आज फिर गांधी की हत्या हुई। गोडसे को पुनः नवजीवन मिला। खुद गांधी का नाम ओढने वालो ने बापू के हत्यारे को भी एक नाम में कैद कर दिया।
गोडसे कोई अकेला नाम नहीं है। एक विचार है। उस विचार को गांधी की नैतिक उपस्थिति न केवल खडेडती है ,अपितु उसके पोषकों की शिनाख्त भी करती है। क्या ये सम्भव है कि कोई अकेला गोडसे किसी विराट गांधी की हत्या कर दे? गोडसे का कोई समूह, कोई संगठन, दल, मिलकर इस भौतिक कार्य को अंजाम दे सकते हैं। भौतिक इसलिये कि गांधी कभी मर नहीं सकता, अगर मर जाता तो गोडसे के मुखोटे आज उसकी जय नहीं बोल रहे होते।
पहली बार किसी सिरफिरी राजनीती के चलते गोडसे और उसके मुखौटों की शिनाख्त का सुयोग अदालत को मिल रहा था और वह खोज फिर ने स्थगित हो गई।
जी, हाँ प्रमुख विपक्षी दल के उपाध्यक्ष ने संघठन विशेष पर एक चुनावी सभा में गांधी की हत्या का लांछन लगाया। मानहानि का वाद, राजनितिक कलाबाजी, वही ढाँक के तीन पात। सम्भवतः इसके कुछ राजनैतिक निहितार्थ हो, किंतु सच एक बार फिर ठगा सा रह गया। सच की हार से ज्यादा पीड़ादायक सच का पलायन होता है। लेकिन सच की लड़ाई के लिए भीतर का सच भी मजबूत होना चाहिये और वह शायद इन दिनों राजनीती के पास सिरे से गायब है।
गोडसे की रणनीति जीत गई। गान्धी की फिर से हत्या हो गई।
कैसी विडम्बना कि देश के दो प्रमुख राजनैतिक दलों के उदय और पर्दुभाव में गांधी का अवसान बसता है। एक ने हत्या का जश्न मनाया तो दूसरा दफनाने के सुख को अपना सौभग्य समझता है।
रास बिहारी गौड़
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