब्ध करवायी लेकिन इसके विपरीत भा.ज.पा. ने इसे लागू करने का स्वरूप दिखाया है। आज के युवा वर्ग को मंदिर-मस्जिद के स्थान पर रोजगार, सुशासन, शांति, नौकरी, अच्छी-शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और सड़क की अपेक्षा है। आजकल मंदिर-मस्जिद विवाद, दंगों, अशांति के स्थान पर भ्रष्ट्राचार की समाप्ति, सुशासन, विकास के मुद्दों पर युवा वर्ग और चाय की थड़ी (टी स्टॉल) पर बहस होती है। भा.ज.पा. ने विकास का भरोसा दिलाकर अपने को रूढ़िवादी-साम्प्रदायिकतावादी नहीं होने के साथ जनता को नये उदारवादी रूप में पेश किया है जिसमें दुनिया में भारत को एक प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में प्रस्तुत करने की सुदृढ़ इच्छा शक्ति है।
भा.ज.पा. का नया नेतृत्व जो आजादी के बाद का है उसने देश का विभाजन और उसके बाद हुए साम्प्रदायिक उन्माद को नहीं देखा है। उनमें नरेन्द्र मोदी के साथ भा.ज.पा. अध्यक्ष राजनाथ सिंह, महासचिव अरूण जेटली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे, शिवराज सिंह चौहान और रमण सिंह जैसे सशक्त नेता भी खड़े हैं। इन लोगों के सामूहिक नेतृत्व में भा.ज.पा. एक सफल राजनीतिक दल के रूप में सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर सत्ता प्राप्त करने जा रही है जो देश की एकता और अखण्डता को मजबूत करेगी। ऐसी आशा सभी वर्ग कर रहे है अब भा.ज.पा. किसी धर्म की नहीं, अथवा केवल हिन्दी-हिन्दू और उत्तर भारतीयों की पार्टी नहीं है। सारे देश में अपने जनाधार, प्रतिनिधित्व और सभी जाति धर्मों के मतदाताओं में पैठ जमायी। साथ ही सर्वधर्म समभाव के साथ समावेशी विकासोन्मुख कार्यक्रमों के आधार पर मत प्राप्त करने के लिए प्रयासरत है। यदि लोक सभा में बहुमत प्राप्त कर सरकार बना कर देश का नेतृत्व इसी समावेशी विकास की भावना से करेंगी तो यह भा.ज.पा. में नये दृष्टिकोण का प्रवाह ही होगा।
हालॉकि अब भा.ज.पा. 2014 में वैसी आदर्शवादी पार्टी नहीं रह गई है जैसी वह श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी के समय में थी। इसमें 21वीं शताब्दी के युवा नेताओं के अनुरूप कई दूरगामी परिवर्तन भी करने पड़े हैं। भा.ज.पा. के चुनाव घोषणा-पत्र से उसके ”मुख्य मुद्दों“ अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, सांविधानिक अनुच्छेद 370 के खात्मे और समान नागरिक संहिता के निर्माण को अगर छोड़ दिया जाए। तो बाकी कार्यक्रमों एवं वादों में कांग्रेस जैसी उदारवादी दृष्टिकोण होती है। पार्टी समावेशी विकास की उस धारणा को अपना लिया है, जिसे पिछले दस वर्षों में यूपीए ने अपना खास बिन्दु बनाए रखा है। बल्कि भाजपा सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में उन कार्यक्रमों को बेहतर ढंग से लागू करने का वादा किया है। भाजपा ने कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन और उसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से अपना अंतर मुख्य रूप से इस आधार पर बताया है कि वह बेहतर निर्णय क्षमता प्रदर्शित करेगी और कार्यक्रमों को अधिक कुशलता से लागू करेगी वरन् मुख्य मुद्दों पर भी पार्टी के रुख में पहले की तुलना में नरमी लिए हुए है। इस प्रकार कह सकते है कि अब भाजपा मध्यमार्गी पार्टी बनने की कोशिश में है। अब उसके हिन्दुवादी दृष्टिकोण में चलीलापन आ गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विचारधारा पर आधारित पार्टियाँ चुनावों के समय अपने समर्थन आधार में विस्तार करने के लिए मध्य मार्ग की तरफ बढ़ती है। चुनाव जीतना तभी मुमकिन होता है जब बहुत से ऐसे मतदाताओं का भी समर्थन मिले जो शांति, सद्भाव और विकास का माहौल बनाने वाले दल को समर्थन देते है। इसीलिए भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में आबादी के हर हिस्से के लिए वादे किए है और जिन मसलों से आबादी के कुछ समूह विरोध कर सकते है उन्हें ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है। भाजपा ने शासन करने की महत्ती इच्छा से स्वाभाविक पार्टी बनने के लिए अपनी छवि सबके हितों के रक्षक के रूप में बनाई है। नरेन्द्र मोदी ने कहा कि वे जनता से प्राप्त जनादेश को पूरा करने के लिए काम करेंगे, अपने लिए कुछ नहीं करेंगे और किसी के प्रति दुर्भावना रखते हुए काम नहीं करेंगे। इस बयान से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी ने अपने और अपनी पार्टी बारे में कुछ समूहों में खासकर मुस्लिम और ईसाई में बनी गलत धारणाओं को दूर करने का प्रयास किया है। उनका बयान और पार्टी का घोषणा पत्र दोनों भाजपा को उस नये वैचारिक धरातल पर ले जायेगा जिसमें भारत के सभी नागरिकों का समावेशी विकास होगा।
-प्रो. एस.एन. सिंह
विभागाध्यक्ष राजनीति विज्ञान विभाग,
एवं डीन सामाजिक विज्ञान संकाय,
महर्षि दयानन्द सरस्वती विश्वविद्यालय अजमेर।
मो. 09352002053, email:[email protected]

error: Content is protected !!