अन्ना हजारे से तो बेहतर निकले बाबा रामदेव

योग गुरु बाबा रामदेव ने इशारा किया कि वे 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। अर्थात उनका संगठन भारत स्वाभिमान चुनाव मैदान में उतर सकता है। वे पूर्व में भी इस आशय का इशारा कर चुके हैं। बाबा रामदेव अगर ऐसा करते हैं तो यह उन अन्ना हजारे व उनकी से बेहतर होगा, जो कि सक्रिय राजनीति में आने से घबराते हैं, मगर बाहर रह कर उसका मजा भी लेना चाहते हैं।
ज्ञातव्य है कि जब भी अन्ना हजारे से यह पूछा गया कि अगर देश की एक सौ करोड़ जनता आपके साथ है और वाकई आपका मकसद व्यवस्था परिवर्तन करना है तो क्यों नहीं चुनाव जीत कर ऐसा करते हैं, तो वे उसका कोई गंभीर उत्तर देने की बजाय मजाक में यह कह कर पल्लू झाड़ते रहे हैं कि वे अगर चुनाव लड़े तो उनकी जमानत जब्त हो जाएगी। मगर अफसोस की उनसे आज तक किसी पत्रकार ने यह नहीं पूछा कि यदि आप वाकई जनता के प्रतिनिधि हैं और चुने हुए प्रतिनिधि फर्जी हैं तो जमानत आपकी क्यों सामने वाले ही जब्त होनी चाहिए।
इस सिलसिले में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक सभा में कहा गया एक कथन याद आता है। उन दिनों अभी जनता पार्टी का राज नहीं आया था। नागौर शहर की एक सभा में उन्होंने कहा कि कांग्रेस उन पर आरोप लगा रही है कि वे सत्ता हासिल करना चाहते हैं। हम कहते हैं कि इसमें बुराई भी क्या है? क्या केवल कांग्रेस ही राज करेगी, हम नहीं करेंगे? हम भी राजनीति में सत्ता के लिए आए हैं, कोई कपास कातने या कीर्तन थोड़े ही करने आए हैं। वाजपेयी जी ने तो जो सच था कह दिया, मगर अन्ना एंड कंपनी में शायद ये साहस नहीं है। वे जनता के प्रतिनिधि होने के नाते राजनीति और सत्ता को अपने हाथ में रखना भी चाहते हैं और उसमें सक्रिय रूप से शामिल भी नहीं होना चाहते। हरियाण के हिसार उपचुनाव के दौरान जब उनका आंदोलन उरोज पर था, तब भी वे चुनाव मैदान में उतरने का साहस नहीं जुटा पाए। तब अकेले कांग्रेस का विरोध करने की वजह से आंदोलन विवादित भी हुआ था। अन्ना और उनकी टीम ने सफाई में भले ही शब्दों के कितने ही जाल फैलाए, मगर खुद उनकी ही टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्ना जाहिर की थी। खुद अन्ना ने भी स्वीकार किया कि एक का विरोध करने पर दूसरे को फायदा होता है, मगर आश्चर्य है कि वे इसे दूसरे का समर्थन करार दिए जाने को गलत करार देते रहे। क्या यह आला दर्जे की चतुराई नहीं है कि वे राजनीति के मैदान को गंदा बताते हुए उसमें आ भी नहीं रहे और उसमें टांग भी अड़ा रहे हैं? यानि राजनीति से दूर रह कर अपने आपको महान भी कहला रहे हैं और उसके मजे भी ले रहे हैं। गुड़ से परहेज दिखा रहे हैं और गुलगुले बड़े चाव से खा रहे हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई शादी को झंझट बता कर गृहस्थी न बसाए व उसकी परेशानियों से दूर भी बना रहे और शादी से मिलने वाले सुखों को भी भोगने की कामना भी करे। आपको याद होगा कि तब अन्ना ने कहा था कि वे ऐसे स्वच्छ लोगों की तलाश में हैं जो आगामी लोकसभा चुनाव में उतारे जा सकें। वे ऐसे लोगों को पूरा समर्थन देंगे। अर्थात खुद की टीम को तो परे ही रखना चाहते हैं और दूसरों को समर्थन देकर चुनाव लड़वाना चाहते हैं। इसे कहते है कि सांप की बांबी में हाथ तू डाल, मंत्री मैं पढ़ता हूं। दुर्भाग्य से ऐसे स्वच्छ प्रत्याशी वे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान भी नहीं तलाश पाए थे।
खैर, अब बाबा रामदेव ने चुनाव लडऩे पर विचार करने की बात कह कर यह जता दिया है कि वे वाकई सिस्टम बदलना चाहते हैं और उसके लिए सिस्टम से परहेज न रख कर उसमें प्रवेश भी कर सकते हैं। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इस समय मैं काले धन को देश में वापस लाने और लोकपाल कानून बनने पर जोर दे रहा हूं। समाज, तंत्र और सत्ता में बदलाव लाना जरूरी है। यह कैसे होगा, इसके बारे में फैसला हमारे प्रदर्शन के दौरान लिया जाएगा। अभी मैं सिर्फ संकेतों में बात करना चाहूंगा। हालांकि, भारत स्वाभिमान संगठन के लिए समर्थन जुटा तो मैं मुख्य धारा की राजनीति में आने पर विचार कर सकता हूं। इतना ही नहीं जब उनसे पूछा गया कि अन्ना हजारे हमेशा कहते हैं कि अच्छे लोग चुनाव इसलिए नहीं जीत सकते हैं क्योंकि उनके पास पैसे नहीं होते हैं। इस पर योग गुरु ने कहा कि हमने बड़े बदलाव देखे हैं। हम ऐसा कर सकते हैं। मतलब सीधा सा है कि चुनाव में होने वाले जरूरी खर्च के लिए वे तैयार हैं। चुनाव लडऩे पर क्या परिणाम होगा, ये तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, मगर बाबा इस मामले में अन्ना से बेहतर ही हैं कि वे चुनाव लडऩे की साहस दिखाने की तो सोच तो रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

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