क्या सती, सावित्री एवं सीता कमजोर स्त्रियों की प्रतीक हैं ?

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
डॉ. मोहनलाल गुप्ता
‘‘सती, सावित्री, सीता और अनुसुइया भारतीय नारियों का गौरव हैं, जिनसे प्रेरणा लेकर भारतीय नारियां हजारों वर्षों से एक सहज-सुलभ जीवन-पथ का अनुसरण करती आई हैं, इन पौराणिक नारी चरित्रों पर आघात करके देश की नारियों को दिग्भ्रमित करने का कुत्सित प्रयास भारतीय नारियों को स्वीकार्य नहीं है।’’
हाल ही में 6 से 8 अक्टूबर 2017 तक जबलपुर में आयोजित अखिल भारतीय साहित्य परिषद के पन्द्रहवें त्रैवार्षिक राष्ट्रीय अधिवेशन में सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं लोक साहित्य की विदुषी लेखिका डॉ. विद्या बिन्दु सिंह ने एक ऐसा प्रकरण अपने व्याख्यान में उद्धृत किया जिसे सुनकर किसी भी भारतीय का चिंतित होना स्वाभाविक है। उन्होंने कहा कि मुझसे एक शोधार्थी ने प्रश्न किया है कि हाल ही में एक विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की एक थीसीस को परीक्षक ने इस टिप्पणी के साथ अस्वीकार कर दिया कि वह थीसिस एक विशेष राजनीतिक दल के अभिमत का पोषण करती है; क्या ऐसा किया जाना उचित है ? विद्या बिन्दु सिंह ने स्पष्ट किया कि उस थीसिस में लोक गीतों के ऐसे उद्धरण दिए गए थे जिनमें सती, सावित्री एवं सीता आदि पौराणिक नारी पात्रों का उल्लेख हुआ था और यह उल्लेख परीक्षक को स्वीकार्य नहीं था क्योंकि परीक्षक की दृष्टि में ये नारी चरित्र भारतीय नारी की कमजोरी को प्रकट करते हैं।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सती, सावित्री, सीता एवं अनुसुइया जैसे नारी चरित्र जो हजारों वर्षों से भारतीय समाज के समक्ष आदर्श बने रहे हैं, क्या धर्म-निरपेक्षता के इस युग में आकर नकार दिए जाने चाहिए ? क्या ये पौराणिक युग के नारी चरित्र भारतीय नारियों की कमजोरी के प्रतीक हैं ? क्या वह समस्त लोक साहित्य, पौराणिक साहित्य एवं महाकाव्य आदि विपुल भारतीय एवं वैश्विक साहित्य नकार दिया जाना चाहिए जिसे हम हजारों साल से अपनी आत्मा में रचाते-बसाते आए हैं। आगे बढ़ने से पहले हमें इन नारी चरित्रों के सम्बन्ध में एक-एक करके कुछ बात करनी चाहिए।
सती, शिव पुराण का नारी पात्र है जो प्रजापति दक्ष की पुत्री एवं भगवान शिव की अर्द्धांगिनी है। शिव पुराण के रचना काल का सही निर्धारण नहीं हो सकता किंतु यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय पुराणों का रचना काल ईसा की तीसरी शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी के मध्य माना है जबकि भारतीय इतिहासकारों एवं साहित्यकारों के अनुसार पुराणों की रचना ईसा से 800 से 1000 वर्ष पूर्व की अवधि में हुई। शिव पुराण के अनुसार सती के पिता दक्ष, सती के पति शिव का सार्वजनिक रूप से अपमान करते हैं तथा शिव को यज्ञ में से भाग देने से मना कर देते हैं। सती अपने पिता के इस कृत्य का सार्वजनिक रूप से विरोध करती है किंतु वह अपने पिता की मर्यादा का भी ध्यान रखती है। वह अपने पिता के प्रति कटु वचनों का प्रयोग नहीं करती अपितु पिता को उसकी गलती का अनुभव कराने के लिए यज्ञकुण्ड में कूद पड़ती है। जब शिव को इस घटना की जानकारी होती है तो वे अपने गणों को भेजकर यज्ञ का विंध्वस करवाते हैं।
इसके बाद शिव अपनी पत्नी के दुःख से विगलित होकर उसकी पार्थिव देह को अपने कंधों पर रखकर हजारों वर्षों तक हिमालय क्षेत्र में घूमते रहते हैं, जब तक कि सती के शरीर का एक-एक हिस्सा गलकर पहाड़ों पर गिर नहीं जाता। शिव यहाँ तक ही नहीं रुकते, वे कामदेव को ही भस्म कर देते हैं। पति-पत्नी के प्रेम की ऐसी अनूठी कहानी संसार में और कहाँ देखने को मिलेगी! पत्नी द्वारा अपने पति के सम्मान की रक्षा करने तथा अपने पिता द्वारा उठाए गए गलत कदम का प्रतिकार करने के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाली नारी किस दृष्टि से कमजोर है ? आधुनकि युग में इस घटना को देखें तो यह लगभग वैसा ही है जैसा कि कोई व्यक्ति आमरण अनशन पर बैठ जाए और अपने प्राण गंवा दे।
‘सावित्री’ महाभारत में आए एक उपाख्यान की महिला-चरित्र है। महाभारत का युद्ध ईसा से 3137 वर्ष (अर्थात् आज से 5154 वर्ष) पहले हुआ। माना जाता है कि वर्तमान में उपलब्ध ‘महाभारत’ ग्रंथ की रचना नौवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व (अर्थात् आज से लगभग 2900 वर्ष पहले) हुई। जबकि भारतीय मान्यता के अनुसार इस ग्रंथ की रचना महाभारत युद्ध के काल में ही हुई। महाभारत के वनपर्व में मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को सत्यवान एवं सावित्री का आख्यान सुनाते हैं। इस आख्यान के अनुसार मद्रदेश की राजकुमारी सावित्री अपने पिता अश्वपति के आदेश पर देशाटन करके, सदैव सत्य बोलने वाले ‘सत्यवान’ नामक राजर्षि-पुत्र को अपने पति के रूप में चुनती है जो जंगल से लकड़ी काटकर अपने तथा अपने माता-पिता के उदर की पूर्ति करता है तथा जिसकी आयु केवल एक साल शेष बची है। जब यमराज, सत्यवान की जीवात्मा को ले जाते हैं तो सावित्री भी उनके साथ चल देती है। वह अपने विवेक, बुद्धि एवं मृदुसम्भाषण से यमराज को प्रसन्न करती है और यमराज उसके पति को फिर से जीवनदान देते हैं। जो स्त्री अपने पति का चयन स्वयं करती है, जो स्त्री यह जानने पर भी कि उसकी आयु केवल एक वर्ष शेष बची है, उसी से विवाह करने का निर्णय लेती है, जो स्त्री यमराज से अपने पति को पुनः प्राप्त कर लेती है, वह आधुनिक युग के तथाकथित विद्वानों को किस दृष्टि से कमजोर दिखाई देती है? क्या सावित्री की मजबूती तब दिखाई देती जब वह स्वयं द्वारा चयनित पति को इसलिए त्याग देती कि उसकी आयु केवल एक वर्ष ही शेष है! या फिर वह अपने पति को यमराज के मुंह से छीनने के लिए कोई प्रयास नहीं करती और नियति के समक्ष हार मानकर बैठ जाती! क्या किसी भी दृष्टि से यह सिद्ध होता है कि सावित्री, भारतीय संस्कृति या वांग्मय का कमजोर नारी पात्र है !
रामकथा का पहला उपलब्ध आख्यान वाल्मीकि रामायण को माना जाता है। यद्यपि रामकथा का सर्व-स्वीकार्य काल निर्धारण नहीं किया जा सका है तथापि माना जाता है कि राम-सीता का विवाह 7307 ईस्वी-पूर्व (अर्थात् आज से 9324 वर्ष पूर्व) हुआ। यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार वाल्मीकि रामायण की रचना का काल ईसा से 5वीं शताब्दी पूर्व से लेकर ईसा से पहली शताब्दी तक माना जाता है (अर्थात् वर्तमान समय से 2500 वर्ष पूर्व से लेकर 2100 वर्ष पूर्व के बीच)। भारतीयों की मान्यता के अनुसार इस ग्रंथ के रचयिता वाल्मीकि, रामकथा के काल में जीवित थे तथा उसी समय उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की। आधुनिक आलोचकों द्वारा देवी सीता पर कमजोर होने का आरोप इसलिए लगाया जाता है क्योंकि उन्होंने पति के आदेश पर अग्नि परीक्षा दी तथा पति द्वारा अपने महल से निकाल दिए जाने के उपरांत भी वह मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र को ही पति के रूप में स्वीकार करती रहीं। यदि सामान्य बुद्धि विवेक से सोचा जाए तो भी यह समझ में आ सकता है कि कोई भी स्त्री अग्नि में प्रवेश करके जीवित वापस नहीं लौट सकती ! यह केवल आख्यान है जिसे चमत्कारिक बनाने का प्रयास किया गया है। सीताजी की अग्नि परीक्षा इस संदर्भ में है कि वे स्वयं साक्षात् जगज्जननी लक्ष्मी हैं तथा श्री हरि की लौकिक लीलाओं का हिस्सा हैं। अतः इस अलौकिक कथा को उसी रूप में लेने की आवश्यकता है। इसके आधार पर राम और सीता के लौकिक सम्बन्धों का निर्धारण नहीं किया जा सकता। यदि सीता नामक साधारण स्त्री ने अग्नि परीक्षा दी होती तो वह जीवित नहीं बची होती और यदि अलौकिक देवी ने अग्नि परीक्षा दी तो उसका कोई लौकिक अर्थ कैसे निकाला जा सकता है !
सीता और राम का लौकिक सम्बन्ध ही देखा जाए तो वह इतना भर बैठता है कि जब निर्वासित राजकुमार रामचंद्र की पत्नी सीता का अपहरण हो जाता है तो वह उसे वन-वन ढूंढता फिरता है और उसकी स्मृति में रोता है। वह वनवासियों को मित्र बनाता है तथा उनकी सेना प्राप्त करता है। वह समुद्र के बीच बसी हुई लंका के अत्यंत शक्तिशाली राजा रावण को मारकर अपनी पत्नी को पुनः प्राप्त करता है और उसे अपने साथ लेकर राजधानी अयोध्या को लौट जाता है। अयोध्या के एक अत्यंत सामान्य नागरिक जो कि धोबी है, द्वारा सार्वजनिक एवं अभद्र टिप्पणी किए जाने के कारण रामचंद्र, अपनी पत्नी को वन में जाकर रहने को कहते हैं ताकि प्रजा पर राजा का अनुशासन बना रहे एवं समाज में मर्यादा बनी रहे। सीता, पति के प्रति अनुराग रखते हुए वाल्मीकि के आश्रम में निवास करती है और रामचंद्र उसकी स्मृतियों को सहेजे हुए अपनी राजधानी में रहते हैं। जब राजसूय और अश्वमेध जैसे यज्ञ होते हैं तो रामचंद्र दूसरा विवाह नहीं करते, अपितु वनवासिनी रानी सीता की स्वर्ण मूर्ति का निर्माण करवाकर उसके साथ यज्ञ करने बैठते हैं।
रामकथा की सुंदरता यह है कि यह लौकिक और अलौकिक दोनों ही कथाओं का सुंदर मिश्रण है किंतु भारतीय संस्कृति में दोष ढूंढने वाले लोग इस कथा के अलौकिक भाग को लौकिक बताकर आक्षेपों की झड़ी लगा देते हैं और राम को अत्याचारी और सीता को पीड़िता सिद्ध करके परम सुख को प्राप्त करते हैं। इन लोगों से पूछा जाए कि रावण की लंका में निर्भय होकर रावण का सामना करने वाली और उसकी समस्त दुराभिसंधियों को विफल करने वाली सीता कमजोर कैसे है, जंगल में ऋषि आश्रम में अपने पुत्रों को पालकर बड़ा करने वाली तथा अपने पुत्रों को अयोध्या की सेना से भिड़ जाने में समर्थ बनाने वाली सीता कमजोर कैसे है, तो इन मिथ्यावादियों के पास कोई जवाब नहीं बन पड़ता।
सार रूप में यह कहा जा सकता है कि सती, सावित्री एवं सीता भारतीय संस्कृति की कमजोर नारियों की प्रतीक नहीं हैं, उनकी कथाएं नारी मुक्ति के आंदोलन में कहीं भी बाधा उत्पन्न नहीं करतीं। वे तो अपने बुद्धि-विवेक एवं तप-बल से अपने निर्णय स्वयं लेती हैं और गलत बात के विरोध में खड़े होकर संसार के नियमों को बदलने का साहस रखती हैं। वे दाम्पत्य प्रेम की ऐसी दिव्य प्रतिमाएं हैं जिनसे प्रेरणा लेकर कोटि-कोटि भारतीय नारियां अपना पथ स्वयं प्रदर्शित करती आई हैं। किसी पुरुष ने भारतीय नारियों पर यह दबाव नहीं डाला है कि वे इन्हीं नारियों को अपना जीवन आदर्श मानें! यह समस्त स्वीकार्यता स्वैच्छिक है, आनंददायी है तथा जीवन को सुंदर बनाने का सिद्ध मंत्र है।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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