नीति और नियमों का सरलीकरण जरूरी

ललित गर्ग
ललित गर्ग
कालेधन एवं भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिये नीति एवं नियमों का सरलीकरण जरूरी है। नीति आयोग के अध्यक्ष अरविंद पानगड़िया ने इसी बात की आवश्यकता व्यक्त करते हुए कहा कि जटिल टैक्स नियमों को सरल बनाने और टैक्स दरों को कम करने का काम प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए, नोटबंदी का उद्देश्य तभी सफल होेगा। सत्ता के शीर्ष लोग भले ही अपने आपको चाणक्य और चन्द्रगुप्त समझते हैं जबकि चाणक्य जनता होती है। इसीलिये नये-नये एवं जटिल कानून बनाने से समस्याओं का समाधान नहीं होता, बल्कि वे और जटिल हो जाती है। जितने कड़े कानून बनते है, उतने ही उन कानूनों से बचने के रास्ते निकल जाते हैं। सक्षम एवं सफल शासन वहीं होता है जिसमेें कानून कम-से-कम होते हैं। शतरंज की चर्चा अक्सर होती रहती है। नोटबंदी में भी पूरा देश शतरंज की बिसात बना हुआ है और सब अपने-अपने मोहरे और अपनी-अपनी चालें चल रहे हैं। शतरंज में घोड़ा टेढ़ा और हाथी सीढ़ा चलता है। हम मोहरों को दोष नहीं दें। मोहरे चलते नहीं चलाए जाते हैं। नोटबंदी में भी कालेधन को सफेद करने एवं कानूनों की धज्जियां उड़ाने की चाले चली जा रही है।
आज विश्व की सर्वाेच्च लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत की सर्वोच्च संस्था संसद भी शतरंज बना हुआ है, जहां बड़ी राजनीतिक शक्तियां-दल अपने ‘वीटो’ अधिकार का उपयोग करते हुए नोटबंदी के नाम पर संसद को ठप्प करने की अपनी चालें चल रही हैं। जो अपने घोड़े, ऊंट और हाथी बचाने के लिए प्यादे को आगे कर राजनीतिक मूल्यों को मर जाने दे रहे हैं।
सत्ता पक्ष की चालें तो इतनी ज़बरदस्त हैं कि वे अपने नुस्खांे और दाव से अपने राजनीतिक हितों को साधते हुए राष्ट्र की नीतियां ही बदल रहेे हैं।
काले और सफेद मोहरे शतरंज की फर्श पर ही आमने-सामने नहीं होते, पूरे राष्ट्र में इस समय काले और सफेद धन में बंटी हुई है। कुछ लोग कालेधन का विरोध करते हुए नोटबंदी से खड़ी हुई समस्याओं से लड़ रहे हैं तो कुछ कालेधन को सफेद करने की जुगाड़ में सारे नीति और नियमों को ताक पर रख रहे है। शतरंज की एक विशेषता है कि राजा कभी अकेले से शिकस्त नहीं खाता और यही हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं।
सरकार का ध्यान कालेधन और कालाबाजारी पर है पर उसकी कुछ चालें उल्टी पड़ रही हैं। कोई दल कालेधन पर मन मौन रहकर भ्रष्टाचार विरोध के नारे जोर-जोर से लगा रहा है तो कोई सरकार की नोटबंदी की चाल पर ही शह देने की सोच रहा है। शतरंज में सफेद मोहरों की चाल पहले होती है और एक चाल की वरीयता मायने रखती है। ठीक इसी सोच पर सभी दल भ्रष्टाचार मुक्त शासन के मुद्दे में आगे रहना चाहते हैं। पर शुरूआत किस चाल से करें, जिसकी काट नहीं हो, यह बहुत कम लोग जानते हैं। सरकार, विरोधी दल, नेता, उद्योगपति, बहुराष्ट्रीय संस्थान नामुमकिन निशानों की तरफ देश की जनता को दौड़ा रहे हैं। यह जनता के साथ नाइन्साफी है। क्योंकि ऐसी दौड़ आखिर जहां पहुंचती है वहां कामयाबी की मंजिल नहीं, बल्कि मायूसी का गहरा गड्ढा है। नोटबंदी निराशाओं के गर्त में धकेलने का माध्यम न होकर आशाओं की भोर हो, यह जरूरी है।
कितना अच्छा होता कि पानगड़िया नीति एवं नियमों के सरल होने की जरूरत का रेखांकन नीति आयोग की कमान संभालने के तत्काल बाद करते। टैक्स नियमों की जटिलता को दूर करने और उनकी दरों को कम करने की बात एक लंबे अर्से से की राजनीतिक मोर्चों पर एवं विशेषज्ञों के द्वारा की जा रही है, लेकिन किन्हीं कारणों से इस ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया। हैरत की बात यह है कि यह जानते हुए भी टैक्स ढांचे को सरल बनाने का काम नहीं किया गया कि इन नियमों की जटिलता के कारण भी काला धन पैदा होता है और भ्रष्टाचार पनपता है। देखने में आता है कि कुछ मदों में आवश्यकता से अधिक टैक्स भी लोगों को उनसे बचने के तौर-तरीके अपनाने के लिए विवश करता है। जितने कड़े कानून बनाये जाते है, उतनी ही अफसरशाही भ्रष्ट हसेती चली जाती है। जहां नियमों की पालना व आम जनता को सुविधा देने में अफसरशाही ने लाल फीतों की बाधाएं बना रखी हैं। प्रशासकों की चादर इतनी मैली है कि लोगों ने उसका रंग ही काला मान लिया है। अगर कहीं कोई एक प्रतिशत ईमानदारी दिखती है तो आश्चर्य होता है कि यह कौन है? पर हल्दी की एक गांठ लेकर थोक व्यापार नहीं किया जा सकता है। नौकरशाह की सोच बन गई है कि सरकारी तनख्वाह तो केवल टेबल-कुर्सी पर बैठने के लिए मिलती है, काम के लिए तो और चाहिए।
नोटबंदी एक कठोर एवं ऐतिहासिक निर्णय था, लेकिन जिस उद्देश्य से इसे लागू किया गया, वह उद्देश्य अधूरा ही रहता हुआ दिख रहा है। सरकार और उसके नीति-नियंताओं को इसका भी आभास होना चाहिए था कि नोटबंदी के बाद बड़ी संख्या में लोग अपने काले धन को सफेद करने की कोशिश कर सकते हैं। अब स्थिति यह है कि इस कोशिश में आयकर विभाग के साथ-साथ बैंकों के भी कई अधिकारी-कर्मचारी लिप्त दिखाई दे रहे हैं। चूंकि इसकी भरी-पूरी आशंका है कि सभी जरूरी कदम नहीं उठाए गए इसलिये नए सिरे से काला धन पैदा होने की संभावनाएं व्यापक है इसलिए सरकार को सभी मोर्चो पर एक साथ सक्रिय होना पड़ेगा। इसमें जितनी देरी होगी उतना ही नुकसान उठाना पड़ सकता है। जिस तरह सरकार ने आनन-फानन में आयकर कानून में संशोधन का फैसला किया उसी तरह उसे जटिल टैक्स नियमों को सरल बनाने का कदम उठाना होगा और साथ ही ऊंची टैक्स दरों को भी कम करना होगा। ऐसे ही उपायों से आयकरदाताओं की संख्या बढ़ाने में मदद मिलेगी। इसका कोई औचित्य नहीं कि सवा अरब की आबादी वाले देश में मुश्किल से ही तीन-चार प्रतिशत लोग टैक्स देते हैं।
नीति आयोग के अध्यक्ष की सलाह पर कम से कम अब तो सरकार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। और भी अच्छा होता कि यह काम नोटबंदी के पहले ही कर लिया जाता। यदि ऐसा कर लिया गया होता तो न तो किसी को भनक लगने वाली थी कि अगले कदम के रूप में सरकार नोटबंदी का फैसला ले सकती है और न ही उसे इस आशंका से दो चार होना पड़ता कि कर राजस्व के संग्रह में कमी आ सकती है। नीति आयोग के प्रमुख का यह कहना महत्वपूर्ण है कि टैक्स नियमों को इतना सरल एवं स्वचालित कर दिया कि टैक्स नियम कर-अधिकारियों के विवेक पर आश्रित न हों, बल्कि अपने आप में इतने स्पष्ट हों कि करदाता को किसी जटिलता का अहसास भी न हो। इसी तरह उनकी इस सलाह पर भी गौर किया जाना चाहिए कि स्टांप ड्यूटी पूरे देश में एक जैसी नहीं है और इसकी दर इतनी अधिक है कि लोग उससे बचने की कोशिश करते हैं।
चूंकि नोटबंदी के चलते हर स्तर पर आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियां ठहर-सी गई हैं इसलिए टैक्स संग्रह में कमी स्वाभाविक ही है। इसी तरह यदि सरकार ने नकदी रहित लेन-देन को भी पहले ही बढ़ावा दिया होता तो आज उसे लोगों को लेन-देन में नकदी के कम से कम इस्तेमाल के लिए प्रेरित करने पर इतना अधिक जोर नहीं देना पड़ता। यह समझना कठिन है कि सरकार ने नोटबंदी सरीखा बड़ा और सारे देश को प्रभावित करने वाला फैसला लेने से पहले सभी जरूरी कदम उठाने पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
सचमुच! यह समय उन लोगों के लिये चुनौती है जिन्होंने अब तक औरों की बैशाखियों पर लड़खड़ाते हुए चलने की आदत डाल रखी है। जिनकी अपनी कोई मौलिक सोच नहीं, कोई मौलिक दिशा नहीं, कोई मौलिक संकल्प नहीं, कोई मौलिक सपना नहीं, कोई सार्थक प्रयत्न नहीं। यही समय जागने का है। बहुत सो लिये। अब जागकर नहीं उठे तो जिन्दगी का स्वर्णिम अवसर दरवाजे पर दस्तक देकर भी लौट जाएगा। फिर शेष बचेगा समय पर न उठने का पश्चात्ताप।
जरूरत है देश को ऐसी नीति और नियमों की सौगात देने की जो सहज ही जीवन का हिस्सा बन जाये। उन भूलों को न दोहराये जिनसे हमारी ईमानदारी एवं नैतिकता जख्मी हुई। जो सबूत बनी हैं हमारे असफल प्रयत्नों की, अधकचरी योजनाओं की, जल्दबाजी में लियेे गयेे निर्णयों की, सही सोच एवं सही कर्म के अभाव में मिलने वाले अर्थहीन परिणामों की।
ईमानदारी और नैतिकता शतरंज की चालें नहीं, मानवीय मूल्य हैं। जिन्हें राजनीति से नहीं, नेक-नियति से ही लागू किया जाना चाहिए।

(ललित गर्ग)
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