वैसे तो राष्ट्रपति, लोकसभा के अध्यक्ष, राज्यं सभा के सभापति और प्रदेशों के राज्यपाल अक्सर विभिन्न राजनितिक दलों के सदस्य या कट्टर समर्थक ही होते हैं जिनकी निष्ठां राष्ट्र के प्रति काम और अपनी पार्टी के प्रति अधिक होती है और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि जीवन भर निष्ठां का प्रदर्शन करके ही उच्च पदों तक पहुँचते है लेकिन भारत के पास अपनें लोकतंत्र पर गर्व और संतोष करने के बहुत कारण हैं, कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाय , राष्ट्रपतियों और लोकसभा के अध्यक्षों ने जिस प्रकार अब तक अपनी अपनी प्रतिष्ठा को बरक़रार रखा है उस पर हम गर्व कर सकते हैं । लेकिन जैसे ही दृष्टि राज्य भवन में स्थापित होने वाले महामहिमों की तरफ जाती है दृष्टि अपने आप ही झुक जाती है क्योंकि अब तक की हिस्ट्री बताती है की इन महामहिमों में से कुछ इतने निष्ठावान हुए हैं किं उन्होंने मर्यादाओं की सारी सीमाओं को लाँघनें में कोई कसर ही नहीं छोड़ी ,उनमे से कुछ प्रसिद्द नाम है श्री बूटा सिंह जी, स्वर्गीय श्री रोमेश भंडारी, श्री राम लाल, श्री एचं आर भरद्वाज , आदि आदि वर्तमान में कार्यरत कुछ महामहिम तो यह मानने के लिए तैयार ही नहीं कि वह एक संवैधानिक पद पर विराज मान भी है ? क्योंकि वह जब तब अपनी धोती के निचे की खाकी निक्कर कभी भी निकाल कर दिखाते रहते है ? अब उनमे एक नाम बंगाल के साथ भी जुड़ गया है । ये महामहिम जब उत्तर प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष थे तब बहुत ही विवादस्पद रहे थे ? अब तो मुख्य मंत्री ने ही उन पर डराने धमकाने का गंभीर आरोप लगा दिया है । यह एक बहुत ही गंभीर मामला है उधर केंद्र शासित राज्यों में तैनात कनिष्ट महामहिमों का तो और भी अधिक अधिकार प्राप्त होना चुनी हुई सरकार के लिए सर दर्द से कम नही है दिल्ली और पोडुचेरी इसका उदहारण देखा जा सकता है ? अत: जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों के साथ ईन महामहिमों द्वारा किया जाने वाला व्यवहार लोकतंत्र के लिए बहुत ही अशुभ है ?
एस. पी. सिंह, मेरठ ।