क्या ताजमहल सचमुच एक मंदिर भवन है?

taj-mahal-राकेश कुमार आर्य- उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष लक्ष्मी शंकर वाजपेयी ने ताजमहल को एक मंदिर भवन कहकर एक बहस को जन्म दिया है। इस पर कई विद्वानों ने इतिहास और ऐतिहासिक तथ्यों की  पुनर्समीक्षा करनी आरंभ कर दी है। इस विषय पर पूर्व में कई विद्वानों ने बहुत अच्छा प्रकाश डाला है और हमारे सामने ऐसे बहुत से तथ्य लाकर  प्रस्तुत कर दिये हैं, जिन्हें देखकर हर व्यक्ति सोचने पर विवश हो जाता है कि अंतत: ताजमहल के विषय में अंतिम सत्य क्या है? क्या यह सचमुच शाहजहां द्वारा निर्मित है या एक ‘हिन्दू मंदिर भवन’ है? पी.एन. ओक महोदय ने इस विषय पर पूरा ग्रंथ ही लिख दिया है। उनके शोध कार्य को आज आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। यहां हम संक्षेप में कुछ ऐसे तथ्यों/साक्ष्यों पर प्रकाश डालेंगे, जो ऐसे विद्वानों ने समय-समय पर उठाकर हमें ताजमहल के विषय में सोचने के लिए विवश किया है।
सर्वप्रथम ‘शाहजहांनामा’ (शाहजहां की आत्मकथा) इसका एक प्रमाण देता है। इस आत्मकथा के पृष्ठ 403 पर लिखा है कि (यह मंदिर भवन) महानगर के दक्षिण में भव्य, सुंदर हरित उद्यान से घिरा हुआ है। जिसका केन्द्रीय भवन जो राजा मानसिंह के प्रासाद (इसका अभिप्राय है कि शाहजहां से भी पूर्व से यह राजभवन था, जिसका वह भाग जहां मुमताज की कब्र है, केन्द्रीय भाग कहलाता था) के नाम से जाना जाता था, अब राजा राजा जयसिंह जो राजा मानसिंह का पौत्र था, के अधिकार में था। इसे बेगम को दफनाने केे लिए जो स्वर्ग जा चुकी थी, चुना गया। यद्यपि राजा जयसिंह उसे अपने पूर्वजों का उत्तराधिकार और संपदा के रूप में मूल्यवान समझता था, तो भी वह बादशाह शाहजहां के लिए नि:शुल्क देने के लिए तत्पर था।…उस भव्य प्रासाद (भव्य प्रासाद कहने का अभिप्राय है कि जब शाहजहां ने इसे लिया तो वह खाली भूमि नही थी अपितु वहां एक भव्य प्रासाद=आली मंजिल बनी थी) के बदले में जयसिंह को एक साधारण टुकड़ा दिया गया। राजधानी के अधिकारियों के द्वारा शाही फरमान के अनुसार गगनचुम्बी गुम्बद के नीचे उस पुण्यात्मा रानी का शरीर संसार की आंखों से ओझल हो गया और यह ‘इमारते-आलीशां’ अपनी बनावट में इतना ऊंंचा है……..।”
महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष के अनुसार-‘आगरा के दक्षिण में राजा जयसिंह भी कुछ भू संपत्ति थी। बादशाह ने इसे उससे खरीदा।’ श्री गुलाबराव जगदीश ने 27 मई 1973 के लोकप्रिय मराठी दैनिक ‘लोकसत्ता’ (मुंबई से प्रकाशित) में छपे अपने एक लेख में बताया है कि ताजमहल का निर्माण केवल एक हिन्दू ही कर सकता है। वह कहते हैं कि 1939 ई. में एक ब्रिटिश इंजीनियर ने ताजमहल में एकदरार देखी। जिसे भरने का भरसक प्रयास किया गया, परंतु वह भरी नही जा सकी। समय के साथ वह दरार और चौड़ी होती जाती थी। ब्रिटिश अधिकारी चिंतित थे कि इसे कैसे भरा जाए? इसे भरने के लिए इंजीनियरों की एक समिति बनायी गयी, परंतु सफल नही सकी।
तब एक देहाती सा हिंदू उन  इंजीनियरों के पास आया और बोला कि वह इस दरार को भर सकता है इस भारतीय का नाम पूरनचंद था। उसने कहा कि वह इस दरार को भरने की तकनीक जानता है। उसके कहने पर अनमने मन से ब्रिटिश इंजीनियर ने उसे इस दरार को भरने की अनुमति दे दी, उस देहाती भारतीय ने एक विशेष प्रकार का गारा चूना बनाया और उस दरार में भर दिया। दरार पूरी तरह सफलतापूर्वक भर चुकी थी।
1942 ई. में डा. भीमराव अंबेडकर के विशेष प्रयासों से लार्ड लिन लिथगो ने उस भारतीय देहाती व्यक्ति पूरनचंद को ‘राय साहब’ की उपाधि से सम्मानित किया था। इस घटना का अर्थ है कि आजादी मिलने के समय तक भी ताजमहल को बनाने की तकनीक जानने वाले हिन्दू जीवित थे। दूसरे यह कि इस तकनीक को वही जानेगा जो ताजमहल जैसी ‘इमारते आलीशां’ बनाना जानता हो।
बाबर जो  कि शाहजहां का प्रपितामह था, के समय में भी ताजमहल (तेजोमहालय मंदिर) था। बाबर मुमताज बेगम की मृत्यु से लगभग 104 वर्ष पूर्व भारत आया था। टैवर्नियर नामक विदेशी यात्री का साक्ष्य भी यही तथ्य प्रकट और स्थापित करता है कि मुमताज को दफनाने के लिए एक भव्य प्रासाद अधिग्रहीत किया गया था, और वह भव्य प्रासाद मुमताज को दफनाने से पूर्व भी सारे विश्व के पर्यटकों को आकर्षित करता था।
‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ की मान्यता भी ऐसी ही है कि ताजमहल भवन समूह में अतिथि कक्ष, आरक्षी निवास और अश्वशाला थे। ये सारी चीजें किसी प्रासाद में तो मिल सकती हैं, किसी कब्र से इनका क्या संबंध हो सकता है? ‘शाहजहां नामा’ का लेखक मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है किअर्जुमन्द बानो बेगम उर्फ मुमताज को राजा मानसिंह के प्रासाद में दफन किया गया था। मियां नुराल हसन सिद्दीकी की पुस्तक ‘दि सिटी ऑफ ताज’ में भी इसी मत की पुष्टि की गयी है।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के संग्रहालय में एक शिलालेख जिसे ‘बटेश्वर शिलालेख’ कहा जाता है, सुरक्षित है। यह संकेत करता है कि ताजमहल संभवत: 1155 ई. में निर्मित शिवमंदिर है। वहां लिखा है-
प्रासादो वैष्णवस्तेन निर्मितोअन्तर्वहन्हरि:।
मूघ्र्नि स्पृशति यो नित्यं पदमस्मैव मध्यमम्।। 25।।
अकार यच्च स्फटिकावदातमसाविदं मंदिरमिन्दुमौले:।
न जातु यस्मिन्निवसन्सदेव: कैलाशवासाय चकार चेत: ।। 26 ।।
पक्ष त्र्यक्ष मुखादित्य संख्ये विक्रम वत्सरे।
आश्विन शुक्ल पंचम्यां वासरे वासर्वेशित: ।। 34 ।।
इसका अर्थ है-”उस (राजा परमार्दिदेव=मानसिंह का पूर्वज ने एक प्रासाद बनवाया, जिसके भीतर विष्णु की प्रतिमा थी जिसके चरणों में वह अपना मस्तक नवाता था।)”
उसी प्रकार उसने मस्तक पर जिनके चांद सुशोभित हैं, ऐसे भगवान शिव का स्फटिक का ऐसा सुंदर मंदिर बनवाया जिसमें प्रतिष्ठित होने पर भगवान शिव का कैलाश पर जाने को भी मन नही करता था। यह शिलालेख रविवार आश्विन शुक्ला पंचमी 1212 विक्रमी सम्वत को लिखा गया।” यह उद्घरण डी.जी. काले की पुस्तक खर्जुरवाहक अर्थात वर्तमान खजुराहो तथा ऐपिग्राफिक इंडिया के भाग-1 पृष्ठ 270-274 पर भी दिया गया है।
श्री काले अपनी पुस्तक के पृष्ठ 124 पर लिखते हैं-‘उदधृत शिलालेख आगरा के बटेश्वर गांव से प्राप्त हुआ और वर्तमान में वह लखनऊ संग्रहालय में है। यह राजा परमार्दिदेव का विक्रम संवत 1212,….का है।…..यह शिलालेख एक मिट्टी के स्तूप में दबा हुआ पाया गया। बाद में इसे जनरल कनिंघम ने लखनऊ संग्रहालय में जमा करा दिया, जहां यह आज भी है। दो भव्य स्फटिक मंदिर जिन्हें परमार्दिदेव ने बनवाया एक भवन विष्णु का तथा दूसरा शिव का बाद में मुस्लिम आक्रमण के समय भ्रष्ट कर दिये गये। किसी दूरदर्शी चतुर व्यक्ति ने इन मंदिरों से संबंधित इस शिलालेख को मिट्टी के ढेर में दबा दिया। यह वर्षों तक दबा रहा, जबकि सन 1900 ई. में उत्खनन के समय जनरल कनिंघम को यह प्राप्त हुआ।”
कनिंघम ने राजा परमार्दिदेव को 1165 या 1167 का माना है। इस मंदिर की ताजमहल के साथ संगति करते हुए पी. एन. ओक महोदय का कहना है कि हमारी दृष्टि में बटेश्वर के शिलालेख में जिन दो भवनों का उल्लेख है वे अपनी स्फटिकीय भव्यता सहित अभी भी आगरा में विद्यमान हैं। इनमें से एक एतमादुददौला का मकबरा है तथा दूसरा ताजमहल है। जिसका उल्लेख राजा के प्रासाद के रूप में है, वह वर्तमान एतमादुददौला का मकबरा है। चंद्रमौलीश्वर मंदिर ताजमहल है। चंद्रमौलीश्वर मंदिर जिन कारणों से ताजमहल हो सकता है, उन पर विचार करना भी आवश्यक है। इनमें पहला कारण स्फटिक श्वेत संगमरमर का है। उसके शिखर कलश पर त्रिशूल है, जो केवल चंद्रमौलीश्वर का ही चिन्ह है। ताजमहल का केन्द्रीय कक्ष जिसमें बादशाह और उसकी बेगम की कब्रें बतायी जाती हैं, उसके चारों ओर दस चतुर्भुजी कक्ष है, जो भक्तों के परिक्रमा मार्ग का काम करते थे।
कनिंघम जैसे इतिहासकारों का मानना है कि शाहजहां से पूर्व हुमायुं के काल में भी स्मारक में चार कोनों में चार मीनार देखी गयी थीं।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि महल शब्द किसी कब्र के साथ नही लगता है। यह शब्द भी भवन का पर्यायवाची है। कब्र का नाम ‘महल’ नही हो सकता। इसके अतिरिक्त इस (ताजमहल) के निर्माण की कोई स्पष्ट तिथि किसी भी ग्रंथ से पता नही चलती। साथ ही साथ इस पर उस समय कितनी धनराशि व्यय हुई, यह भी पता नही है। परस्पर विरोधाभासी बातें इस विषय में बतायी गयी हैं। यदि यह शाहजहां द्वारा निर्मित होता तो उसके ‘शाहजहांनामा’ में इन दोनों तथ्यों की पुष्टि अवश्य होती।
किसी बड़े ग्रंथ के साक्ष्यों को एक लेख में स्पष्ट करना या समविष्ट करना कदापि संभव नही हो सकता। यह लेख हमने पी.एन. ओक महोदय की पुस्तक ‘ताजमहल मंदिर भवन’ है के आधार पर पाठकों की जानकारी के लिए लिखा है। अधिक जानकारी उसी पुस्तक से ली जा सकती है।
कुछ भी हो लक्ष्मीशंकर वाजपेयी की पार्टी की अब सरकार है, अब उन्हें ताजमहल के संबंध में व्याप्त भ्रांतियों का निवारण करना चाहिए। यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि शिया-सुन्नी का दावा ताज के संबंध में उचित है या फिर यह एकहिन्दू मंदिर भवन है?
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