कौन हो तुम मेरे

रश्मि जैन
रश्मि जैन
रोज़ यही सवाल पूछता है मेरा मन
कौन हो तुम मेरे
डरती भी हूँ रोज़ाना
वही रात फ़िर आएगी
घूरती निगाहें तुम्हारी
मेरी सम्पूर्ण देह को भेदती हुई…
अनादिकाल से तुम्हारा और मेरा
एक ही रिश्ता रहा मर्द और औरत का
सिर्फ जिस्म से जिस्म का
पुरुष के लिए नारी सिर्फ भोग्या रही
सिर्फ शारीरिक संतुष्टि का एक साधन मात्र
अनेक रिश्तों में बंधी होने के बावजूद
क्योंकि तुमने नारी को सिर्फ एक शरीर ही तो समझा है आज तक…
सदैव तन को जाना मन को नही
नारी के रूप में अनेको रिश्ते निभाए है मैंने
कभी माँ बन कर देखभाल की
तो कभी बहन बन कर किया दुलार
तो दिया कभी प्रेयसी का प्यार
बेटी बन कर सेवा की तो
बन कर दोस्त तुम्हारी
साथ दिया हर मौके पर दुःख और सुख में
आखिर तो बनकर पत्नी कर दिया समर्पण सम्पूर्ण समर्पण…
लेकिन तुम आगे न बढ़ सके
कभी देह से मेरी
न जान सके कभी मन को
जाना तो सिर्फ तन को ….
हां सिर्फ तन को…
एक दासी की भांति
मुझमे सिर्फ समर्पण ही तो खोजते रहे जीवन पर्यन्त…
मन से तुम्हारी न होकर भी तुम्हारी बनी रही सिर्फ तन से
आखिर एक स्त्री ही तो हूँ
हां सिर्फ एक स्त्री…

– रश्मि डी जैन
महासचिव, आगमन साहित्यक संस्थान
नयी दिल्ली

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