मुझे क्यूं ड़र लगता है

त्रिवेन्द्र कुमार पाठक
त्रिवेन्द्र कुमार पाठक

इतना बता दो मुझे तुम,
कि मुझे क्यूं ड़र लगता है
कभी लगता है मुझको ये,
तुम मेरी हो!
कभी तुम्हारे दुर हो जाने के ख्याल से
डर लगता है
पर इतना तो बता दो मुझे,
कि मुझे क्यूं ड़र लगता है
जब आपका चेहरा
मेरे हदय में
अपने नियत स्थान पर होता है,
तो लगता है कि तुम हो,
और तब ही कुछ पल बाद!
मस्तिष्क की उथल-पुथल से
डर लगता है,
सोचता हूँ तो डर लगता है,
याद करता हूँ तो डर लगता है,
कभी ख्यालों मे मेरे,
तुम आकर मेरे बालों को सहलाती हो,
कभी बनकर हवा,
मेरे बदन को छू जाती हो,
तब ही संध्या के समय,
सूरज को जाते देख,
डर लगता है,
पर अभी तक ये पता नहीं चला कि आखिर,
मुझे क्यूं डर लगता है
-त्रिवेन्द्र कुमार पाठक

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