मोदी के गले की हड्डी ‘कट्टर हिंदुत्व’

Narendra modi 04-प्रमोद जोशी- केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद देश में कुछ दिनों तक हिन्दुत्व को लेकर शांति रही. लोकसभा चुनाव के आख़िरी दौर में कुछ मसले ज़रूर उठे थे, लेकिन मोदी ने उन्हें तूल नहीं दिया. अब ‘कट्टर हिन्दुत्व’ नरेंद्र मोदी सरकार के गले की फाँस बनता दिख रहा है.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘कट्टरपंथी’ माना जाता है, पर चुनाव अभियान में उन्होंने राम मंदिर की बात नहीं की, बल्कि गिरिराज सिंह और प्रवीण तोगड़िया जैसे नेताओं को कड़वे बयानों से बचने की सलाह दी.
उनके रुख़ के विपरीत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सहयोगी संगठनों से जुड़े कुछ नेता विवादित मुद्दों को हवा दे रहे हैं. जैसे, विहिप नेता अशोक सिंघल ने दावा किया कि दिल्ली में 800 साल बाद ‘गौरवशाली हिंदू’ शासन करने आए हैं.
साध्वी निरंजन ज्योति और योगी आदित्यनाथ के तीखे तेवरों के बीच साक्षी महाराज का नाथूराम गोडसे के महिमा-मंडन का बयान आया. बयान बाद में उसे वापस ले लिया गया, पर तीर तो चल चुका था.
इधर, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक ने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर जल्द से जल्द बनना चाहिए. इसी तरह ‘धर्म जागरण’ और ‘घर वापसी’ जैसी बातें पार्टी की नई राजनीति से मेल नहीं खातीं.
मंदिर से किनारा क्यों?
क्या वजह थी कि राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी ने मंदिर से किनारा किया. वर्ष 1989 से 2009 तक बीस साल तक पार्टी अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का वादा करती रही. पर मोदी के नेतृत्व में उतरी भाजपा ने इस वादे को नरम करके पेश किया.
चुनाव घोषणापत्र के बयालीस में से इकतालीसवें पेज पर दो लाइनों में इसे निपटा दिया गया. मंदिर निर्माण की संभावनाएं तलाशने का वादा. यह भी कि यह तलाश संविधानिक दायरे में होगी.
कभी लगता है कि मोदी-सरकार हिंदुत्व को ढो रही है. दूसरी ओर कोई न कोई ज़हरीले बयान देता है, जिससे बखेड़ा हो. यह जानबूझकर भी हो सकता है और अनायास भी.
वस्तुतः पार्टी अपने अंतर्विरोधों से जूझ रही है. अटल बिहारी वाजपेयी की सफलता के बाद पार्टी को यह भी समझ में आया कि उसे अपना जनाधार बढ़ाना होगा.
इसके लिए उसे आरएसएस की छाया से अलग करना होगा. पर क्या यह कभी संभव है?
जब 26 मई को नरेंद्र मोदी की सरकार बनी थी तब उसे लेकर खड़े हुए तमाम संदेहों में एक यह भी था कि क्या यह सरकार संघ के सीधे हस्तक्षेप से बच पाएगी?
यह पार्टी संघ परिवार का हिस्सा है. फिर भी उसके भीतर एक क्षीण रेखा गैर-संघी है. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने हाथ बचाकर काम किया था.
भले ही दिखावा रहा हो, वर्ष 1992 में वाजपेयी ने बाबरी विध्वंस पर खेद व्यक्त किया था.
बेशक यह संघ का संगठन है, पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का पहला अध्यक्षीय भाषण गुरु गोलवलकर की स्थापनाओं के मुक़ाबले उदार और असाम्प्रदायिक था.
दूसरी ओर ज़हरीले बयान देने वालों के ख़िलाफ़ पार्टी ने सख़्ती के साथ कभी कुछ नहीं कहा.
मोदी सरकार ने कांग्रेस के तीन महत्वपूर्ण नेताओं में से दो को अंगीकार किया है. महात्मा गांधी और सरदार पटेल.
उन्होंने जय प्रकाश नारायण को भी पसंदीदा नेताओं में रखा है, पर वे नेहरू के प्रति उपेक्षा-भाव व्यक्त करने से नहीं चूकते.
इसका कारण केवल यही नहीं है कि गांधी और पटेल गुजरात से ताल्लुक रखते हैं. यह भी है कि भारत में धर्म-निरपेक्षता की स्थापना और ‘साम्प्रदायिकता-विरोधी’ राजनीति में सबसे आगे नेहरू थे.
हिन्दू या हिन्दुत्व को लेकर भाजपा और कांग्रेस दोनों अंतर्विरोधों का शिकार रहे हैं. गांधी की तारीफ़ करने के बाद गांधी के हत्यारे की तारीफ़ कैसे की जा सकती है?
गांधी की हत्या के बाद सरदार पटेल के समय में ही आरएसएस पर पाबंदी लगी थी, फिर भी भाजपा पटेल की मुरीद है.
हालाँकि, लखनऊ में 6 जनवरी 1948 के भाषण में पटेल ने सार्वजनिक तौर पर इस बात का संकेत दिया था कि वो हिंदी महासभा और आरएसएस को कांग्रेस का हिस्सा बनाने के पक्ष में थे.
व्यक्तिगत रूप से भी मोदी पटेल से प्रभावित हैं. सरदार पटेल क़ानून के शासन और सभी समुदायों के साथ समान व्यवहार की नीति पर चलते थे.
नरेंद्र मोदी ने भी अपनी छवि ऐसी ही बनाने कोशिश की है. इस कोशिश में ‘संघ परिवार’ से उन्होंने टकराव भी मोल लिया.
नवम्बर 2008 में उनकी सरकार ने गुजरात में 90 से ज़्यादा मंदिरों को गिराया तो विश्व हिन्दू परिषद ने उनके ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ दिया था.
मोदी को बाबर और औरंगज़ेब तक कहा गया. अंततः मोदी का वह अभियान बंद हुआ, पर ऐसा लगा कि वे अपनी कट्टर छवि से हटना चाहते हैं.
भाजपा की इच्छा राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की जगह लेने की है, जबकि कांग्रेस ने हिन्दू बहुसंख्यकों को साथ लेने की कई बार कोशिशें कीं.
सन 1971 में बांग्लादेश के जन्म, सन 1979 में मीनाक्षीपुरम-धर्मांतरण और एक हद तक ऑपरेशन ब्लूस्टार में इंदिरा गांधी की राजनीति से भाजपा-नेता असहमत नहीं थे.
सन 1986 में अयोध्या में ताला खुलवाने और 1989 में शिलान्यास कराने में कांग्रेस सरकार की भूमिका थी. सन 1992 में बाबरी मस्जिद जब गिराई गई तब केंद्र में कांग्रेस-सरकार ही थी.
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