दुराचार के बाद की सच्चाई

अश्वनी कुमार
अश्वनी कुमार

-अश्वनी कुमार- दुनिया भर में महिलाओं कि स्थिति को देखकर आज राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त द्वारा लिखी गई कविता “अबला जीवन तेरी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी” याद आ गयी, कितनी प्रासंगिक लगती है ये कविता आज भी, जिस समय लिखी गयी थी उस समय कि बात तो समझ में आती है कि उस समय की स्थितियां ऐसी रही होंगी। पर अगर आज भी भी ये उतनी प्रासंगिक है तो एक सवाल बन जाती है। एक ऐसा सवाल जो आज खड़ा हो गया है। आखिर महिलाओं कि स्थिति में कब सुधार होगा…? क्या महिलाएं निकट भविष्य में भी बाबा आदम के जमाने में जीती रहेंगी…? और भी न जाने कितने ही सवाल है महिलाओं से जुड़े जो यहाँ खड़े हो जाते हैं। निरंतर विकास के नए सौपानों को छूती दुनिया में महिलाओं कि स्थिति आज भी उतनी ही दयनीय है जितनी आज से दो सौ-तीन सौ साल पहले थी। बड़ी विडम्बना की बात है।

आज की नारी भी अबला है! अब तो यही कहना पड़ेगा…एक कहानी मुझे याद आ जाती है. जब मैंने सच में एक महिला के साथ दुराचार के बाद जो घटनाएं घटी उनके बारे में सुना. मैं उस भाव को शब्दों में तो नहीं पीरों कर कोई कहानी तो नही गढ़ सकता हूँ. परन्तु कुछ लिखे बगैर रह भी नहीं सकता. एक जानकर ने बताया कि कुछ समय पहले एक लड़की के साथ लगभग छः युवकों ने बड़ी बेरहमी से दुराचार जैसी अमानवीय घटना को अंजाम दिया. मुझे उस मित्र द्वारा यह भी मालूम पड़ा कि उस लड़की को अबतक भी न्याय नहीं मिला है. अब यहाँ एक नया सवाल मेरे जहन गोते खाने लगता है कि आखिर इतनी संस्थाएं, इतनी सशक्त न्याय प्राणाली के होते हुए भी इस मसू लड़की जिसकी उम्र अभी केवल 18 वर्ष के आस पास ही होगी, उस समय तो यह मात्र 16 साल की थी जब इस उसके जीवन पर दागदार कर दिया गया. अपने स्वार्थ के लिए, अपनी इच्छा को मुकाम तक पहुँचाने के लिए, अपनी भूख को मिटाने के लिए इस तरह की लड़की के जीवन से खेल जाना कहाँ तक सही है…?

ये मुद्दा, ये किस्सा यहीं समाप्त नहीं होता बल्कि किस तरह प्रभावित करता है एक लड़की और उसे जुड़े लोगों के जीवन को हम उसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते. शायद इस लिए भी नहीं क्योंकि ये घटना हमारे साथ नहीं घटी होती है. एक लड़की जिसे हमारे तथाकथिक पुरुष प्रधान समाज में ही अपने आप को स्थापित करना है, अपना सारा जीवन गुजारना है. उस पुरुष प्रधान समाज में वह एक महिला को दोयम दर्जा दिया जा रहा है. उसे उपभोग की वस्तु के रूप में प्रयोग में लिया जा रहा है. क्या महिला एक वस्तु है…? क्या आपका जवाब हाँ में है…?

बात आगे बढ़ी और मेरे मित्र ने मुझे बताया कि जब लड़की के पिता ने उन लोगों के खिलाफ मुकदमा करना चाहा तो, पिता के साथ मारपीट की गई, लड़की के परिवार को गाँव वालों द्वारा उनका हुक्का पानी बंद करके गाँव से निकाल दिया गया. क्या यही हमारी मानवता है…? कहते हैं कि, “जब इंसान का बुरा वक्त आता है तो अपनी परछाई भी साथ छोड़ देती है.” परेशानी तब और बढ़ जाती है जब दुराचार की शिकार लड़की शादी के लायक हो,  बलात्कार शब्द जब किसी लड़की के साथ जुड़ जाता है, तो वह उसकी पूरी जिंदगी पर एक प्रश्न चिन्ह लगा देता है. समाज की नजर में वह लड़की केवल एक पीड़िता बनकर रह जाती है. एक पीड़िता… जिसे कोई भी अपने आस पास भी नहीं देखना चाहता. उससे दूरी बनाना ही हमारे सभ्य समाज का सभ्य रूप बन जाता है. क्या गंगा इतनी मैली होने के बाद भी गंगा नहीं है…? क्या हम उससे दूरी बनाना चाहते है. नहीं उस गंगा जल को घर में लाकर रखते है. चाहे वह कितनी भी मैली क्यों न हो जाए…! फिर एक लड़की के साथ हम दूरी क्यों बना लेते हैं…? दुराचार के बाद लड़की की शादी में बार बार रुकावटें आती हैं. चाहे पीड़ित परिवार शहर ही क्यों न छोड़ दे, पर ये कलंक उनका साथ कभी नहीं छोड़ता.

इस कलंक का साथ ही उस लड़की का जीवन बहन जाता है, उसका भविष्य बन जाता है. जिससे वह चाह कर भी नहीं निकल सकती और न ही उसका परिवार इस कलंक से पार पा पाता है. कदम कदम पर मन में यह डर बना रहता कि अगर लड़के वालों को इस बात का पता चल गया तो रिश्ता बना रहेगा…? ये आज सबसे बड़ा सवाल है. हमने कुछ साल पहले दहेज़ के लिए अपनी शादी वाले दिन शादी तोड़ देने वाली बहादुर लड़की की कहानी विभिन्न समाचार चैनलों पर देखी है… परन्तु वह शायद बहादूरी थी उस लड़की की इस लिए उससे एक लड़के ने उसी मंडप पर शादी कर ली थी. एसिड अटैक से पीड़ित लड़की के साथ भी एक लड़के ने शादी की थी हमने ऐसा भी सुना है… परन्तु किसी बलात्कार की शिकार लड़की के साथ किसी लड़के न शादी कर ली हो, ऐसा कभी नहीं सुना केवल देखा है. अनिल कपूर की एक फिल्म में जहां ऐश्वर्या के साथ बलात्कार के बाद अनिल उससे शादी करता है. समाज की परवा न करते हुए. दहेज़ के लिए मना करना, उसका विरोध करना अगर बहादूरी है तो बलात्कार के बाद उसकी शिकायत दर्ज करना, समाज के सामने आकर यह बताना कि मेरे साथ बलात्कार हुआ है, क्या बहादूरी नहीं हैं…? हमें अपनी जंग खा चुकी मानसिकताओं को बदलना चाहिए और इन पीड़िताओं को भी मुख्यधारा से जोड़ने के लिए प्रयास करने चाहिए, फिर चाहे वह शादी हो, शिक्षा हो या इनके पुनर्वास से सम्बंधित कोई मुद्दा. तभी शायद ये महिलाएं अपने को समाज में कहीं देख पाएं. दबी कुचली ही न रह जाएँ. सर उठाकर जी सके, अपने को बोझ न समझें, अपने को शोध न दें… बलात्कार के पीछे महिलाओं की गलती शायद होती भी हो, पर उसके बाद लगने वाले श्राप में उसकी कोई गलती नहीं होती. ये हमारे समाज की कुप्रथाओं के कारण महिलाएं अपनी जान देने पर मजबूर हो जाती हैं.

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