यरुशलम पर ट्रंप के फैसले से दो हिस्सों में बंटा विश्व और भारत की दुविधा

मुजफ्फर अली
मुजफ्फर अली
यहूदी, इसाई और मुस्लिम जगत के लिए आस्था का केन्द्र रहा यरुशलम आज तीनों धर्म के समर्थकों की जंग की वजह बन रहा है। इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच यरुशलम को लेकर विवाद तो था ही लेकिन अब अमेरिका द्वारा यरुशलम को इस्राइल की राजधानी के रुप में मान्यता देकर विश् व के देशों को दो हिस्सों में बांटने का काम कर दिया है। एक तरफ अमेरिका के इस निर्णय के खिलाफ अरब जगत और संयुक्त राष्ट्र संघ के कुछ देश हैं तो दूसरी ओर अमेरिकी और इस्राइल समर्थक देश हैं। दो हिस्सों में बंट गए देशों में विरोध प्रदर्शन और हिंसा की खबरें मिल रही हैं। ऐसे में भारत की विदेश नीति और ताजे हालात पर भारत का क्या रुख हो इस पर दुविधा बन गई है। अमेरिका और इस्राइल के साथ भारत के संबध पहले से ज्यादा मजबूत हुए हैं इसलिए उनके खिलाफ नहीं जाया जा सकता लेकिन दूसरी ओर अरब जगत और उनके समर्थक देशों के विरोध को भी भारत नजरअदांज नहीं कर सकता क्यूं कि भारत के साथ अरब के व्यापारिक, सांस्कृतिक संबध हैं।

आखिर क्या महत्व है यरुशलम शहर का

यरुशलम दुनिया की सबसे पुराने शहरों में से एक है। धार्मिक ग्रंथ बाईबल और पवित्र कुरआन में इसका जिक्र है। भूमध्य और मृत सागर से घिरे यरुशलम को यहूदी, मुस्लिम और ईसाई तीनों ही धर्म के लोग पवित्र मानते हैं। यहां स्थित टपंल माउंट जहां यहूदियों का सबसे पवित्र स्थल है, वहीं दुनियाभर के मुसलमानों के लिए मक्का, मदीना के बाद यरुशलम सबसे ज्यादा आस्था का केन्द्र है। इस्लाम के प्रवर्तक पैग बर मुह मद साहब ने पहले मुसलमानों को नमाज अदा करने के लिए यरुशलम में स्थित अल अक् सा मस्जिद की दिशा की ओर मूंह करके नमाज अदा करने का निर्देश दिया था , बाद में नमाज अदा करने की दिशा अरब के मक्का शहर में काबा की ओर की गई। इस लिहाज से यरुशलम की अल अक्सा मस्जिद मुसलमानों के लिए सबसे पहला काबा वाली पवित्र मस्जिद मानी जाती है। इसके अलावा कुछ ईसाइयों की मान्यता है कि यरुशलम में ही ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था। यहां स्थित सपुखर चर्च को ईसाई बहुत ही पवित्र मानते हैं। इस समय यरुशलम शहर इस्राइल देश का हिस्सा है। अरब क्षेत्र में 1948 से पूर्व इस्राइल नाम का कोई देश अस्तित्व में नहीं था। उस जगह फिलिस्तीनी रहा करते थे। फिलिस्तीनी मुस्लिम थे । यहूदी संप्रदाय अपने आपको इस्रायल का वशंज मानते हैं जो कि पवित्र बाइबल और तौरात धर्मग्रंथ के अनुसार ईश्वरीय दूत थे, इसलिए यहूदियों ने अरब के मुसलमानों से अलग अपना आजाद देश की कल्पना की और अरब से संघर्ष कर इस्राइल देश की स्थापना की। 1948 में इस्राइल देश के अस्तित्व में अपने के बाद धार्मिक महत्व वाले यरुशलम शहर को लेकर अरब और इस्राइल के बीच तनाव बना रहा । 1967 में अरब देशों के साथ इस्राइल ने 6 दिनों तक चले युद्ध के बाद पूर्वी यरुशलम पर कब्जा कर लिया। लेकिन सयुक्त राष्ट्र संघ व दुनिया के अनेक देश यरुशलम को इस्राइल के दावे को मान्यता नहीं देते हैं। इस्राइल में रह रहे पुराने नागरिक यानि फिलिस्तीनी और यहूदियों के बीच धर्म पर आधारित वैचारिक मतभेद बढते गए। यहूदीयों से तंग आकर इजींनियर की पढाई पढ रहे छात्र यासिर आराफात ने फिलिस्तीनियों को इस्राइल से आजाद करने का बीडा उठाया और फिलिस्तीन मुक्ति संगठन नामक समूह बनाया जिसे इस्राइल ने प्रतिबंधित किया और फिर फिलिस्तीन और इस्राइल बस्तियों के बीच जंग छिडती चली गई।

विवाद के बीच भारत की भूमिका

अस्सी के दशक में कई वर्षो तक चली इस्राइल और फलीस्तिनीयों के बीच चली जंग में अमेरिका इस्राइल के साथ रहा और अरब देशों ने फिलिस्तीन का साथ दिया । आखिरकार फिलिस्तीन आजाद हुआ और भारत पहला देश था जिसने फलीस्तीन को सबसे पहले एक स्वतंत्र राष्ट्र के रुप में मान्यता दी ।बावजूद इसके यरुशलम शहर इस्राइल के कब्जे में रहा हैं। इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच संघर्ष के दिनों में ही अनेक बार यासिर आराफात और हमारे देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अनेक बार मुलाकात हुई और हर बार भारत ने फिलिस्तीन की आजादी का समर्थन किया। अस्सी के दशक में नई दिल्ली मे हुए गुटनिरपेक्ष देशों के स मेलन के दौरान भारत फिलिस्तीन की दोस्ती को मजबूती देते हुए यासिर आराफात ने स्व इंदिरा गाधीं को अपनी बहन माना। तभी से भारत और फिलिस्तीन के संबध प्रगाड हुए। आज जब अमेरिका का यरुशलम पर लिए निर्णय का मुस्लिम जगत विरोध कर रहा है तो भारत अपने पहले वाले स्टैंण्ड पर कायम है जो कि भारत को महान देश की श्रेणी मे ंरखता है। भारत वास्तविक रुप से धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश है इसकी मिसाल भारत का फिलिस्तीन के साथ होना है जबकि आज हालात बहुत बदल गए है। केन्द्र में भाजपा की सरकार है जो कि इस्रायल के नजदीक है और अमेरिका से संबध अच्छे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप यरुशलम को राजधानी के रुप में मान्यता देकर ना सिर्फ फिलिस्तीन को चिढाने का काम कर रहे हैं बल्कि अनेक मुस्लिम देशों की नाराजगी भी मोल ले रहे हैं। उनका यह कदम एक बार फिर क्षेत्र में अशांति को जन्म दे रहा है। इसका असर अभी से दिखाई भी देने लगा है। खबरों के मुताबिक कई देशों ने अमेरिका के इस कदम का विरोध किया है जिनमें यूरोपियन देशों के अलावा अमेरिका के दोस्त देश भी शामिल हैं। हालाकिं अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान वादा किया था कि वह यरुशलम को इस्राइल की राजधानी के तौर पर मान्यता देंगे। उन्होंने वादा किया था कि वह अमरीकी दूतावास को तेल अवीव से यरुशलम शि ट करेंगे। वह अपना चुनावी वादा पूरा करना चाहते है लेकिन परिस्थितियों का अदांजा लगाए बगैर उठाया गया कदम विश्व शातिं के लिए मुश्किल हो सकता है।

भारत के सामने दुविधा

देश में इस समय गुजरात चुनाव की धूम है। केन्द्र के अनेक मंत्री और स्वंय प्रधानमंत्री गुजरात चुनाव में व्यस्त है जबकि बाहर की दुनिया में समय करवट ले रहा है। इस करवट से अनेक देशों के नागरिकों की कपकपी छूट रही है। अनेक यूरोपिय देश और संयुक्त अरब अमीरात के साथ साथ फिलिस्तीन और इस्रायल देश के नागरिक इस चिंता में डूबे हैं कि यदि यरुशलम शहर को इस्राइल की राजधानी के रुप में मान्यता देने के बाद अमेरिका और उसके समर्थक देशों ने अपने दूतावास तेल अवीव से यरुशलम शहर में खोलने का प्रयास किया तो संघर्ष का एक नया अध्याय खुल जाएगा। मीडिया रिर्पोर्ट के अनुसार फिलिस्तीन नागरिकों ने अल अक्सा मस्जिद में पत्थर जमा करना शुरु कर दिए हैं। अमेरिका सहित कई में विरोध और हिसांत्मक प्रदर्शन शुरु हो गए हैं। ब्रिटेन, फ्रासं जैसे देशो ने भी अमेरिकी कदम का विरोध किया है। उत्तर कोरिया जैसा देश जो अमेरिका को पिछले कुछ समय से लगातार युद्व की धमकी दे रहा था अब फिलिस्तीन के पक्ष में आ गया है। आने वाले कुछ दिन शायद खाडी देशों के आकाश को मैला कर सकते हैं। हमारे यहां केन्द्र में इस समय भाजपा सरकार इस्राइल के करीब है और इस्राइल भारत को अपना मजबूत दोस्त मानता है जैसे कि इस्राइल के प्रधानमंत्री ने हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस्राइल यात्रा के दौरान स्वागत करते हुए कहा था। वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ भारत के संबध भी पहले से अधिक गहराए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के आग्रह या निवेदन को भारत एकदम से नजरअदांज नहीं कर सकता है। बावजूद इन हालात में भी हमारे देश के विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि भारत अपने पुराने स्टैण्ड पर कायम रहते हुए फिलिस्तीन के साथ है जो यह दर्शाता है कि यरुशलम को मान्यता देने के अमेरिकी फैसले पर भारत की ओर से ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई है । संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारे प्रतिनिधी अकबरुददीन है जो संयुक्त राष्ट्र संघ के देशों में अपने देश की छवि को निखारने में सफल हुए हैं। लेकिन एक बडा सवाल यही है कि इस्राइल और अमेरिका के साथ अच्छे संबधों की बिना पर क्या भारत यरुशलम में अपना दूतावास खोलेगा या फिलिस्तीन और अरब जगत का साथ देकर या तटस्थ रहकर अमेरिका और इस्राइल जैसे ताकतवर देशों की नाराजगी मोल लेता है। भाजपा और उसके समर्थक पार्टीयां व संगठन इस पर अपनी सरकार को कैसे लेते हैं यह भी समझना दिलचस्प होगा।

– लेखक अजमेर के वरिष्ठ पत्रकार हैं और कालवाड टाइ स जयपुर के अतिथी संपादक हैं

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