जन्म दिन क्यों मनाते हैं ​’ बड़े लोग ‘

unnamed-तारकेश कुमार ओझा- जन्म दिन और नया साल। इन दो मौकों पर एेसा प्रतीत होता है मानो अनायास ही सिर समय की दीवार से जा टकराया हो। क्योंकि दोनों ही अवसर जीवन का एक साल औऱ बीत जाने का अलार्म बजाते हैं। हम जिस दौर में पले – बढ़े , उसमें किसी का जन्म दिन मनते – मनाते  फिल्मोंं में ही देखा पाते थे। क्योंकि तब के अभिभावकों में कम ही एेसे होते थे, जिन्हें अपनी संतान के जन्म की तारीख का ठीक – ठीक पता हो।  तब जन्म प्रमाण पत्र बनवाने की भी कोई अनिवार्यता नहीं थी। मुझे लगता है जन्म दिन और नया साल दोनों ही मौकों को भुनाने का चलन 80 के दशक में भौतिकता का प्रभाव बढ़ने के साथ हुआ। पहली जनवरी यानी  नए साल की शुरूआत में कुछ न कुछ अलग – नया करना है, इसकी धुन समाज के निचले स्तर पर भी सवार होनी शुरू हुई। इसी के साथ सामान्य वर्ग के लोग भी अपने बच्चों का जन्म दिन शानदार तरीके से मनाने लगे। राजनीति में पैसों और ग्लैमर की दुनिया के लोगों का प्रभाव बढ़ने के साथ जन्म दिन सुर्खियां बटोरने लगी। ग्लैमर की दुनिया में तब के सुपर स्टार राजेश खन्ना के बारे में सुना है कि उनके सुनहरे दौर में जन्म दिन पर ट्रकों में भर – भर कर  फूल उनके बंगले में पहुंचते थे, लेकिन कालचक्र में जब उनके सितारे गर्दिश में चले गए तो उनका जन्म दिन को याद रखने वाला भी कोई न बचा। वहीं राजनीति में बड़े राजनेताओं के जन्म दिन पर पहले समर्थकों द्वारा उन्हें किसी मिठाई या सिक्कों से तौलने का चलन शुरू हुआ। जो बाद में रंगीन व भव्य समारोहों का रुप लेने लगा।  जयललिता से लेकर मायावती के जन्म दिन पर होने वाला शाही समारोह कई दिनों तक प्रचार माध्यमों में छाया रहने लगा। लेकिन समाजवादी पृष्ठभूमि के मुलायम सिंह यादव जैसे राजनेता  भी कभी राजा – महाराजाओं की तरह समारोह  पूर्वक अपना जन्म दिन मनाएंगे, इस बात की कल्पना भी किसी नहीं की थी। सवाल उठता है कि आखिर राजनेताओं में यह प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है जिसके तहत वे अपने निजी पलों को भी सार्वजनिक चकाचौंध की रोशनी में लाने से परहेज नहीं कर रहे। क्या उन्हें इस बात की चिंता नहीं कि राजा – महाराजा जैसी उनकी जीवन शैली जनता में उनकी छवि खराब कर सकती है।

तारकेश कुमार ओझा
तारकेश कुमार ओझा

एेसा लगता है भविष्य को लेकर हमेशा सशंकित रहने वाले राजनेता महज अपनी ताकत और प्रशंसकों को तौलने की खातिर अपने जन्म दिन को भव्य समारोह में बदलने को राजी होते होंगे। अन्यथा घाट – घाट का पानी पी चुके राजनेता इतने नासमझ तो नहीं ही है कि एेसी आत्मघाती गलती करते रहें। बेशक एेसे मौकों को शाही समारोहों में बदलने के पीछे उनके चमचों  का हाथ रहता होगा। जो किसी न किसी बहाने सत्ता केंद्र के इर्द – गिर्द रहने वाले अपने प्रिय राजनेता के प्रति निष्ठा जाहिर करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते। भले ही मौका आने पर पतली गली से निकलने वालों में एेसे चंपु ही अग्रणी भूमिका में नजर आएं। पश्चिम बंगाल में रिकार्ड 34 साल तक लगातार शासन करने वाले वामपंथियों के जमाने में कम्युनिस्ट होना फैशन का रूप ले चुका था। लेकिन आज बिल्कुल विपरीत स्थिति है। देश के दूसरे राज्यों की भी यही स्थिति है। लालू प्रसाद यादव के पारिवारिक कार्य़क्रम अब कहां सुर्खियां बटोर पाती है। किसी को इस बात से भी मतलब नहीं कि सत्ता से दूर जा चुके लालू अब दिनचर्या किस प्रकार गुजारते हैं।

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