राती जगा क्यूँ देते हैं?

डॉ. अशोक मित्तल
डॉ. अशोक मित्तल
भौतिक विज्ञान के नियमों पर ध्यान दें तो ऊर्जा अपना स्वरुप बदल सकती है, पदार्थ अपने रंग रूप बदल सकते हैं लेकिन कभी नष्ट नहीं होते. ऊर्जा निरंतर किसी न किसी माध्यम में, किसी न किसी रूप में बहती रहती है.
कल रात को घर में राती जगा था जो पितरों को समर्पित था. वैसे तो मैं इस तरह के राती जगा का बचपन से साक्षी रहा हूँ लेकिन इस बार मेरे मन में ये ख्याल आया की ये राती जगा क्यूँ देते हैं? क्या इसके करने से वाकई हमारे पितरों को हमारी आवाज़, हमारी प्रार्थना या हमारी अरदास सुनाई पड़ती है.
तारा जीजी, शशि, व कल्पना के साथ डॉ.शशि, टीना ये सब लोग गीत गा रहे थे.
जिन्हें सुनते सुनते मेरे कान इन गीतों की मिली जुली आवाजों में मम्मी की आवाज ढूँढने लगे. वो आवाज जो हमेशा राती जगों में, बधाई के गीतों में, शादी ब्याह में, बेटी की बिदाई के समय ब्याई सगों को संगीत मय गालियाँ सुनाने में, तथा भजनों में कीर्तनों आदि में बुलंदी, मिठास और लय लिए हुए छाई रहती थी. वो आवाज एक अग्रणी आवाज होती थी और बाकी सब लोग उसमें अपनी आवाज जोड़कर एक कर्ण प्रिय कोरस का निर्माण कर देते थे.
भौतिक विज्ञान के नियमों पर ध्यान दें तो ऊर्जा अपना स्वरुप बदल सकती है, पदार्थ अपने रंग रूप बदल सकते हैं लेकिन कभी नष्ट नहीं होते. ऊर्जा निरंतर किसी न किसी माध्यम में, किसी न किसी रूप में बहती रहती है. तो इस वैज्ञानिक सिद्धांत को मानें तो पितरों की उर्जा भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में विश्यमान है. उस उर्जा का आह्वान जब हम किसी प्रायोजन से करते हैं तो हमारी अह्व्वाहन की वो ऊर्जा गीतों से, विचारों से उस ऊर्जा से जरूर टकराती होगी जिसके जवाब में हमें एक संतोष का एहसास होता है. मन हल्का हो जाता है और सोच ये रहती है की हमने प्रार्थना कर दी है अब पितरों की जैसी इच्छा.
राती जगा क्यूँ देते हैं? इस सवाल के कुछ और जवाब कल रात मिल रहे थे, जैसे की राती जगा में पितरों के कई विशिष्ट गुण हमारे मानस पटल पर आ जाते हैं जिनसे हम प्रेरणा ले सकते हैं. (जैसे की मम्मी के गीत). उनकी दी हुई सीख याद आ जाती है जो उन्होंने हमें किसी संकट से उबारते वक़्त दी थी. और सबसे बड़ी बात अच्छे संस्कारों की नीव पढ़ना भी इसका एक प्रतिफल है. आज जहाँ भौतिक संसाधनों की जुगाड़ में लोग अपने जीवंत माँ बाप की सेवा करने से कतराते हैं वहीं इस युग में पितरों को याद करना उच्च कोटि के संस्कारों की श्रेणी में गिना जा सकता है.
हम जब पैदा हुए थे तो हमें वो संसाधन मिले जिन्हें उन्होंने अपनी दिन रात की मेंहनत से संजोये थे. याने जब मंदिर का घंटा बजाने को हमारे नन्हे हाथ उसे बजाने को लालायित रहते तो वे हमें अपने कन्धों पर चढ़ा कर उस ऊंचाई तक ले जाते थे जहां से हम उस घंटे को छू कर बजा पाते थे. माँ – बाबूजी (मेरे दादा दादी) के साथ जब में बिजय नगर कोटन मील में रहता था, चोथी कक्षा में पड़ता था तो हमेशा उन्हें रिटायरमेंट बाद भी मेहनत में लींन देखता था. रात में वे मुझे गणित और अंग्रेजी पढ़ा कर सोते थे और में उनके पैर दबा कर सोता था. हमारे उस घर के चारों तरफ साँपों के बिल थे. आये दिन कोई न कोई सर्प घर में, किचन गार्डन में, बाबूजी के तकिये के नीचे, मेरी साइकिल के आगे बैठा दिख जाता था.
तो बाबूजी के सिखाये हुए पहाड़े (तीन एकम तीन, चार एकंम चार) और अंग्रेजी की ग्रामर ने ही शायद मेरा आगे चल कर डॉक्टर बनने का मार्ग प्रशस्त किया. याने उनके ज्ञान का संचार मेरे में हुआ. तो उनकी ऊर्जा उस ज्ञान के रूप में मेरे में भी समाई हुई है. इन रहस्यों को इसी तरह से अच्छे रूप में समझना ही लाभकारी होता है वरना घमंड के आगे व्यक्ति सोचने लगता है की जो कुछ उसके पास आज है उसमें किसी अन्य का कोई योगदान नहीं. तो ऐसों का क्या हश्र होता है ये भी जग जाहिर है.
सामूहिक रूप से परिवार के सदस्य एक साथ बैठकर जब प्रार्थना, पूजा, कीर्तन, जगराता, रातिजगा करते हैं तो आपसी जुडाव बना रहता है, और एक उद्देश्य की पूर्ती के लिए सब मिलजुल कर उसे प्रतिपादित करने में जुट जाते हैं.
इन्ही कुछ स्पष्ट विचारों और कुछ अस्पष्ट सवालों जवाबों के साथ मेरा ये ब्लॉग पितरों को आदर व धोक सहित समर्पित !!

डॉ. अशोक मित्तल

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