सदमें से किसान की मौत : मरता है कोई तो मर जाए………

रीता विश्वकर्मा
रीता विश्वकर्मा

अपने देश में प्राकृतिक(दैवीय) आपदा से त्रस्त लोग मानवजनित आपदाओं के प्रकोप की पीड़ा सहज नहीं कर पा रहे हैं-परिणाम यह हो रहा है कि वह आत्महत्या करने लगे हैं।
उत्तर प्रदेश सूबे में गत महीनों चक्रवातिक बरसात से किसानो की फसल बरबाद हो गयी थी। सरकार ने रहम कर पीड़ितों को क्षतिपूर्ति देने का फरमान जारी कर दिया। क्षतिपूर्ति की धनराशि ऊँट के मुँह मे जीरा ही साबित हो रही है, साथ ही पात्र किसान राहत का चेक पाने से वंचित भी हो रहे हैं।
शासनादेश का अनुपालन करने व कराने वाले जिम्मेदार हुक्मरानों पर कोई असर नहीं पड़ रहा हैं। हुक्मरानों की इस बेरूखी से त्रस्त किसान सदमें में आकर आत्महत्याएँ करना शुरू कर दिये हैं।
जिलों में तैनात सरकारी मुलाजिम ‘कफनखसोट‘ जैसा व्यवहार करने लगे हैं। लेखपाल और राजस्व विभाग के अधिकारी गण अपनी मनमानी पर लगाम नहीं लगा रहे हैं। किसानों की समस्याओं के प्रति क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि भी संवदेनहीन बने हुए हैं। किसानों को राहत चेक मिले या न मिले इससे उनको कोई सरोकार नहीं है।
एक तरह से कहा जा सकता है कि ‘अन्नदाता‘ (किसान) पर सरकारी व्यवस्था भारी पड़ रही है। जनप्रतिनिधि और हाकिम भी इधर कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं। संकट और समस्याग्रस्त होकर किसान अब असहाय महसूस करने लगा हैं।
कभी ऊपर वाले, कभी इन्द्रदेव/वरूणदेव, कभी अग्निदेव के तान्डव का शिकार होकर आम आदमी विशेष तौर पर किसान अपना सब कुछ गवाँ रहा है। सरकारी इमदाद के नाम पर ऊँट के मुँह मे जीरा जैसी धनराशि का चेक किसानों को मिलेगा ही यह नहीं कहा जा सकता। गरीबोे, किसानों आम लोगों के विकास हेतु नीतियाँ बनाने वाले वातानुकूलित कक्षों में बैठते हैं, इसीलिए उन्हें गर्मी, जाड़ा, बरसात किसी भी मौसम की वास्तविकता का अन्दाज नहीं हो पाता है।
इधर आम आदमी भूखे पेट समस्याग्रस्त रहकर क्या करे, क्या न करे इसी सोच में डूबा डिप्रेस हो जा रहा है। परिणाम यह हो रहा है कि प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित आम किसान अब सरकारी इमदाद के लिये सरकारी दफ्तरों कर चक्कर लगाने लगा है। जिन्हें ‘इमदाद‘ की रकम कैश/चेक नहीं मिल पाती हैं-वह ‘आत्महत्या‘ करने लगे हैं।
बीते दिवस एक समाचार पढ़ा था जिसमें लिखा था कि ‘‘राहत का चेक न मिलने के सदमे से किसान की मौत’’ पूरा समाचार पढ़ा जो कुछ इस तरह का था-
उत्तर प्रदेश सूबे के जनपद बाराबंकी की एक तहसील है नवाबगंज। इसी तहसील के गाँव गदिया का निवासी किसान राम आसरे की 15 बीघा गेहूँ की फसल मौसम के कहर से नष्ट हो गई है। बीते दिवस गाँव में नगर विधायक सुरेश यादव फसल नुकसान का राहत चेक बांट रहे थे। कुछ किसानों को चेक वितरित करके विधायक वापस लौट गये। राहत चेक प्राप्त करने की कतार में राम आसरे भी लगा था।
पूरे दिन लाइन में लगकर अपनी बारी का इन्तजार करने वाले किसान राम आसरे को अन्ततः पता चला कि उसका चेक अभी बना ही नहीं है, इसलिए उसे चेक बाद में मिलेगा। यह सुनते ही सदमें में आकर राम आसरे बेहोश होकर गिर पड़ा। किसान राम आसरे के पुत्र राम विलास के अनुसार लेखपाल से जब उसने चेक न मिलने की बात किया तो उन्होंने कहा कि अपने पिता से कह दो कि चेक कल आकर ले लेंगे, लेकिन जब तक राम विलास अपने पिता को यह बात बताता तब तक किसान राम आसरे के प्राण पखेरू उड़ चुके थे।
यह तो रही किसान राम आसरे की बात। इसके पूर्व हमें बहुत से ऐसे समाचार पढ़ने-सुनने को मिले हैं, जिनमें किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएँ प्रमुख हैं। अरविन्द केजरीवाल सी.एम. दिल्ली की जनसभा में सार्वजनिक तौर पर आत्महत्या करने वाले हरियाणा के किसान गजेन्द्र सिंह का नाम लोगों की जुबान पर है। इस किसान ने भी फसल बरबादी के सदमें में आकर आत्महत्या कर ली ऐसा कहा जाता है।
कमोवेश कुछ इसी दौरान हमें ऐसे समाचार मिले थे, जिसमें प्राकृतिक आपदा से त्रस्त किसानों, गरीबों ने आत्महत्या करने के साथ ही अपना घर-बार छोड़कर परदेश जाकर रोजी-रोटी कमाने के लिए पलायन करना शुरू कर दिया था, जो अब भी जारी है। सदमा और आत्महत्या जैसी घटनाएँ आए दिन हो रही हैं, यह बात अलग है कि मीडिया में कुछ ही खबरों को सुर्खियाँ मिल पा रही हैं।
हमें उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, गोण्डा, अम्बेडकरनगर तथा मध्यप्रदेश के छतरपुर समेत कई अन्य जगहों पर तनावग्रस्त किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने का समाचार मिल चुका है, जिसे हमने हमारे वेब पोर्टल रेनबोन्यूज डॉट इन पर प्रमुखता से स्थान भी दिया है।
रामआसरे और गजेन्द्र सिंह जैसे किसानों की मौत की खबर ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। एक तरफ गरीब किसान, आम आदमी अनेकानेक समस्याओं से ग्रस्त होकर डिप्रेस होने लगा है, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक ठेकेदार व सरकारी अहलकार मौके का लाभ लेते हुए अपनी-अपनी जेबें भरने में लगे हुए हैं। इन जेब भरने वालों को कफनखसोट न कहा जाए तो क्या कहा जाए…? अब रही बात जनप्रतिनिधि, जननेताओं और उच्च पदस्थ अधिकारियों की तो इन्हें हृदयहीन व संवेदनहीन ही कहा जा सकता है।   किसान सदमें में आए और आत्महत्या करे यह सब इन लोगों के लिए कुछ मायने नहीं रखता, इन्हें बस अपनी सुख-सुविधा, ऐशो-आराम और कफनखसोटी कार्य से ही मतलब रहता है।
इलाहाबाद, गोण्डा, अम्बेडकरनगर, छतरपुर, दिल्ली कहीं भी किसी भी जगह कोई किसान सरकारी नीतियों के चलते सदमें में आकर अपनी जान दे दे क्या फर्क पड़ने वाला है। सब कुछ तो यथावत् ही संचालित हो रहा है। मरने वाले, वालों के यहाँ रूदन-क्रन्दन कुछ दिन तक फिर उसके बाद स्थिति पूर्ववत्। हर कोई अपना काम बखूबी कर रहा है, चाहे वह प्रकृति हो या फिर मानव। प्रकृति भी ताण्डव मचाये हुए है, और मानव ने भी आसुरी प्रवृत्ति धारण कर लिया है। किसान राम आसरे मरें चाहे गजेन्द्र या फिर कोई और कुछ भी फर्क नहीं पड़ता सरकार, सरकारी अहलकार, जनप्रतिनिधि, सामाजिक ठेकेदारों और पेशेवर कफन खसोटों के ऊपर। इनके ऊपर तो फिल्मी गीत का यह मुखड़ा बिल्कुल सटीक बैठता है कि- ‘‘मरता है कोई तो मर जाए, हम अपना निशाना क्यों छोड़ें…….।’’

-रीता विश्वकर्मा
सम्पादक
रेनबोन्यूज डॉट इन
Mob.No. 8765552676

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