उन्नीसवीं शताब्दी में विश्व तेज़ी से आर्थिक उन्नति की और बढ़ा पर इसका एक बड़ा शिकार उस समय उपनिवेशों के गिरमिटिया मजदूर हुए जिन्हें अनुबंध के तहत दूर देशों में बागानों ,खदानों और सड़क व रेलवे निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए ले जाया जाता था . जैसा की उस समय उपनिवेशों में गावों की स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं थी अतएव गांवों में होने वाले उत्पीड़न और गरीबी आदि से बचने के लिए ये मजदूर एजेंटों के जरिये अनुबंध पर जाने को तैयार हो जाते थे हालाँकि वहां जाकर स्थिति बिलकुल उलट होती थी इन मजदूरों को अनेक यातनाएं झेलनी पड़ती थीं जिसका जिक्र गिरमिटिया मजदूरों के संस्मरणों में भी मिलता है और अप्रवासी साहित्य में भी इसकी झलक हम देख सकते हैं .
लम्बे समय तक वहां रहने और काम करने के दौरान इन मजदूरों का परिचय वहां की संस्कृति से हुआ, साथ में जो पुरानी संस्कृति ये लेकर आये थे उससे जुड़े रहकर इन्होने अपने गुजर बसर के रास्ते खोजे आगे पुरानी संस्कृति को आत्मसात करते हुए इन्होने नयी संस्कृति का सृजन किया और ये उसमे कुछ इस तरह रच बस गए की आगे चलकर बहुत से गिरमिटिया मजदूर अनुबंध समाप्त होने पर भी नहीं लौटे और जो लौटे वे भी कुछ दिनों पश्चात वापस चले गए यही एक वजह है की भारतीय मूल के लोग कुछ देशों में बहुतायत में मिलते है
मार्क्स ने कहा है ‘व्यक्ति की सामजिक स्थिति उसकी आर्थिक स्थिति से तय होती है’ पर सांस्कृतिक सरोकार भी आर्थिक स्थिति से संचालित होते हैं ,संस्कार आत्मसात करने की शक्ति कम लोगों में होती है अन्यथा पास में पैसा आते ही आचार ,विचार और व्यवहार बदलने लगते है यह एक शाक्तिशाली सामाजिक सच्चाई है
आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम करने वाले लोग बड़ी सहजता से स्वयं को समाज के खुशहाल वर्ग में गिनते हैं , यहाँ तक पहुँचने के लिए भी एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरकर ये लोग आते हैं कोई युवा यदि किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी का हिस्सा है तो अपने परिचय में वह गौरवान्वित होकर इसका जिक्र किये बिना नहीं रहता साथ ही अच्छे ‘पैकेज’ की बात बताना भी नहीं भूलता जो उसने अपनी पूरी शिक्षा और फिर कार्यानुभव के पश्चात प्राप्त किया है . पर इसकी तह में जाने पर हम पाते हैं की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम करने वालों को ‘नौ से नौ ‘ बजे तक कार्य करना होता है जैसा की ये कंपनियां आबादी क्षेत्र से दूर ‘हाईटेक सिटी’ में स्थित होती हैं जहाँ से आने जाने में लगभग दो घंटे का समय लग जाता है अब तक यह समय कोई चौदह घंटे के आसपास हो गया . हमारे यहाँ शास्त्रों में भी एक औसत स्वस्थ मनुष्य की नींद छ: घंटे बताई गयी है फिर हमे यह नहीं भूलना चाहिए की इंसान आखिर इंसान है मशीन नहीं, की बटन दबाया और गहरी नींद में चला गया और बटन दबाते ही झट से उठ खड़ा हुआ इसलिए यदि नींद के समय को हम आठ घंटे गिनें तो मुश्किल से कोई दो घंटे का समय एक ‘हाईटेक श्रमिक’ के पास बचता है जिसमे उसे अन्य नियमित जरूरी कार्य भी करने होते हैं . ऐसे में ये हाईटेक श्रमिक सोच भी नहीं पाता की वह क्या कर रहा है ? और हर दूसरे हफ्ते इनकी छुट्टी भी कहने के लिए छुट्टी भर होती है यहाँ गौर करने वाली बात है बहुराष्ट्रीय कंपनियां भले ही दूसरी चीज़ों में अनेकों विकल्प दें पर अपने श्रमिकों की छुट्टियों को लेकर सबसे संवेदनशील होती हैं, लिहाज़ा एक हाईटेक श्रमिक का सामाजिक जीवन पूरी तरह प्रभावित होता है वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता . पारिवारिक जिम्मेदारियां और सामजिक गरिमा बनाये रखने के लिए महीने के आखिरी दिनों में मोबाईल पर आया तनख्वा का सन्देश उसके यहाँ बने रहने का पुरजोर समर्थन करता है .
शायद इसी लिए सालों पहले ‘गांधी ने इस औद्योगिक शिल्प के जुए तले मनुष्य और प्रकृति दोनों के धीरे-धीरे मिटते जाने का खतरा भांप लिया था। यही कारण था कि वे हस्त उद्योग और कृषि-उद्योग तक अर्थोपार्जन की गतिविधियों को सीमित रखने की हिमायत करते रहे’
उन्नीसवीं सदी के गिरमिटिया मजदूरों के ‘अनुबंध’ और इक्कीसवीं सदी के ‘हाईटेक श्रमिकों’ के ‘पैकेज’ में कोई खास फर्क नहीं है बस समय सापेक्ष नाम बदल गए हैं . गिरमिटिया मजदूरों को काम पूरा न हो पाने की स्थिति में सजा दी जाती थी, और आज बाजार एक छतरी के नीचे विकल्प देता है जिससे प्रतिस्पर्धा के चलते हाई टेक श्रमिक के लिए ‘टारगेट’ किसी यातना से कम नहीं हैं जो निश्चित समय में पूरे करने होते हैं .’उपनिवेशवाद’ में गिरमिटिया मजदूरों से शारीरिक श्रम लिया जाता था जबकि ‘नवउपनिवेशवाद’ में हाई टेक श्रमिकों से बौद्धिक काम लिया जाता है . शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम में एक बड़ा फर्क है,शारीरिक श्रम की थकान भरपेट भोजन और अच्छी नींद के पश्चात लगभग मिट जाती है पर बौद्धिक थकान को मिटाने के लिए भोजन और नींद पर्याप्त नहीं संतुष्टि पहली शर्त भी है और आखिरी खुराक भी , जब कोई शारीरिक विकलांगता का शिकार होता है , तो उसके साथ रहने वालों को कष्ट उठाने पड़ते हैं पर यदि कोई मानसिक विक्षिप्त हो जाता है तो पूरे समाज के लिए वो खतरा बन जाता है . अभी तक एक पीढ़ी इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का हिस्सा बनी है और आज ‘तनाव’ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी बीमारी बनकर उभरी है .
गांधीजी ने बहुत सोच-समझ कर मशीनीकरण की जगह भारत के सदियों पुरातन श्रम आधारित उद्योग-शिल्प को सामने रखा था। उन्होंने 1909 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में दो टूक शब्दों में कहा- ‘‘ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरह की खोज करना आता नहीं था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग यंत्र वगैरा की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझ कर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदुरुस्ती है।’’
बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने के चलते समयाभाव में बहुत सी प्रतिभाएं सिर्फ स्वयं के जीवन निर्वाह तक सिमट कर रह जाती हैं , अन्यथा ये लोग यदि अच्छी शिक्षा के पश्चात एक रोजगार संस्कृति का हिस्सा बनते हैं तो कई सौ-पचास के टुकड़ों में साधारण पढ़े लिखे लोगों को भी रोजगार के अवसर मुहैया करवा सकते हैं जैसा की ‘गांधीजी की दृष्टि में श्रम आधारित उद्योग-शिल्प ही वह चीज थी जिसकी बदौलत मनुष्य भोजन, वस्त्र, आवास जैसी आवश्यकताओं के जिहाज से स्वावलंबी रहता आया था और अन्य प्राणी भी सुरक्षित रहते आए थे- न कभी पर्यावरण का संकट आया, न पीने के पानी का संकट आया, न ग्लोबल वार्मिंग का खतरा पैदा हुआ, न किसी पशु-पक्षी, पेड़ की प्रजाति के समाप्त होने का खतरा’
लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अपनी संस्कृति होती है, आज दुनिया के बहुत से बड़े शहरों में एक सा खान-पान, पहनावा, और यातायात के साधन मौजूद हैं विविधता इनके बीच सिरे से ख़ारिज हो चुकी है .ब्रांडेड कपडे पहनना ,महंगे होटलों में खाना-पीना और सप्ताह के अंत में पार्टी क्या ये हाई टेक श्रमिकों द्वारा निर्मित उनकी अपनी संस्कृति है ? जिसमे ये कुछ इस तरह रच -बस गए हैं की उन्ही गिरमिटिया मजदूरों की तरह ये हाईटेक श्रमिक भी वापस लौटना नहीं चाहते ?
– राकेश बाजिया
राकेश मेरे दोस्त आपने लेख तो बहुत अच्छा लिखा है लेकिन आपने औधोगिकीकरण को काटघरे मे लाकर खड़ा कर दिया ।
और जो आप नए गिरमिटिया मजदूरों की बात कर रहे हो वो तो पूंजीवाद की देंन है
भाई यह मेरा अनुभवजनित दृष्टिकोण भर है बाकी हो सकता है आने वाले समय में हर कोई महसूस करे
भाई यह मेरा अनुभवजनित दृष्टिकोण भर है आने वाले समय में हो सकता है हर कोई महसूस करे
आज की आँख से भविष्य को देखता एक बेहतर आलेख। बधाई