ऐसा होता है प्यार

मोहन थानवी
मोहन थानवी

– मोहन थानवी- सिन्धु नरेष चनेसर अपनी महारानी लीला से अथाह और प्रगाढ़ प्रेम करता था। उन दोनों की प्रेम-कहानी सम्पूर्ण भारत में उदाहरण के रूप में कही जाती रही है। कछ गुजरात तक भी उनकी प्रेम कहानी के गीत गाए जाते थे। साथ ही चनेसर की वीरता और पौरुषता ने भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। इस बारे में चर्चाओं का दौर थमता नहीं था। चनेसर था भी जांबाज और कामदेव का-सा खूबसूरत राजा।
सिन्धु नदी के कलकल कर बहते पानी की तरह चनेसर की सुंदरता, पौरुष और वीरता के गीत कछ की राजकुमारी कौरूं ने अपनी सहेलियों से सुने तो मन ही मन अपने जीवन की डोर उसके साथ बांध ली। राजकुमारी के हृदय में बसे चनेसर की छवि जब कछ के राजा-रानी को दिखने लगी तो वे चिंतित हो उठे। रानी सिन्धु नरेष के एक वजीर से वाकिफ थी, उसने राजा को कहकर वजीर को कछ आने का न्योता भिजवाया।
वजीर न्योता मिलते ही कछ पहुंच गया लेकिन उसे जल्दी ही निराष राजा-रानी को छोड़कर लौटना पड़ा, इसका रंज वजीर के मन में भी रहा। कारण एक ही था, चनेसर अपनी महारानी लीला से बेपनाह प्रेम करता था – इस स्थिति में वजीर किस मुंह से उसे कछ की राजकुमारी को रानी बनाने की सलाह दे पाता।
वजीर के लौट जाने के बाद रानी ने राजकुमारी की दषा का वर्णन राजा के सामने कुछ इस तरह से किया कि उसके सम्मुख राजकुमारी का विवाह चनेसर से करने की समस्या के सिवाय और कोई बात ही नहीं रही। राजा-रानी ने दिन-रात इसी चिंता में गुजारे। सलाह-मषविरा किया और आखिरकार रानी ने उपाय सुझाया। उसने कहा, मैं राजकुमारी को साथ लेकर सिन्धु प्रदेष जाऊंगी। वहां राजकुमारी ने अपनी सेवा से चनेसर का हृदय जीतने में कामयाबी हासिल कर ली तो उनका विवाह जरूर हो जाएगा; राजा ने कछ की मान-मर्यादा और सम्मान का ध्यान रखने का वचन लेकर मां-बेटी को सिन्धु जाने की अनुमति दे दी।
सिन्धु पहंुचने के बाद मां-बेटी ने वजीर की मार्फत एक दासी के यहां आश्रय प्राप्त कर लिया। दासी के माध्यम से महारानी लीला की दासियों में भी उन्होंने स्थान बना लिया। प्रेम और युद्ध में सब जायज होता है। यहां यह बात भी लागू होती है, रानी ने राजकुमारी और चनेसर के मिलाप को देखते हुए एक योजना बनाई और राजकुमारी को नौलखा हार देकर उसके उपयोग की चाल बता दी।
राजकुमारी की खुषी के लिए रानी को और भी उपाय बताने पड़े। उन उपायों पर राजकुमारी ने भी मनन किया। प्रेम में पागल राजकुमारी ने एक दिन मौका देखकर लीला महारानी को अपने नायाब नौलखा हार की झलक दिखा दी। लीला आखिर औरत थी और नौलखा हार उसके प्रेम की चमक को अपनी चमक में समाने लगा। राजकुमारी ने उसकी मनोदषा का फायदा उठाया और हार के बदले केवल एक रात चनेसर की सेवा करने का वचन मांगा। रानी ने इस षर्त को दरकिनार करते हुए खूब माल-असबाब राजकुमारी को देने की बात कही मगर राजकुमारी नहीं मानी। रानी के मन पर लालच का पर्दा आ गिरा और हृदय की आंखें बंद हो गई। उसने विचार किया, राजा नषे में चूर होगा तो राजकुमारी को उसके पास भेजकर मैं नौलखा की मालकिन बन जाऊंगी। एक रात राजा ने राजकुमारी के साथ गुजार भी दी तो क्या फर्क पड़ेगा, वह तो नषे में होगा। राजकुमारी के अलावा खुद राजा भी इस राज को नहीं जान सकेगा।
रानीने राजकुमारी को राजा का नषा टूटने से पहले लौट आने की हिदायत देकर नौलखा हार ले लिया और राजकुमारी को नषे में चूर राजा के कमरे में अपने गहने-वस्त्रों से सजा कर भेज दिया। राजकुमारी तो ऐसी ही स्थिति के लिए चाल चल रही थी। वह राजा के साथ सूर्य निकलने तक रही। राजा का नषा टूटा तो अपने पलंग पर रानी लीला की जगह किसी और को देखकर षंकित और अचंभित हो उठा। पूछताछ की तो राजकुमारी ने अपनी चाल के अनुसार नौलखा हार के बदले रानी लीला द्वारा एक रात उसके नाम करने की बात बता दी। राजा चनेसर को इस बात पर बहुत क्रोध आया और उसने क्षणिक आवेष में लीला को मन से निकालते हुए राजकुमारी से उसी वक्त विवाह कर लिया। वजीर की मार्फत लीला को जब इस स्थिति की जानकारी मिली तो वह चनेसर के प्रेम में पागल हो उठी और पष्चाताप की आग में जलने लगी। सच तो यही था िकवह चनेसर से सच्चा प्यार करती थी। नौलखा हार तो कुछ घड़ी के लिए उसकी आंखों पर काली पट्टी की तरह बंध गया था।
लीला ने ठंडे दिमाग से सारी स्थिति को भांपा और राजा की नाराजगी से दुखी होकर अपने पीहर चली गई। राजा चनेसर और महारानी लीला ने विछोह के बाद पलभर को भी एक-दूसरे को नहीं बिसराया। दोनों के लिए एक-एक दिन काटना मुष्किल हो गया।
वजीर की मंगेतर उसी गांव में रहती थी जो लीला महारानी का पीहर था। लीला के लौट आने से गांव के लोग दुखी थे। वजीर की भावी ससुराल वालों ने लीला के साथ राजा चनेसर के बर्ताव को देखते हुए अपनी बेटी का हाथ वजीर को थमाने से इनकार कर दिया। वजीर ने लीला महारानी को कहा, आप जितना चनेसर को चाहती हैं, उतना ही मैं अपनी मंगेतर को प्यार करता हूं। आप चाहें तो मंगेतर से मेरा विवाह हो सकता है। मेरी मंगेतर भी मुझे प्यार करती है, पूछ सकती हैं। लीला महारानी े दिल में प्रेम के लिए नफरत नहीं थी। सो, उसने दोनों का विवाह करवाने का वचन दे दिया, साथ ही अपने और चनेसर राजा के मिलन में वजीर के सहयोग की अपेक्षा भी बताई। लीला ने वजीर के सामने षर्त रख दी कि वह अपनी बारात में राजा चनेसर को जरूर लाएगा ताकि वह उससे मिल सके। वजीर ने षर्त मान ली।
वजीर ने राजा चनेसर को अपनी बारात में चलने के लिए राजी कर लिया। बारात जब गांव में पहंुची तो राजा चनेसर भी बारातियों में षामिल था। लीला को चनेसर से मिलने, उसे देखने का मौका मिल गया था मगर नौलखा हार की लालच में पड़ने के क्षणों को याद करते हुए उसने पष्चाताप स्वरूप दृढ़ निष्चय कर लिया था, राजा को अपने सच्चे प्यार का प्रमाण वह उसके कदमों में प्राण त्याग कर देगी। वह नृतकी के रूप में राजा के सामने पहुंचने के लिए बारातियों के सम्मुख मंच पर खूब नाचेने लगी। राजा के मन में भी लीला के प्रति प्रेम की पींगें कायम थी। वह नृतकी को देखते ही लीला-लीला कहकर उसे अपने पास बुलाने लगा। चनेसर ने कहा, तुम मेरी लीला की तरह लगती हो। जरा पूरा मुंह तो दिखाओ। मेरी आंखें लीला को देखने को तरस गई हैं।
लीला राजा चनेसर के कदमों में जा गिरी, बोली – नाथ, मैं आपकी लीला ही हूं। दोनों के मिलन को देखने वाले उनके प्रेम को समझ रहे थे मगर लीला ने अपने सच्चे प्यार का इजहार करने के लिए जो संकल्प किया था, उसे पूरा करते हुए उसने नृत्य करते-करते चनेसर के कदमों में प्राण त्याग दिए। चनेसर भी इस दुख को, लीला के बिछोह को सह नहीं सका और हाय लीला कहते हुए उसने भी प्राण त्याग दिये।

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