और इस तरह लिया रोटी ने सांप्रदायिता का रूप

shivsena-डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री- दिल्ली में अनेक राज्यों ने अपने अपने भवन बनाये हुये। कई राज्यों के एक नहीं दो दो भवन हैं। इसी प्रकार महाराष्ट्र सरकार के भी दो भवन हैं। एक महाराष्ट्र भवन और दूसरा नव महाराष्ट्र सदन। इन भवनों में आम तौर पर सम्बंधित राज्यों के अधिकारी, विधायक या सांसद जब दिल्ली में सरकारी/ग़ैर सरकारी काम के लिये आते हैं, तो ठहरते हैं। इन भवनों में मुहैया करवाई जाने वाली सुविधाओं और सेवाओं के लेकर आम तौर पर विवाद उठता रहता है। ठहरने वाले अतिथियों से किराया भी प्राय बहुत कम लिया जाता है, क्योंकि अतिथि अक्सर सरकारी काम से दिल्ली आते हैं। वैसे भी सांसदों और विधायकों से ज़्यादा पासा मांगना तो मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने के बराबर है। क़िस्सा कोताह यह कि नव महाराष्ट्र सदन में ठहरे अतिथियों को वहाँ की हर चीज़ से शिकायत थी। पंखे धीरे चलते हैं से लेकर रोटी अच्छी नहीं बनती। इसलिये कुछ अतिथियों ने जिसमें सांसद भी थे सदन में बाक़ायदा एक प्रेस कान्फ्रेंस की और सदन की रसोई में रोटी किस प्रकार की बनती है, इसको दिखाने के लिये वे पत्रकारों को सदन की रसोई में ले गये। अतिथियों में से एक ने रसोई में काम कर रहे एक कर्मचारी को वह रोटी खाने के लिये कहा जो वह सदन में आये अतिथियों को परोसता है । कर्मचारी ने आनाकानी की तो उसने ज़बरदस्ती रोटी उसके मुंह में ठूंस दी। पंचतंत्र की इस कथा का पहला अध्याय यहाँ समाप्त हो जाता है।

एक अंग्रेज़ी अख़बार ने खोजबीन की तो पता चला कि जिस कर्मचारी के मुंह में रोटी ठूंसी गई थी वह मुसलमान था। जिस सांसद ने रोटी ठूंसी थी वह हिन्दू था। नई कहानी की पटकथा के दो पात्र तो बिलकुल सटीक फ़िट बैठते थे। तेल और रुई का बन्दोबस्त इस खोज से ही हो गया था। लेकिन अभी दियासलाई की खोज बाक़ी थी। लेकिन जब कोई पटकथा को पूरी करने के लिये आमादा ही हो तो वह दियासलाई भी ढूंढ़ ही लेगा। लेकिन इस पटकथा में उस अख़बार को दियासलाई खोजने के लिये बहुत दूर जाना नहीं पड़ा। बिल्ली के भागों छींका टूटा। यह तो रमज़ान का महीना चल रहा था। इस महीने में बहुत से मुसलमान व्रत रखते हैं जिसे फ़ारसी भाषा में रोज़ा कहते हैं। इसका अर्थ हुआ कि जिस दिन रोटी ज़बरदस्ती मुंह में ठूंसी गई थी, उस दिन वह मुसलमान कर्मचारी व्रत रखे हुये था। अब कुल मिला कर डोक्यूमेंटरी बनी कि एक हिन्दू सांसद ने एक मुसलमान के मुंह में रमज़ान के दिनों में ज़बरदस्ती रोटी का टुकड़ा ठूंसकर इस्लाम का अपमान किया है। यानि जो कुल मिला कर जो साधारण बदसलूकी का मामला था वह हिन्दुओं द्वारा इस्लाम के अपमान में बदल गया। पंचतंत्र की इस कथा का यह दूसरा अध्याय भी यहाँ पर पूरा हो गया।

अख़बार में पटकथा छपी और वह भी एक अंग्रेज़ी के अख़बार में तो उसका संसद में पढ़ा जाना निश्चित ही था । लेकिन इस पटकथा को सुन कर सचमुच सभी की सोई हुई नक़ली पंथनिरपेक्षता जाग उठी। कहा भी गया है एक पंथनिरपेक्षता जो भारतीय संस्कृति का प्राण है और दूसरी नक़ली पंथ निरपेक्षता जो राजनैतिक पार्टियों की जान है। इतना हल्ला मचा कि मछली बाज़ार का दृश्य उपस्थित हो गया। सभी लोग ख़तरे में पड़े इस्लाम को बचाने के लिये कटिबद्ध हो गये। शिवसेना का वह सदस्य जिसने रसोई के कर्मचारी के मुंह में रोटी का टुकड़ा ठूंसा था, उसने मुआफ़ी मांग ली। उसने कहा मुझे क्या पता कि वह कर्मचारी मुसलमान था ? बात उस सांसद ने ठीक ही कहीं थी। किसी के मुंह पर तो लिखा नहीं होता कि वह मुसलमान है या अहमदिया ? यदि लिखा भी हो तो क्या किसी को सपना आयेगा कि आजकल अरब के पंचांग में रमज़ान का महीना चल रहा है ? लेकिन सांसद कहाँ मानने वाले थे। उनका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था। वे इस्लाम को ख़तरे में पड़ता नहीं देख सकते थे। यहां आकर पंचतंत्र का तीसरा अध्याय समाप्त हुआ। अब चौथा अध्याय। जिस अंग्रेज़ी अख़बार ने यह पटकथा प्रचारित प्रसारित की थी उसने बीच बाज़ार में अपनी बाक़ायदा पीठ थपथपाई। देखा मेरी पटकथा कितनी हिट हो रही है ? यदि इस पटकथा पर कोई छोटा मोटा दंगा भी हो जाता तो अख़बार अपनी ख़बर को साल की सर्वश्रेष्ठ ख़बर घोषित कर देता।

यह कथा सुनाने के बाद आचार्य विश्वनाथ ने उस राजा के मूर्ख पुत्रों से पूछा- एक साधारण बदसलूकी के मामले को देश के उन अख़बारों ने जो निष्पक्ष पत्रकारिता का ढोंग करती नहीं थकतीं और उन विद्वानों एवं जन जन की इच्छाओं को पहचान लेने का दावा करने वाले प्रतिनिधियों ने मज़हबी रंग क्यों दिया ? राजा के वे मूर्ख पुत्र भी अब तक चतुर सुजान बन चुके थे। उन्होंने उत्तर दिया कि वे सभी लोग या तो आम जन चेतना से कट चुके थे या फिर वे शुद्ध रूप से वोटों के लालच में बदसलूकी के साधारण मामले को हिन्दू मुसलमान का विवाद बना कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे थे।

इसके बाद इस कथा का पांचवा और अंतिम अध्याय शुरू हुआ। पता चला कि उधर श्रीनगर में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री इस घटना से अत्यन्त व्यथित हो गये। वैसे वे यदा कदा व्यथित होते रहते हैं। लेकिन जब वे व्यथित होते हैं तो ट्वीट यानि चीं-चीं करने लगते हैं। इस बार भी उग्र हो गये। उन्होंने कहा यदि कोई शाकाहारी के मुंह में ज़बरदस्ती मांस ठूंस दे तो लोगों को कैसा लगेगा ? यदि उन्हें इस घटना का उत्तर ही देना था तो वे कह सकते थे कि यदि कोई मुसलमान उस हिन्दू के मुंह में जिसने व्रत रखा हुआ हो तो आपको कैसा लगेगा ? लेकिन रोटी इत्यादि उमर अब्दुल्ला की नज़र में तुच्छ चीज़ है। जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री बात करेगा तो मांस तक तो जायेगा ही। लेकिन शायद उनका भाव यह था कि यदि किसी शाकाहारी हिन्दू के मुंह में कोईँ मुसलमान मांस डाल दे तो आपको कैसा लगेगा ? वैसे तो देश को उमर अब्दुल्ला का आभारी होना चाहिये कि उन्होंने मांस का ज़िक्र करते हुये यह नहीं बताया कि किस पशु का मांस मुंह में डाल दिया जाये ? यदि वे यह भी कर देते तब भी उनका कोई क्या बिगाड़ सकता था?

अब एक ही ख़तरा अभी भी बना हुआ है। कहीं अंग्रेज़ी अख़बारों की शैली को देखते हुये कल कोई उर्दू का अख़बार यह ललकार न लगा दे कि क्या मुसलमान मर चुके हैं कि एक दीनी मुसलमान का रमज़ान का रोज़ा एक हिन्दू द्वारा ज़बरदस्ती खुलवाने के बाद भी वे चुपचाप बैठे हुये हैं ? इससे पटकथा तो पूरी हो जायेगी लेकिन दो समुदायों में खाई और गहरी हो जायेगी। लेकिन मुझे पूरी आशा है कि यदि कोई उर्दू अख़बार ललकार छाप भी दे तो सामान्य मुसलमान उमर अब्दुल्ला की तरह उत्तेजित नहीं होगा क्योंकि अब तक वे इतना तो समझ ही गये हैं कि कौन दरारों को चौड़ा कर उन्हें अपने राजनैतिक हितों के लिये केवल और केवल इस्तेमाल कर रहा है। यहाँ तक नव महाराष्ट्र सदन के एक रसोइये के साथ बदसलूकी का सवाल है उसकी सभी निन्दा करते हैं लेकिन किसी के खेत से गोभी का फूल चुरा लेने की सज़ा मौत तो नहीं हो सकती ? ये नक़ली सेक्युलर यही माँग रहे हैं ।

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