चांदनी रात थी वो
देख रहा था मैं चाँद को
टकटकी लगाए
लो छुप गया चाँद भी बदलियों में
दिल में लिए सिलसिला तुम्हारी यादों का
सोचता रहा तुम्हें नींद के आगोश में चले जाने तक
महसूस करता रहा तुम्हे प्यार से सहलाता रहा
खुशबू तुम्हारे बदन की करने लगी मदहोश मुझे
जुल्फे घनेरी में छुपने लगा था चाँद मेरा
समीर के हर झोंके के साथ
मिलती रही आहट तुम्हारे आने की
पर तुम न आई
करते करते इंतज़ार तुम्हारा
दस्तक दे दी भोर की लालिमा ने
ये दिल भी कितना पागल है
जो तुम्हारे प्यार में
दिनरात करता है इंतज़ार
आ जाओ.. एक बार आ भी जाओ न
न कराओ और इंतज़ार…
रश्मि डी जैन
महासचिव, आगमन साहित्यक संस्थान
नई दिल्ली