मोदी लहर को किरण बेदी के सहारे की जरूरत?

kiran-bedi 450देशभर में प्रचंड मोदी लहर पर सवार हो कर पहली बार अपने दमखम पर केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई भाजपा को दिल्ली विधानसभा चुनाव से ऐन पहले अन्ना हजारे आंदोलन की एक प्रमुख स्तम्भ पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी जिस प्रकार आत्मसात करना पड़ा है, उससे यह संदेह उत्पन्न होता है कि क्या उसे देश की राजधानी में मोदी लहर का फायदा मिलने में संदेह है? किरण बेदी को जिस जोश-खरोश के साथ लाया गया है, उससे यह भी शक होता है कि भाजपा के पास खुद का कोई आकर्षक चेहरा नहीं है? भले ही किरण की एंट्री को भाजपा एक रणनीतिक सफलता माने, मगर उसका संदेश ये गया है कि भाजपा कहीं न कहीं घबराई हुई है।
असल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही देशभर में अपनी लहर चलाने में कामयाब हो गए हों, मगर दिल्ली में उन्हें साल भर पहले भी विधानसभा चुनाव में सफलता हासिल नहीं हुई थी, हालांकि उन्होंने वहां भी कई सभाएं की थीं। एक ओर जहां पूरा देश मोदी-मोदी का नाम लेते नहीं थक रहा था, वहीं दिल्ली की जनता समाजसेवी अन्ना हजारे के आंदोलन और उससे ही पैदा हुए अरविंद केजरीवाल यह संभावना तलाश रही थी कि क्या वे भ्रष्टाचार के मामले में मात्र अलग-अलग चेहरों वाली कांग्रेस व भाजपा का विकल्प बन कर देश को नई राजनीति के दर्शन करवाएंगे। हालांकि भाजपा कमजोर विपक्ष नहीं थी, मगर जिस प्रकार कांग्रेस का वोट बैंक सरक कर केजरीवाल के पास आ गया, उससे वे मात्र एक साल पहले गठित आम आदमी पार्टी को सत्तारूढ़ करवाने में कामयाब हो गए। यह देश की राजनीति में एक चौंकाने वाली घटना के रूप में दर्ज हो गया। हांलाकि कांग्रेस की बैसाखियों के सहारे चलने की बजाय केजरीवाल ने इस्तीफा देना उचित समझा, मगर उनका यही कदम उनके मैदान छोड़ कर भाग जाने के रूप में गिना जाने लगा। जाहिर तौर पर इसका असर ये पड़ा कि जिस पार्टी को देश में राजनीति के एक नए सूर्य उदय होने के रूप में देखा जा रहा था, वह अंकुरण से पहले ही निस्तेज सा हो गया। जाहिर तौर पर इसके पीछे बड़ी वजह पार्टी का सांगठनिक ढ़ांचा न होने के बाद भी मैदान को आजमाने की गलती मानी गई। बावजूद इसके केजरीवाल ने दिल्ली पर अपनी पकड़ बनाए रखी। अब जब कि एक साल बाद चुनाव होने जा रहे हैं, भाजपा विशेष रूप से सतर्क है, क्योंकि अगर इस बार अगर वह देश मे अपनी सत्ता होने के बाद भी मात खाती है तो इसे मोदी का जादू का समाप्त होने के रूप में गिना जाएगा। इसी कारण वह फूंक-फूंक कर कदम रख रही है। किरण बेदी और आम आदमी पार्टी से रूठी शाजिया इल्मी के लिए भाजपा के दरवाजे खोलने को इसी कड़ी में एक राजनीतिक चाल के रूप में देखा जा रहा है।
जहां तक किरण बेदी के केरियर का सवाल है, उनकी सियासी दौड़ खत्म हो कर मंजिल मिल गई है। हालांकि उनके आधिकारिक तौर पर भाजपा में शामिल होने पर एक बार फिर इन चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया है कि अन्ना-केजरीवाल का कथित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को संघ परिवार का समर्थन था। भाजपा में शामिल होते वक्त किरण बेदी की बातें और हाव-भाव बता रहे थे कि वे दिल्ली की मुख्यमंत्री पद की भाजपाई उम्मीदवार हैं। यद्यपि पार्टी की ओर से इस मामले आधिकारिक तौर पर कोई जवाब नहीं दिया गया, मगर भाजपा के मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार विजय गोयल कह रहे थे कि मुख्यमंत्री का फैसला भाजपा का संसदीय बोर्ड करेगा। ऐसे में अहम सवाल है क्या दिल्ली भाजपा में जूतमपैजार होने की जमीन तैयार हो रही है? या भाजपा ने पहले राउंड में ही अपनी हार मान ली है।
यूं किरणबेदी के नाम ऐसी कोई उपलब्धि तो दर्ज है नहीं कि यह माहौल बनाया जा सके कि अब दिल्ली में भाजपा की स्थिति मजबूत हो गई है। किरण बेदी का अब तक का सार्वजनिक सेवा का रिकॉर्ड एक बेहद कुंठित, महत्वाकांक्षी एवं अवसरवादी व्यक्ति के रूप में उनकी छवि को पुष्ट ही करता आया है, ध्वस्त तो रत्ती भर भी नहीं करता है। और यही वह बात है, जो अरविंद केजरीवाल के बराबर उन्हें खड़ा नहीं होने दे सकती, चाहे जितनी भी खपच्चियां लगाकर उन्हें पेश किया जाए। अलबत्ता वे एक आकर्षक चेहरा जरूर हैं। ये भी साफ हो गया है कि भाजपा दिल्ली में अपने मौजूदा नेतृत्व की क्षमता के प्रति आश्वस्त नहीं थी, ऐसे में अब यह आभास देने की चेष्टा जरूर कर पाएगी कि उसके पास एक सुपरिचित चेहरा है, मगर सवाल ये है कि क्या किला फतह करने के लिए यह काफी है?

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