न्यूज चैनलों पर बहस का बवंडर

देवेन्द्रराज सुथार
देवेन्द्रराज सुथार
इन दिनों टेलीवीजन के न्यूज चैनलों पर बहस का क्रेज बढ़ता ही जा रहा है। बिलकुल इसी तरह बढ रहा है, जिस तरह सरकारी दफ्तरों में हाथ गरम करने का क्रेज परवान चढ रहा है। यहीं कारण है कि इन चैनलों पर होने वाली बहस बड़ी गर्मागर्म होती है। जितनी बहस गर्म नहीं होती उससे कई अधिक तो फीमेल एंकर गर्म होती है। बड़ी अप-टू-डेट होकर बहस करवाती है। एंकर की काली घनेरी जुल्फें, होठों पर लाल लिपस्टिक और पहने हुए सूटबूट का जलवा साफ इंगित करता है। एंकर का उद्देश्य बहस करवाना तो कथ्य नहीं है। सच तो यह भी है कि अधिकांश दर्शक इन एंकरों को ही ताडने और आंखें फाडकर निहारने के लिए बहस देखते है। और आधे से अधिक बहसकर्ता तो इनको देखकर ही गश खाकर गिर जाते है। अजी ! ये क्या गिरेंगे ? ये तो पहले से ही गिरे हुए है।

बाकि बहस में रखा ही क्या है ? हम तो रोज एक गली के कुत्तों को दूसरे गली के कुत्तों से लड़ते भिडते देखते ही है। इसमें नया क्या है ? बस ! गली के कुत्तों को भड़काने के लिए उस समय मध्यस्थ की भूमिका में कोई एंकर वंकर नहीं होता। वैसे इन खबरिया चैनलों की बहस में एंकर नामक जीव को पाकिस्तान से कमत्तर नहीं आंका जाना चाहिए। जो पैसे दोनों पार्टी से लेता है। बरहाल बहस करने वाले जीव को जन्तु कहे तो भी अतिश्योक्ति नहीं होंगी। इन चैनलों पर बहसकर्ता इस कदर लड़ते है कि हल्की फुल्की चाइना कंपनी की टीवी का तो स्पीकर ही उड़ जाये। दबाकर खाकर आते है और जमकर लड़ते है। टाइम टाइम पर टेबल पर रखी चाय-कॉफी की चुस्कियों का आस्वादन करते हुए मुंह से पेट का सारा जहर निकाल देते है। एक बहसकर्ता जैसे ही थोड़ा बोलने जाता है, दूसरा बहसकर्ता बीच में टांग अड़ा देता है। और जैसे ही दूसरा बोलने का प्रयास करता है, तीसरा अपनी नाक घुसा देता है। ओर जैसे ही तीसरा बोलने जाता है,चौथा अपने हाथ-पैर अड़ा देता है। दरअसल ये बहस के बीच ही टांग, हाथ-पैर और नाक नहीं अड़ा रहे है, बल्कि ये पिछले सत्तर साल से विकास के बीच भी इसी तरह अपना कुछ न कुछ अडाते आ रहे है। जैसे ही थककर हारकर इनकी सांसे फूलने लगती है और ये टांग अडाना बंद करने लगते है, तब एंकर बुझी चिंगारी को आग देता है। और फिर शोला जैसे भडका रे….!

यह बहसकर्ता इतने शरीफ किस्म के होते है कि बहस बहस में डीएनए जांच करवाने पर उतर आते है। कीचड़ उछालने में यह किसी कीचड़ से कम नहीं है। इनको देखकर एक भला आदमी तो यह ही सोचता है किन लंगूरों के हाथ में हमने अंगूर ही नहीं बल्कि अंगूरों का पूरा का पूरा गुच्छा ही दे डाला है। यह खा रहे है। और बकवास पर बकवास करते जा रहे है। अधिकांश लोग बहस को एक गंभीर विषय न लेकर एक मनोरंजनप्रद कार्यक्रम के रूप में लेते है। क्योंकि ये बहस देखकर पागल भी हंस लेते है।

– देवेंद्रराज सुथार
संपर्क – गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। पिन कोड – 343025

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