जैसा की क़ानून का सिद्धान्त है की भले ही सौ गुनाहगार छूट जाएँ पर एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए ! क्या यह संभव है हम तो यही कहेंगे कि हाँ यह सब कुछ संभव है। वह भी भारत में ही संभव है ! लेकिन सबसे पहली बात तो यह है कि किसी भी गुनाह गार को सजा देने से पहले न्यायधीश के सामने सुबूत होने चाहिए ! परंतु जो लोग सुबूत एविडेंस एकत्र करते है या इन्वेस्टीगेशन करते उनकी ईमानदारी हमेश ही संदेह के घेरे में होती है क्योंकि इन्वेस्टिगेटर का काम सुबूत एविडेंस एकत्र करना ही है और अगर लापरवाही या लालच में आकर इन्वेस्टिगेटर ने अपने काम के साथ ईमानदारी से अपने कर्त्तव्य का निर्वहन नहीं किया तो फिर ऊपर वाला भी किसी निर्दोष को बचाने में अदालतों की मदद नहीं कर सकता ?
आजकल अदालतों में जिस प्रकार से कम का बोझ कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है उससे भी एक भयावह स्थिति उभर रही है यह इस बात से लगता है की वर्तमान में हमारे देश की अदालतों में करीब 3 करोड़ केस लंबित है और विशेषज्ञों के आंकलन के अनुसार अगर यही स्थिति रही तो वर्ष 2040 में यानी कि 25 वर्ष बाद लंबित केसों की संख्या लगभग 15 करोड़ से अधिक हो जायेगी !
कारण
इन सब कारण कोई एक बात नहीं है अनेकों कारन हो सकते हैं लेकिन अगर यह आंकलन सही है तो फिर जो तो जो भयवाह स्थिति पैदा होगी उस पर इंसान तो क्या भगवान् भी काबू नहीं कर पायेगा ! क्योंकि जैसा हम देखते और सुनते है हमारे पश्चिम उत्तर प्रदेश में जितने अपराध हो रहे है और उससे सामाजिक वैमनस्य दिनों दिन बढ़ता जा रहा है जिससे गैंगवार को रोक पाना पुलिस की उपस्थिति में ही संभव नहीं है और गैंग वार का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन आम बात है ?
कानून व्यस्था का भार राज्य सरकारों का है । राज्य का पूर्ण अधिकार और हक़ होने के बाद भी देश की कोई सी भी। राज्य सरकार। गुणवत्ता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है । उसका कारण सबको मालूम है की देश की पुलिस व्यस्था और उसके व्यापक असीमित अधिकारों के कारण पुलिस हमेशा निरंकुस्ता से काम करती है जैसे की हम कोई गुलाम है और गुलाम देश के नागरिक है और पुलिस किसी निरंकुश राजा की है ? उसका कारण भी है कि देश स्वतंत्र होने बाद भी पुलिस व्यवस्था और पॉलिस के सामंतवादी अधिकारों में कोई बदलाव नहीं हुआ है !आज भी अंग्रेजों के बनाये 1860 के कानूनों के सहारे ही पुलिस व्यवस्था चल रही है क्योंकि यह व्यवस्था पुलिस और शासकों दोनों को सुबिधा जनक लगती है क्योंकि जहां सरकारी पक्ष की पार्टी को अपने। विरोधियों को काबू करने में सुविधा होती है वहीँ पुलिस को अपनी मनमानी करने और वसूली में सुविधा होती है ! यानी राजनीती और पुलिस गठजोड़ का भारतीय नमूना ?
ऐसा भी नहीं की पुलिस सुधार के लिए कोई काम नहीं हुए है ? खूब काम हुए कई आयोग बने है लेकिन कीसी भी पार्टी की सरकार हो अब पुलिस के अधिकार को कम करने को कोई राजी नहीं ? विडम्बना यह है कि आजभी एक पूर्व पुलिस अधिकारी (महानिरीक्षक) की1 याचिका जो पुलिस सुधारो से सम्बंधित है सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है ? और यह भी पता नहीं की कब तक लंबित रहेगी !
परंतु आजकल ऐसा भी देखने में और समझने में कोई दिक्कत नहीं है कि पुलिस ही नहीं अदालते भी सरकार के साथ कदम ताल करने में कोई हिचक महसूस नहीं करती? जब सरकार की इच्छा किसी स्तर पर त्वरित न्याय करने की होती है तो चाहे वह नोयडा का सुरेन्द्र कोली केस हो जिसमे सर्वोच्च न्यायलय ने एक दिन पहले रात में अदालत लगा कर उसकी फांसी पर रोक लगाईं थी एक प्रकार से यह ठीक ही हुआ क्योंकि सभ्य समाज में फांसी की सजा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए ? फिर चाहे पंजाबके मुख्य मंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे या फिर राजीव गांधी के हत्यारो को की फंसी की सजा उम्र कैद में बदलना हो यह सब राजनितिक हस्तक्षेप के कारण ही संभव हो पाया है ? क्योंकि सभ्य समाज में फाँसी की सजा के कलंक के सामान है और हम उसका समर्थन नहीं करते ।
लेकिन अभी हल में जो एक राजनीति; प्रशासनिक;और न्यायिक ड्रामा स्टेज किया गया है उससे दुनिया में भारत की छवि को एक धक्का ही लगा है जब एक राजनितिक पार्टी ने सरकार की आड़ में अपनी छवि को दबंग बनाने और उभारने में अब तक की सारी सीमाओं को देश भक्ति और देश द्रोही की बहस में उलझाकर पेश करने सफलता प्राप्त कर ली है और इस काम में न्यायिक व्यस्था ने भी सरकार के साथ कदमताल करके अभूतपूर्व साहस दिखाया है रात में ही उच्चतम न्यायलय की कार्यवाही पूरी की ? और त्वरित न्याय की दिशा में शायद भारत का पहला कदम है ? इसलिए यह आशा की एक किरण सी है की अब भारत में गंभीर मामलो में त्वरित न्याय भी हो सकेगा ? जहां एक ही दिन में राज्य पाल; राष्ट्रपति ; और सर्वोच्च न्यायलय सहित पुलिस प्रशासन ने मुस्तैदी से काम करके अपने अपने अधिकार क्षेत्र के काम को पूरा ही नही किया है बल्कि अंजाम तक भी पहुँचाया है जब एक देश द्रोही को फांसी पर लटका कर हजारो लोगो की आँखों के सुख गए आँसुओं को पोछने का साहसिक काम किया है ?
लेकिन एक सवाल अभी अनुत्तरित ही है की क्या सरकार का यह कदम उसकी दक्षिण पंथी दबंग छवि को बरकरार रखने में मददगार होगा या फिर उसके लिए हल्दीघाटी के युद्ध जैसी चुनौती होगा ? क्योंकि सबका साथ सबका विकास का सरकारी नारा केवक नारा ही बन कर न रह जाय ! क्योंकि आतंकवाद से लड़ने की इच्छाशक्ति तो सरकारी स्तर पर बहुत दिखती है परंतु स्थिति ठीक वैसे ही है जैसे गरजने वाले बादल और बरसने वाले बादल ?
एस पी सिंह ! मेरठ ।