मुझे कभी लगता ही नहीं,
कि मुझ में इतनी गहराई है,
पता नहीं तुमको कैसे,
किस ओर से
ये नजर आई है।
मैं तो अभी तक ढूंढ़ रहा हूँ,
खुद को अपने अर्न्तमन में,
खुद को ढूंढने के लिए भी,
बहुत जरुरी तन्हाई है।
मैं कहता हूँ- मैं युग नहीं,
एक नए युग का प्रारम्भ सही,
हसीं खुशी के
या फिर दुख के
मेरे मुख पर भाव सही।
पर आज मैं कहता हूँ तुमसे,
मुझे इनका आभास नहीं,
स्वर्ग नरक की तो बात परे है,
बात करुं कैसे इस युग की।
इस युग में आया क्यूं हूँ,
इसका मुझे आभास नहीं,
तुमने तो बातों में ला दिया,
मन्दिर और भगवान को,
उनसे निरन्तर पूछ रहा हूँ,
बनाया क्यूं इन्सान को।
-त्रिवेन्द्र कुमार पाठक