धर्म संसद और हिन्दू नारी या कौन सुनेगा औरत का दर्द

रेणु शर्मा
रेणु शर्मा

हाल ही में छत्तीसगढ के कवर्धा में सम्पन्न दो दिवसीय धर्मसंसद में धर्मगुरू षंकराचार्य ने मंदिरो से सांई की मूर्ति पर हटाने के साथ-साथ हमारे हिन्दू विवाह नियम 1955 में भी बदलाव लाने का प्रस्ताव रखा गया। दूसरी तरफ हमारा सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के. एस. राधाकृष्णण की अध्यक्षता वाली बैच ने एक निर्णय सुनाया कि किसी षादीषुदा पुरूष का किसी अन्य महिला से संबध रखना गलत नहीं हैं और धर्म संसद में धर्मगुरू षंकराचार्य ने अपने बयान में कहंा की यदि कोई हिन्दू पुरूष निसंन्तान होता है एंव पत्नी की मौजूदगी में दूसरी महिला से विवाह करता हैं तो उस विवाह को कानूनन अधिकार बनाया जाना चाहिये । षंकराचार्यजी के इस बयान को लेकर विभिन्न धर्म सम्प्रदाय और विभिन्न महिला संगठनों में अलग-अलग राय दी जा रही हैं। कई नारी संगठन कह रहे है कि किसी महिला के संतान नही होने के कारण उसके पति का दूसरी महिला से षादी करना न्यायोचित नही हैं क्योकि इस प्रकार के कानून से महिला का अस्तित्व सिर्फ संतान उत्पन्न करने तक ही सिमट जायेगा , उसे बच्चा पैदा करने की मषीन बना दिया जायेगा और बच्चा नही होने पर उसका पति दूसरी षादी कर उसकी सौतन ला सकेगा। इस प्रकार एक ही घर में एक आदमी दो पत्नियो के साथ रहेगा। जिस प्रकार एक आदमी को उपनी पत्नी के संतान पैदा करने की क्षमता नही होने पर दूसरी षादी करने का अधिकार दिये जाने की बात की जा रही है , क्या उसी प्रकार एक महिला को भी उसके पति के संतान पैदा करने की क्षमता नही होने पर दूसरी षादी करने का कानूनी अधिकार देना चाहिये क्या घ् क्या संतान प्राप्ति का एकमात्र समाधान दूसरी षादी ही हैं घ् संतान नही होने पर बच्चा किसी अनाथ आश्रम या किसी संस्था से गोद भी लिया जा सकता हैं ।
हमारे धर्म-षास्त्रों में कहंा गया हैं कि “ यत्र नारी पूज्यते तत्र रमयते देवता “ अर्थात् जहंा नारी की पूजा की जाती हैं वहंा देवता निवास करते हैं। परिवार एक संस्था हैं जिसमें विवाह द्वारा किसी पुरूष औंर स्त्री को दाम्पत्य सूत्र में बाधा जाता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहंा हैं कि संतान उत्पत्ति जैसे पवित्र काम में भी “मैं“ हूॅं । क्योंकि उन्होने माना हैं कि विवाह का उद्देष्य भोग भोगना ही नहीं हैं बल्कि विवाह का मुख्य काम संतानोत्पत्ति करना हैं। सृष्टि के आदिकाल में जब ब्रम्हा जी ने सृष्टि की रचना की तब उन्होने मानसिक सृष्टि उत्पन्न की और अपने मानस पुत्रों से यह अपेक्षा की कि आप भी सृष्टि उत्पन्न करों लेकिन ब्रम्हाजी की प्रथम संतान सनतकुमारों ने संतान उत्पत्ति की बजाय ईष्वर भक्ति को प्राथमिकता दी । संतान उत्पत्ति की बात को ध्यान में रखते हुए ब्रम्हाजी ने मनु और षतरूपा को उत्पन्न किया जिससे कि मैथुनी सृष्टि उत्पन्न हो सके। इन सभी से यह सिद्व होता है कि विवाह का उद्देष्य जीवन जीने के साथ ही संतति चलाना भी हैं ।
हमारे षास्त्रों में कही भी महिला और पुरूष में भेदभाव नही किया फिर हमारे धर्मगुरू ऐसा क्यों कर रहे हैं । क्या संतान नही होने के लिये एक महिला को ही जिम्मेदार ठहराना उचित है घ् कई नारी संगठन यह कह रहे हैं कि क्या नारी संतान पैदा करने की मषीन नहीं हैं घ् लेकिन यह भी सच हैं कि नारी के बिना संतान पैदा नहीं हो सकती और नारी भी संतान होने के बाद ही पूर्ण होती हैं । संतानोत्पत्ति में महिला और पुरूष दोनो का समान योगदान रहता हैं दोनो में से कोई भी अकेला बच्चा पैदा नही कर सकता लेकिन हमे यह स्वीकारना होगा कि हमारा समाज पुरूष प्रधान समाज हैं जिसमें षादी के पष्चात् एक लडकी को अपने पिता का घर छोडकर अपने पति के घर जाना होता हैं वही उसका घर होता हैं पुरूष-प्रधान समाज होते हूए भी हमारा समाज यह मानता हैं कि नारी और पुरूष परिवार रूपी गाडी के दो बैंल होते हैंजो इसे सुचारू रूप से खीचते हैं , नारी घर की जिम्मेदारी संभालती हैं वही पुरूष घर से बाहर की जिम्मेदारी संभालता हैं कुछ स्थानों पर इसके अपवाद भी देखे जा सकते हैं। संतान प्राप्ति की अभिलाषा महिला और पुरूष दोनो में ही होती हैं लेकिन सह अभिलाषा पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक होती हैं। प्रकृति ने एक औरत को विषिष्ठ षक्ति “मातृ-षक्ति“ प्रदान की है। मातृत्व , वात्सल्य , अपनत्व की भावना एक महिला में ही होती हैं संतान उत्पन्न होने पर ही वह सम्पूर्ण नारी होती हैं , वही एक बच्चे को सम्भाल सकती हैं जो एक पिता नही कर सकता क्योकि उसमें मातृ-षक्ति होती है।
सामान्यतया हमारे समाज में देखा जा रहा हैं कि जिस दम्पत्ति के संतान नही होती थी वहंा पति-पत्नी आपसी सहमति से एक-दूसरे की जॅंाच करवाते हैं और यदि नारी में कमी होती हैं तो पत्नी की इच्छा से वह दूसरी षादी कर लेता हैंे जिससे परिवार का विघटन नही हो पाता । लेकिन यदी किसी पुरूष में यही कमी होती है तो उसकी पत्नी दूसरी षादी नही करती , क्योकि हमारे यहंा अभी भी ऐसे संस्कार हैं कि पति के जिन्दा रहते कोई भी महिला दूसरी षादी करना तो दूर दूसरी षादी करने की कल्पना भी नही कर सकती एंव ऐसे और भी बहुत सारे स्थान है जहंा पति-पत्नी बच्चा नही होने पर दूसरी षादी नही करते हैं और बिना संतान के ही अपनी जिन्दगी बिताते हैं या कुछ दम्पत्ति अपने ही रक्त संबधियों का बच्चा गोद लेते हैं या किसी अनाथ आश्रम या किसी संस्था से बच्चा गोद लेते हैं।
पति-पत्नी द्वारा आपसी सहमति से पति की दूसरी षादी कराना आज भी कायम हैं जिसमें कोई विरोध नही हैं लेकिन धर्मगुरू षंकराचार्य किसी हिन्दू महिला के संतान नही होने की स्थिति में उसके पति की दूसरी षादी करने को कानूनी अधिकार बनवाने में सहयोग करते है तो इससे अवांच्छित तत्वों को बल मिलेगा और संतान ना होने के बहाने से लोग दूसरी षादी करेगे , जिससे पहली पत्नी को प्रताडना सहन करनी पड सकती हैं और परिवार टूटने की भी संभावना हो सकती हैं अतः धर्मगुरू षंकराचार्यजी कोे इस प्रकार के विवादास्पद बयान से बचना था एंव उनके इस प्रकार के बयान को किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
इसके साथ ही भिन्न-भिन्न समाचार चैनलों पर नारी सम्मान को लेकर महिला संगठनों , साधु-महात्माओं द्वारा की जा रही बेतुकी बहस को भी उचित नहीं ठहराया जा सकता हैं । हमारे वर्तमान समाज में जो व्यवस्था हैं वह वर्तमान परिस्तिथियों के अनुसार सही प्रतीत होती है , इसका समाज में कोई विरोध भी नही हैं अतः उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव की आवष्यक्ता नहीं हैं ।
रेणु शर्मा
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