चेतना—चेतन्यता

चेतना क्या है——-

डॉ. जुगल किशोर गर्ग
डॉ. जुगल किशोर गर्ग

प्राचीन काल से ही प्रमस्तिष्क प्रांतस्था (cerebral cortex ) को चेतना की मुख्य इंद्रिय, अथवा प्रमुख स्थान माना गया है। इसमें से भी पूर्वललाट के क्षेत्र को विशिष्ट महत्व दिया गया है। किन्तु पेनफील्ड और यास्पर्स के मतानुसार चेतना का स्थान चेतक (thalamus), अधश्चेतक (Hypothalamus) और ऊपरी मस्तिष्क के ऊपरी भाग के आसपास है । पेनफील्ड और यास्पर्स मस्तिष्क के इन भागों को और उनके संयोजनों को स्नायुओं के संगठन का सर्वोच्च स्तर मानते हैं। पूर्व ललाट क्षेत्र तथा अधश्चेतक के बीच बहिर्गामी नाड़ियों द्वारा संयोजन है। संयोजन प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष है। परोक्ष संयोजन पृष्ठ केंद्रक के द्वारा होता है। इन नाड़ियों का संबंध पौंस (Pons) से भी है।
यह याद रखना चाहिये कि चेतना मनुष्य की वह विशेषता अथवा वह गुण है जो उसे जीवित रखती है और जो मनुष्य को व्यक्तिगत सम्बन्ध में तथा अपने वातावरण के सम्बन्ध में ,बोध कराती है। इसी ज्ञान को विचारशक्ति (बुद्धि) कहा जाता है। यही विशेषता मनुष्य में ऐसे काम करती है जिसके कारण वह जीवित प्राणी समझा जाता है। मनुष्य अपनी कोई भी शारीरिक क्रिया तब तक नहीं कर सकता जब तक कि उसको यह बोध पहले न हो कि वह उस क्रिया को कर सकेगा। कोई भी मनुष्य किसी विषेले अथवा हानिकारक पदार्थ या घटना से बचने के लिए अपने किसी अंग को तब तक नहीं हिला सकता, जब तक कि उसको यह ज्ञान न हो जाये कि कोई विषेला/ हानिकारक/प्राण घातक पदार्थ उसके सामने है और उससे बचने के लिए वह अपने अंगों को काम में ला सकता है। इस सन्दर्भ में हम एक ऐसे आदमी के बारे में सोच सकते हैं जो नदी की तरफ जा रहा है, यदि वह चलते-चलते नदी तक पहुँच जाता है और नदी के अन्दर प्रवेश कर जाये तो वह नदी में डूबकर मर जाएगा। वह अपना चलना तब तक नहीं रोक सकता एवं नदी में अन्दर घुसने से अपने को तब तक नहीं बचा सकता जब तक कि उसकी चेतना में यह ज्ञान उत्पन्न नहीं होता कि उसके सामने नदी है और वह जमीन पर तो चल सकता है, परंतु पानी पर नहीं चल सकता। मनुष्य की सभी क्रियाओं पर उपरोक्त नियम लागू होता है, मनुष्य केवल चेतना से उत्पन्न प्रेरणा की वजह से ही कोई काम कर सकता है।
चेतना— मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
मनोविज्ञान की दृष्टि से चेतना मानव में उपस्थित वह तत्व है जिसके फलस्वरूप मानव को सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। चेतना के कारण ही हम देखते, सुनते और समझते हैं और एवं अनेक विषय पर गहन चिंतन भी करते हैं। इसी के कारण हमें सुख-दु:ख की अनुभूति होती है और हम इसी के कारण अनेक प्रकार के निश्चय (decision) कर अपना लक्ष्य निर्धारित कर उस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रयास भी करते हैं ।
मानव चेतना की तीन विशेषताएँ होती है,यथा—
1 ज्ञानात्मक
2 भावात्मक और
3 क्रियात्मक ।
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के विचारों से ‘ चेतना वह तत्व है जिसमें ज्ञान की, भाव की और अभिव्यक्ति,( अर्थात् क्रियाशीलता) की अनुभूति है। जब हम किसी पदार्थ को जानते हैं या पहचानते हैं तो हमे उसके स्वरूप का ज्ञान भी होता है, उसके प्रति हम में प्रिय अथवा अप्रिय के भाव भी सर्जित होते है और उसके प्रति इच्छा/ अनिच्छा उत्पन्न होती है, जिसके कारण या तो हम उसे अपने समीप लाने का प्रयास करते हैं अथवा हम अपने आपको उससे से दूर रखते हैं।
चेतना को दर्शन में स्वयं प्रकाशित तत्व माना गया है। मनोविज्ञान अभी तक चेतना के स्वरूप में आगे नहीं बढ़ सका है। चेतना ही सभी पदार्थो को, जड़ चेतन, शरीर मन, निर्जीव-सजीव, मस्तिष्क स्नायु आदि को बनाती है, उनका स्वरूप निरूपित करती है। फिर चेतना को इनके द्वारा समझाने की चेष्टा करना अविचार है।
श्री मेगडूगल के कथनानुसार जिस प्रकार भौतिक विज्ञान की अपनी ही सोचने की विधियाँ और विशेष प्रकार के प्रदत्त हैं उसी प्रकार चेतना के विषय में चिंतन करने की अपनी ही विधियाँ और प्रदत्त हैं। अतएव चेतना के विषय में भौतिक विज्ञान की विधियों से न तो सोचा जा सकता है और न उसके प्रदत्त इसके काम में आ सकते हैं। फिर भौतिक विज्ञान स्वयं अपनी उन अंतिम इकाइयों के स्वरूप के बारे में अभी तक एक निश्चित मत स्थापित नहीं कर पाया है जो उस विज्ञान के आधार हैं। पदार्थ, शक्ति, गति आदि के विषय में उन्हें अभी तक कामचलाऊ जानकारी ही प्राप्त हुई है। अभी तक उनके स्वरूप के विषय में अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। अतएव चेतना के विषय में अंतिम निर्णय की आशा कर लेना युक्तिसंगत नहीं है।
चेतना को जिन मनोवैज्ञानिकों ने जड़ पदार्थ की क्रियाओं के परिणाम के रूप में समझाने की चेष्टा की है अर्थात् जिन्होंने इसे शारीरिक क्रियाओं, स्नायुओं के स्पंदन आदि का परिणाम माना है, उन्होंने चेतना की उपस्थिति को ही समाप्त कर दिया है। पैवलाफ और वाटसन ने अपने चिंतन के आधार पर बताया है कि मन अथवा चेतना के विषय में मनोविज्ञान में सोचना ही व्यर्थ है। मनोविज्ञान का विषय तो मात्र मनुष्य का दृश्यमान व्यवहार ही होना चाहिए।
चेतना के शरीर में संबंध के विषय में मनोवैज्ञानिकों के विभिन्न मत हैं—-
कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य के बृहत् मस्तिष्क में होनेवाली क्रियाओं, अर्थात् कुछ नाड़ियों के स्पंदन का परिणाम ही चेतना है। यह अपने में स्वतंत्र कोई तत्व नहीं है।
वहीं कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार चेतना स्वयं तत्व है और उसका शरीर से आपसी संबंध है, अर्थात् चेतना में होनेवाली क्रियाएँ शरीर को प्रभावित करती हैं। कभी-कभी चेतना की क्रियाओं से शरीर प्रभावित नहीं होता और कभी शरीर की क्रियाओं से चेतना प्रभावित नहीं होती।
एक मत के अनुसार शरीर चेतना के कार्य करने का यंत्र मात्र हैं, जिसे वह कभी उपयोग में लाती है और कभी नहीं लाती। परंतु यदि यंत्र बिगड़ जाए, अथवा टूट जाए, तो चेतना अपने कामों के लिए अपंग हो जाती है। कुछ गंभीर मनोवैज्ञानिक विचारकों द्वारा विज्ञान की वर्तमान प्रगति की अवस्था में उपर्युक्त मत ही सर्वोत्तम माना गया है।

सकंलनकर्ता डा. जे. के. गर्ग
सन्दर्भ (Referenceses )—-विकिपीडिया, Anthropology of Consciousness, Journal of Consciousness Studies,Cognition Psyche, Science & Consciousness Review,ASSC e-print archive containing articles, book chapters, theses, conference presentations by members of the ASSC.,Stanford Encyclopaedia of Philosophy, Levels of Consciousness, by Steve Pavlina) , डेविड आर. हव्किंस, अपनी किताब Power vs. Force, dhyan dhyanam ,.onlymyhealth.com,FractalEnlightenment.com- ways-to-expand-your-consciousness . आदि |

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