फारुख अब्दुल्ला को क्यों चाहिए आजादी ?

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
डॉ. मोहनलाल गुप्ता
भारत की आजादी से 10 साल पहले जन्मे फारुख अब्दुल्ला अब 80 वर्ष के हो चुके हैं। भारत की आजादी से ज्यादा वर्षों की उनकी आयु हो चुकी है। 1980 में वे राजनीति में आए तथा पहली बार भारत की लोकसभा में सदस्य चुने गए। अपने पिता शेख अब्दुल्ला के मरने पर 1982 में वे कश्मीर प्रांत के पहली बार मुख्यमंत्री बने। फारुख अब्दुल्ला की माँ बेगम अकबर जहान मूलतः यूरोपीय पिता की संतान थीं। उन्होंने फारुख अब्दुल्ला को जन्म देने के अलावा दो बार भारत की लोकसभा में कश्मीर का प्रतिनिधित्व भी किया। अकबर जहान के यूरोपीय पिता अंग्रेजी भारत में होटलों की एक शृंखला के मालिक थे। अकबर जहान ने अंग्रेजी भारत तथा स्वतंत्र भारत की धरती पर 93 वर्ष की लम्बी जिंदगी व्यतीत की। शेख अब्दुल्ला की पत्नी होने के कारण उन्हें मादरे मेहरबान ए कश्मीर कहा गया।
अपने 27 साल के राजनीतिक जीवन में फारुख अब्दुल्ला कई बार जम्मू-कश्मीर विधान सभा के सदस्य तथा मुख्यमंत्री रह चुके हैं। वे मनमोहन सिंह सरकार में केबीनेट मंत्री भी रहे। फारुख के पुत्र उमर अब्दुल्ला को भी विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री तथा अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विदेश राज्यमंत्री रहने का मौका मिला। अब्दुल्ला परिवार स्वयं को कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में ठीक वैसा ही मानता है जैसा कि भारत के परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू के परिवार को देखा जाता है। हालांकि यह अलग बात है कि भारत संसार के नक्शे पर सबसे बड़े देशों में शामिल होता है जिसका कि जम्मू-कश्मीर एक छोटा सा प्रांत है। अब्दुल्ला परिवार की इन दिनों ठीक वैसी ही स्थिति है जैसी कि इन दिनों भारत में जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक उत्तराधिकारियों की चल रही है। नेहरू-गांधी परिवार की तरह अब्दुल्ला परिवार को भी पीढ़ी-दर पीढ़ी सत्ता सुख भोगने से सत्ता की ऐसी चाट लगी है कि अब, बिना सत्ता के बैठना उनके लिए असहनीय है। इस कारण जिस प्रकार नेहरू के राजनीतिक उत्तराधिकारी राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जाकर कन्हैया के साथियों द्वारा मांगी जा रही आजादी का समर्थन करते रहे हैं, ठीक उसी प्रकार फारुख अब्दुल्ला भी कश्मीरी पत्थरबाजों की भारत से आजादी की मांग का समर्थन करते आए हैं।
21 जुलाई को राहुल गांधी ने अपना एक पुराना वक्तव्य दोहराते हुए कहा है कि कश्मीर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा एनडीए सरकार की नीतियों की वजह से जल रहा है। यह संयोग नहीं हो सकता कि 21 जुलाई को ही फारुख अब्दुल्ला ने भी अपने पुराने बयान को दोहराते हुए कहा कि भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए अमरीका तथा चीन की मध्यस्थता के प्रस्तावों को स्वीकार किया जाना चाहिए। हालांकि राहुल ने फारुख अब्दुल्ला के उस वक्तव्य को नकार दिया जिसमें तीसरे देश की मध्यस्थता का प्रस्ताव दिया गया है। राहुल के लिए ऐसा करना इसलिए भी आवश्यक हो गया कि इंदिरा गांधी के समय से ही शिमला समझौते के अनुसार कांग्रेस इस नीति पर चल रही है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और कश्मीर समस्या का निस्तारण इन दोनों देशों की आपसी बातचीत से होना चाहिए न कि किसी अन्य पक्ष की मध्यस्थता से।
जिस आजादी की मांग का समर्थन फारुख अब्दुल्ला इन दिनों कर रहे हैं, ऐसी आजादी उन्हें और उनकी औलादों को भारत के अतिरिक्त और कहाँ मिलती! उनकी तीन पीढ़ियां, घर के बूढ़े, बच्चे और औरतें तक एमएलए, एमपी, मिनिस्टर, चीफ मिनिस्टर रह लिए। अब आजादी में क्या घाटा रह गया है! वे कौनसी आजादी की मांग कर रहे हैं। क्या वे अलग देश का निर्माण करके पाकिस्तान के उस स्वप्न को पूरा करना चाहते हैं जिसमें कश्मीर को भारत से उसी प्रकार अलग करने की योजना है जिस प्रकार पूर्वी पाकिस्तान बांगला देश के नाम से अलग देश बना! यदि फारुख अब्दुल्ला ऐसा चाहते हैं तो इससे अधिक घृणित बात और हो ही नहीं सकती। यदि फारुख ऐसा नहीं चाहते हैं तो वे खुलकर बताएं कि उनके मन में क्या है ? वे चीन और अमरीका की मदद से कश्मीर समस्या का क्या समाधान करवाना चाहते हैं?
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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