मनरेगा को धीमा जहर दे रही है सरकार

बाबूलाल नागा
देश के लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई केंद्र सरकार अपने बहुमत के बूते महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) को गारंटी से योजना की तरफ मोड़ रही है। मनरेगा के कानूनी प्रावधानों का बेरहमी से उल्लंघन किया जा रहा है। मनरेगा के अधिकारों का विस्तार करने की बजाय सरकार उनको सिकोड़ रही है। देश में मनरेगा को विभिन्न तरीकों से कमजोर किया जा रहा है। सरकार मनरेगा का बजट आवंटन बढ़ाने की जगह घटा रही है। मेहनतकश मजदूरों को उनको मजदूरी का भुगतान समय पर नहीं हो पा रहा है। ना सौ दिन का काम मिल रहा है और ना ही मजदूरी दरों में कोई बढ़ोत्तरी हो रही है।
मनरेगा का अपर्याप्त बजट सरकार की इस कार्यक्रम के प्रति प्रतिबद्धता की कमी झलकाता है। 2009-10 में मनरेगा पर खर्च देश की आमदनी का 0.6 प्रतिशत था, परंतु 2015-16 तक यह घटकर 0.27 प्रतिशत हो गया। हालांकि 2016-17 में यह अनुपात 0.39 था, परंतु यह भी बहुत अपर्याप्त था चूंकि वित्तीय वर्ष के अंत तक 9,124 करोड़ रुपए का भुगतान लंबित था। कई सालों से मनरेगा के मद में पर्याप्त धनराशि नहीं दी जा रही।

बाबूलाल नागा
बाबूलाल नागा
वर्ष 2009-10 में मनरेगा पर खर्च देश की आमदनी का 0.6 प्रतिशत था, परंतु 2015-16 तक यह घटकर 0.27 प्रतिशत हो गया है। हालांकि 2016-17 में यह अनुपात 0.39 था, परंतु यह भी बहुत अपर्याप्त था चंूकि वित्तीय वर्ष के अंत तक 9,124 करोड़ रुपए का अनुमान लंबित था। मनरेगा के अंतर्गत खर्च की गई राशि का सालाना औसत 38 हजार करोड़ रुपए का हुआ है। मुद्रा स्फीति के बढ़ने और आवंटित राशि की कमी के दोतरफा दबाब में मनरेगा का क्रियांवयन लगातार बाधित होता रहा है। मनरेगा के अंतर्गत साल 2013-14 में कुल 10 करोड़ लोगों ने रोजगार हासिल किया और उन्हें औसतन 45 दिन का रोजगार हासिल हुआ। अगर मजदूरी ओर सामान पर खर्च की जाने वाली राशि का अनुपात 51ः49 करने पर रोजगार सृजन की क्षमता में 40 प्रतिशत की कमी आएगी और यह सूखे की मार झेलते इस वक्त में गरीब परिवारों पर भारी पड़ेगा। केंद्र सरकार से हासिल फंड के मामले में इस साल मनरेगा की हालत और भी ज्यादा गंभीर है। इस वित्त वर्ष में केंद्र सरकार ने जो रकम दी उसका 75 प्रतिशत हिस्सा अब तक खर्च हो चुका है। वित्त वर्ष के लगभग पांच माह बाकी हैं, सवाल गंभीर है कि मनरेगा के मजदूरों को आगे का काम कैसे मिलेगा? सरकार ने अभी तक कोई संकेत नहीं दिया कि वह मनरेगा के लिए पूरक बजट ला सकती है।
एक तरफ जहां मनरेगा में पर्याप्त बजट नहीं दिया जा रहा वहीं दूसरी तरफ पिछले पांच वर्षों में जिन परिवारों को मनरेगा का काम मिल पाया है, उन्हें औसतन केवल 45 दिनों का ही रोजगार मिला है। मनरेगा मजदूरी में भी कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है और कई राज्यों की मनरेगा मजदूरी उसकी न्यूनतम खेतिहर मजदूरी से भी कम है। आज देश के राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और हरियाणा समेेत 17 राज्यों में मनरेगा की दिहाड़ी राज्यों की न्यूनतम मजदूरी से कम है जबकि पांच वर्षों में आधी से भी कम मजदूरी का भुगतान समय पर हुआ है। भुगतान में निरंतर व लंबे विलंब के कारण मजदूरों का मनरेगा के प्रति रुझान कम हो रहा हे। मनरेगा कानून में जवाबदेही के कई प्रावधान हैं, जैसे बेरोजगारी भत्ता, समय पर भुगतान न मिलने के लिए मुआवजा दंड व समयबद्ध शिकायत निवारण। परंतु इन सब प्रावधानों को केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा या तो नजर अंदाज या कमजोर किया जाता रहा है।
मनरेगा वर्ष 2005 में लागू हुआ था। इसका लाखों लोगों की आर्थिक सुरक्षा पर काफी प्रभाव है। ऐसे लाखों लोग जिनका गुजर-बसर बड़ी मुश्किल से चला पा रहा है। उनकी जिंदगी के लिए मनरेगा काफी फायदेमंद साबित हुआ। अनेक बाधाओं के बाजवूजद मनरेगा से कई महत्वपूर्ण परिणाम हासिल हुए हैं। मनरेगा में काम करने वाले कामगारों में ज्यादातर संख्या औरतों की है। मनरेगा कामगारों में तकरीबन मनरेगा से जो फायदे हुए हैं, वे अपने आप में ठोस और महत्वपूर्ण है। जहां भी इस मनरेगा का क्रियावंयन समुचित तरीके से हुआ है वहां पलायन रूका है। और खेतिहर क्षेत्र में रोजगार के अभाव के दिनों में मनरेगा ने गरीब परिवारों के लिए सुरक्षा का कवज का काम किया है। जरूरत है कि सरकार मनरेगा की बेहतर क्रियांवयन की दिशा में ठोस कदम उठाएं।

(लेखक विविधा फीचर्स के संपादक हैं) संपर्क- 335, महावीर नगर, प्प्, महारानी फार्म, दुर्गापुरा, जयपुर-302018 मोबाइल-9829165513

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