आरक्षण, आर्थिक पिछड़ेपन को आधार बनाया जाना चाहिए

गुर्जर आंदोलन, आम आदमी का क्या कसूर?
25-1432559013-gujjar-protestराजस्थान में गुर्जर पाँच प्रतिशत आरक्षण की माँग को लेकर लंबे समय से पिछड़ी जाति का दर्जा पाने के लिए उग्र और हिंसक आंदोलन चला रहे हैं । जबकि यह मसला राजस्थान हाईकोर्ट में विचाराधीन है। राजस्थान में आरक्षण क़ि मांग करने वाले गुर्जर नेता भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण पर रोक लगा रखी है। राज्य सरकार की भी इस मुद्दे पर ” एक तरफ खाई, दूसरी तरफ कुआं “वाली स्थिति हैं । सरकार चाहे तो कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि अभी गुर्जर आंदोलन कर रहे हैं । आने वाले दिनों में जाट ,राजपूत, ब्राह्मण भी आरक्षण को लेकर उग्र आंदोलन कर सकते हैं । राजस्थान का गुर्जर आंदोलन सरकार और अदालत के बीच का मामला हैं । इसका हल अदालत से निकलेगा या फिर इस मामले में सरकार ही कोई रास्ता निकल सकती हैं । गुर्जर मुख्य रूप से खेती और पशुपालन के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं और इनकी आर्थिक स्थिति भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती । गुर्जर समुदाय आज भी पढाई-लिखाई में आगे नहीं बढ़ पाये हैं।
लेकिन आरक्षण का हक़ पाने का जो रास्ता अपनाया जा रहा हैं क्या वो उचित हैं? देश की आम जनता को गुर्जर आंदोलनकारी परेशान कर क्या सन्देश देना चाहते हैं?
गुर्जर आंदोलन के चलते लगातार ट्रेनें रद्द हो रही हैं। गुर्जरों ने पटरियों पर झोपड़िया बना ली है । आम जनजीवन की रफ्तार थमी हुई है क्योंकि गुर्जर पटरियों पर बैठे हैं। आलम यह है कि गुर्जर रेलवे ट्रैक पर नाच- गा कर समय बिता रहें हैं। इतना ही नहीं गुर्जर अब सड़क पर भी उतर आए हैं। बसों का आवागमन भी बंद हो गया है। गुर्जर आंदोलन के चलते करीबन 25 से ट्रेनें रद्द हो चुकी हैं । ट्रेनों के रद हो जाने से यात्रियों को भारी दिक्कत झेलनी पड़ रही है। शादी विवाह में सम्मिलित होने से लेकर अपना इलाज कराने मुंबई जाने वाले, राजस्थान में एवं अन्य जगहों से राजस्थान पहुचने वाले यात्रियों को पीड़ा भुक्त भोगी ही समझ करता है । ट्रेनें रद्द होने के कारण गर्मी की छुट्टियों में घूमने-फिरने का कार्यक्रम ही ख्याब हो गया और बच्चे कुछ समझ नहीं पा रहे हैं ।
इस मामले में अजमेर के वरिष्ठ पत्रकार ओम माथुर की सोच बहुत मायने रखती है । उनका कहना हैं कि अपने घर के बाहर मोबाइल टावर लग जाने पर सरकार को फटकारने वाले हाईकोर्ट के माननीय मुख्य न्यायाधीश क्या हजारों लोगों को हो रही परेशानी को देखते हुए खुद प्रसंज्ञान लेकर सरकार को ये निर्देश देंगे कि वह गुर्जरों से सड़क व पटरियां खाली कराएं,ताकि लोगों को राहत मिले और गुर्जरों को भी यह समझना चाहिए कि उन्हें आरक्षण की लड़ाई सरकार से लड़नी है आम लोगों से नहीं।
1947 में दलितों के मसीहा और संविधान के निर्माता माने जाने वाले भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में यह प्रस्ताव रखा था कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा संस्थाओं और नौकरियों में सीमित समय के लिया आरक्षण दिया जाए और इसके साथ यह प्रावधान भी हो कि एक निश्चित अवधि के बाद किसी भी सूरत में इसे बढ़ाया नहीं जाये । भीमराव अंबेडकर यह चाहते थे कि अपना विकास करने के बाद उस तबके को शेष समाज में घुलमिल जाना चाहिए और अपना विशेष दर्जा छोड़ देना चाहिए । अंबेडकर का प्रसिद्ध कथन है: “यह अनुचित है कि बहुसंख्यक अल्पसंख्यक समूह के अस्तित्व से इंकार करें, लेकिन यह भी उतना ही अनुचित है यदि अल्पसंख्यक हमेशा अल्पसंख्यक ही बने रहना चाहें । ” लेकिन संविधान सभा ने उनकी बात न मानकर आरक्षण के लिए दस वर्ष की अवधि निर्धारित की और इसके साथ ही यह प्रावधान भी जोड़ दिया कि जरूरत समझी जाये तो इस अवधि को बढ़ाया जा सकता है । नतीजा यह है कि आज संविधान लागू होने के हर दस साल के बाद संविधान में संशोधन कर इन्हें बढ़ा दिया जाता रहा है।
इससे पश्चात 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी राजनेतिक जमीन बचाने के लिए 1979 में गठित मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके अन्य पिछड़ी जातियों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था कर दी । अब स्थिति यह है कि शिक्षा संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण तो है ही साथ में सरकारी सेवा में प्रोन्नति में भी आरक्षण की व्यवस्था है । भीमराव अंबेडकर जैसे राजनीतिक नेता और चिंतक जाति पर आधारित आरक्षण को जाति व्यवस्था समाप्त करने के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे, उसे मजबूत करने के लिए नहीं । लेकिन स्वतंत्रता के बाद का इतिहास बताता है कि पिछले सात दशकों में जाति व्यवस्था टूटने के बजाय और अधिक मजबूत ही हुई है और आरक्षण सामाजिक न्याय का पर्याय बन गया है । सामाजिक न्याय की अवधारणा अब जातिवाद में बदल गई है और इसे तोड़ने की जरूरत है । जाति-आधारित आरक्षण को बहुत पहले समाप्त हो जाना चाहिए था । लेकिन निहित स्वार्थों के कारण ऐसा नहीं हो पाया । क्या वाकई आरक्षण के लाभ दलित और पिछड़ी जातियों के गरीब और जरूरतमंद लोगों तक पहुंच पाते हैं? इन जातियों के ऊपर उठ चुके लोग ही आरक्षण का फायदा उठाते रहे हैं । अब समय आ गया हैं देश के नीति निर्माता जातिगत आरक्षण के स्थान पर आर्थिक पिछड़ेपन को आधार बनाते हुए आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के बारे में विचार विमर्श करे ।
अशोक लोढ़ा

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