पवार के झटके से लगे पॉवर ब्रेक से शिवसेना की गाड़ी थम गई

sharad pawarशरद गोविंदराव पवार के झटके से लगे पॉवर ब्रेक से शिवसेना की गाड़ी थम गई। वरना कोई ताकत नहीं था जो दस साल से पॉवर से दूर शिवसेना को सहजता से सत्तासीन पार्टनर होने से रोक पाता। मैनडेट के मुताबिक सरकार बनाने के लिए बीजेपी पास शिवसेना के सिवा कोई विकल्प नहीं था। शरद पवार ने खुद को विकल्प के तौर पर पेश कर खलबली मचा दी। राजनीति के श्लाघा पुरूष शरद पवार को जो जानते हैं, वो मानते हैं कि पवार कभी हारते नहीं, हर चाल में वह या तो जीतते हैं या फिर सिखते हैं। यही फितरत उनको औरों से अलग करता है। इसलिए उनके फैसले में निर्भीकता झलकती हैं। फैसला लेने में देर नहीं करते। चौहत्तर साल के शरद पवार ने कमल के करीब जाने का नया कमाल कर दिया।

अंतिम नतीजा आने से ऐन पहले भांप लिया कि बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी की दिशा में बढ रही है। मौके तो ताड़ा और बीजेपी के सामने सदाशयता के साथ प्रकट हो गए। महाराष्ट्र में स्थायी सरकार बनाने के लिए एनसीपी कार्यकारिणी से बीजेपी को बिना शर्त समर्थन देने का अधिकृत फैसला कर दिया। शिवसेना की छाती पर मूंग दललते हुए सिपहसलार प्रफुल्ल पटेल के हवाले से मराठा दिग्गज पवार ने तुरंत फुरंत में फैसले का ऐलान करा दिया। अब बीजेपी के दोनों हाथ लड़्डू वाली स्थिति बन आई है।

देर सबेर राजनीति का ऊंट चाहे जिस करवट बैठे फिलहाल इतना तय है कि पवार के झटके से मातोश्री की दिवाली में इसबार खुशी की मिठाई नहीं बंटेगी। सामना की पत्रकारिता के सहारे विष उगल रही शिवसेना को सताने का रास्ता निकल आया है। पॉवर के करीब पहुंची बीजेपी ने फैसले के बाद से अबतक शिवसेना से याचना नहीं की है। सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी सरकार बनाने में कोई जल्दीबाजी में नहीं दिख रही। दिखे भी क्यों ? सहुलियत के लिए दिल्ली की तरह ही महाराष्ट्र को राष्ट्रपति शासन से संचालित किया जा सकता है। इसका इंतजाम चुनाव के दौरान ही अल्पमत सरकार के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण के इस्तीफे को स्वीकार कर  राज्य को राष्ट्रपति शासन के जद में लिया जा चुका है। राष्ट्रपति शासन लगाने में भी शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का फैसला केंद्र सरकार के लिए कारगर रहा है।

यह मजबूत वजह है कि शिवसेना की तरह गरम चाय पीकर मुंह जलाने के बजाय बीजेपी चाय फूंक फूंककर ठंडी करने में लगी है। मोदी सरकार में आपदा प्रबंधन की जिम्मेदारी सम्हालने वाले राजनाथ सिंह को महाराष्ट्र का पर्यवेक्षक बनाया गया है। सहुलियत का ख्याल करते हुए उन्होंने ऐलान किया है कि दिवाली मनाने के बाद ही महाराष्ट्र जाएंगे। इरादा साफ है कि विधानसभा में सवा सौ के करीब पहुंची बीजेपी को इतिहास रचने का इल्म है। समर्थन के लिए वह संख्या में खुद के आधी विधायकों वाली पार्टी शिवसेना के आगे याचक बनकर चिरौरी नहीं करने जा रही है। इससे बेसब्र शिवसेना की परेशानी बढती जा रही है।

वक्त ने फिर से चौहत्तर साल के पवार को केंद्र में ला खड़ा किया है। मराठा  की राजनीति ठहर गई है। क्षत्रप शरद पवार को समझे बिना आगे नहीं बढ सकती।  फिर साबित हुआ है कि पवार  धुंअधर ही नहीं, राजनीति के निर्विवाद खिलंदड़ हैं। उनको पाठशाला मानकर पीएचडी की जा सकती है। आज की तारीख में राजनीति के भीष्म पितामह के पैर के पास खड़े होकर “चित भी मेरी पट भी मेरी, अंटा तेरे बाप का” के खेल को निराले अंदाज में सीखा जा सकता है। बात बेबात नेताओं को गाली देकर प्यास बुझाने वाले लोग चाहे तो पवार की पार्टी को नेचुरल करप्ट पार्टी (एनसीपी) कहते रहे। मगर सच्चाई है कि सधे चाल के माहिर शरद पवार ने  पासा पलटकर भौंचक करते हैं। मामला उनके गृह पद महाराष्ट्र का है इसलिए उम्मीद के मुताबिक बैटिंग कर रहे हैं। महााष्ट्र में माइनस पवार कुछ नहीं, यह फिर से साबित होता नजर आ रहा है।

उन्होंने एक झटके में आसानी से सरकार बनने की नौबत ही खत्म कर दी। बेमेल समझे जाने वाले समझौते का प्रस्ताव पेश कर भावी सरकार बनने की प्रक्रिया में खुद को शामिल कर लिया। इससे उनके अभिन्न मित्र बालासाहेब ठाकरे के बेटे के हाथ आई रोटी बंदरबांट की शिकार हो गई। एनसीपी के बीजेपी से गठजोड़ के लिए अब इतिहास की दुहाई दी जा रही  है । बताया जा रहा है कि आजादी के बाद से महाराष्ट्र में बिना कांग्रेस को शामिल किए कोई सरकार नहीं बनी है। इसबार भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी इतिहास का मान सम्मान रखने के लिए सामने आ रही है।

महज दसवीं पास पवार की राजनीतिक कलाबाजी के सब कायल हैं। शरद पवार उनमें से हैं जिन्होंने उगते सूरज को प्रणाम करने की तमीज का सर्वदा निर्वाह किया। जनता पार्टी के दबदबा के दौर  1978 में कांग्रेस को विघटित महाराष्ट्र में सरकार बना ली औऱ सबसे कम उम्र में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए। इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनते ही पवार की सरकार भंग करने का राजकर्म कर दिया। सत्ता से दूरी पवार को कभी पसंद  नहीं रही। इंदिरा के निधन के बाद राजीव गांधी के खासे प्रिय बन गए। इतने प्रिय कि अपनी पार्टी का फिर से कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया औऱ दोबारा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन बैठे। राजीव गांधी के निधन के बाद राजीव गांधी ट्रस्ट के लिए नई दिल्ली के वीआईपी इलाके राजेन्द्र मार्ग स्थित अपनी सरकारी कोठी तक कुर्बान कर दी। प्रधानमंत्री नरसिंह राव के घटते ओज को आंकते हुए उनके खिलाफ गए। फिर अपनी जगह सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनते देख उल्टे सिर खड़े हो गए। विदेशी मूल के मसले को राजनीतिक हथियार बना लिया औऱ  कांग्रेस से अलग होकार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन कर लिया। विरोध के बाद भी प्रधानमंत्री बनने की नौबत नहीं आई, तो उसी सोनिया गांधी के कांग्रेस से गठजो़ड़ कर मनमोहन सिंह की सरकार में शामिल हो गए। जबतक केंद्र् में मंत्री रहे को महाराष्ट्र में पार्टी को कांग्रेस से तालमेलकर चलने के लिए मजबूर किए रखा। मनमोहन सरकार के सत्तच्युत होने की आंशका को भांप कर चुनावी राजनीति से सन्यांस लेने का फैसला कर लिया।

राजनीतिक कौशल के धनी पवार का कैंसर जैसी बिमारी तक ने बाल बांका नहीं किया। आपरेशन के बाद थोड़ा पक्षाघात के शिकार हुए पर बुद्धमत्ता के सहारे राजनीति की धुरी बने रहे। केंद्र में मंत्री के साथ क्रिकेट और सहकारिता की राजनीति में देश के सबसे दमदार राजनेता बने रहे। इतिहास है कि अपनी पार्टी का कांग्रेस मे विलय करते वक्त शरद पवार ने बताया था कि वह शिवसेना की बढती ताकत को ठिकाना लगाने औऱ प्रदेश में कांग्रेस संस्कृति को बचाए रखने के लिए कांग्रेस पार्टी में जा रहे हैं। एक बार फिर से उनका फैसला शिवसेना को सत्ता से दूर रखने के लिए है। यह तब जब वह शिवसेना के मराठा वोट को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उद्धव ठाकरे की सरेआम तारीफ करते घुम रहे थे। बेटी सुप्रिया सूले को राजनीति में लाने का श्रेय बालासाहेब ठाकरे को देते हुए खुद को शिवसेना प्रमुख का ऋणी बताते रहे थे। आज उनके परिवार के करीब आती सत्ता को दूर हटा पवार अब शायद दुनिया से विदा हो चुके मित्र से प्रतिस्पर्धी धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। इसलिए तो कहा जाता है, राजनीति में सब जायज है।
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