अर्थ एवं विकास के असन्तुलन से उपजी समस्याएं

lalit-gargपैसे के बढ़ते प्रवाह में दो तरह की स्थितियां देखने को मिल रही है। एक स्थिति में अर्थ के सर्वोच्च शिखरों पर पहुंचे कुछ लोगों ने जनसेवा एवं जन-कल्याण के लिये अपनी तिजोरियां खोल रहे हैं तो दूसरी स्थिति में जरूरत से ज्यादा अर्जित धन का बेहूदा एवं भोंडा प्रदर्शन कर रहे हैं। जहां कुछ वैभवसम्पन्न घराने आदर्श बन रहे हैं तो वहीं कुछ तिरस्कार की दृष्टि से देखे जा रहे हैं। अर्थ एवं विकास के असन्तुलन से अनेक समस्याएं पैदा की है और उन्हीं से आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद पैदा होते हैं। इसी से भ्रष्टाचार एवं आर्थिक अपराध पनपे हैं। इसी से राम-रहीम जैसे तथाकथित धर्मगुरुओं का साम्राज्य एक गाली बनकर सामने आया है।
हमने आजाद भारत के विकास में कितना सफर तय किया है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि हम अब भारत को कैसा बनाना चाहते हैं। हमारा सफर लोकतन्त्र की व्यवस्था के साये में निश्चित रूप से सन्तोषप्रद रहा है लेकिन अब हमें ऐसा भारत निर्मित करना है जिसमें सबका संतुलित विकास हो, संतुलित आर्थिक व्यवस्था हो, अर्थ का भौंडा एवं हिंसक प्रदर्शन न हो। नया इंडिया के लिए कुछ महत्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त करने के लिये आर्थिक विसंगतियों पर नियंत्रण राष्ट्रीय संकल्प बने। नया इंडिया के बड़े स्पष्ट मापदंड भी हों, जैसे सबके लिए दो वक्त की रोटी, तन ढंकने के लिये वस्त्र एवं सिर पर छप्पर। नया इंडिया हमारे डीएनए में रचे-बसे मानवतावादी मूल्यों को समाहित करे और गरीब और अमीर के बीच की दूरियों को पाटा जाये। नया इंडिया का समाज ऐसा हो, जो तेजी से बढ़ते हुए संवेदनशील भी हो। ऐसा संवेदनशील समाज, जहां पारंपरिक रूप से वंचित लोग, देश के विकास प्रक्रिया में सहभागी बनें और अपना समग्र विकास करें। ऐसे नया इंडिया का निर्माण हो जहां हर व्यक्ति को सम्मानपूर्वक जीने का हक मिले, कोई भी गरीबी के कारण मरने को विवश न हो, चाहे वह किसान हो या मेहनत करने वाला मजदूर। भारत का मूल निवासी होने वाले नागरिक को अपने ही देश में परायापन, तिरस्कार, शोषण, अत्याचार, धर्मान्तरण, अशिक्षा, साम्प्रदायिकता और सामाजिक एवं प्रशासनिक दुर्दशा के शिकार होना पड़े, यह एक बड़ी त्रासदी है। धनाढ्य लोग मानवीय गरिमा को प्रतिदिन तार-तार करते हुए दिखाई दे, यह विकास नहीं, विनाश का द्योतक है।
भारत में प्रति व्यक्ति सालाना औसत आय पैंतालीस हजार बताई जाती है। गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लगभग कुल आबादी के पैतीस प्रतिशत लोगों की सालाना आय पांच-दस हजार रुपये से अधिक नहीं है। दीपावली, होली, क्रिसमस, गुरुपर्व हो या नय वर्ष के स्वागत के जश्न- महानगरों ही नहीं छोटे कस्बों तक मे जो प्रदर्शन होते हैं, उनमें बड़े लोगों की बात छोड़ दे तो एक सामान्य आय वाले बड़े वर्ग के लोग भी हजारों रुपये खर्च करते हैं। ऐसे ही वैभव प्रदर्शन के आयोजनों में सहारा परिवार सबसे आगे रहता है? तब उसका आदर्श भारत निर्माण का सपना कहां चला जाता है? सबसे बड़े धनाढ्यों में शुमार होने वाला कोई व्यक्ति पांच प्राणियों के रहने के लिये पांच हजार करोड़ की लागत से घर बनाता है तो कोई करोड़ों-करोड़ो रुपये एक शादी में खर्च करके क्या जताना चाहते हैं। वे इतनी बड़ी रकम से कोई आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर सकते थे, जैसा कि अमेरीका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, वाॅरेन बफेट, कम्प्यूटर जगत के बादशाह बिल गेट्स, अजीम प्रेमजी आदि ने किया है। इन लोगों ने दुनिया से गरीबी दूर करने, सेवा एवं जनकल्याण के लिये, शिक्षा और चिकित्सा के लिये अपने अर्जित धन का विसर्जन किया है। संतुलित समाज निर्माण के सपने को आकार देने की दिशा में कदम बढ़ाये है।
‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ भजन में नरसी मेहता ने एक बात अच्छी प्रकार से कह दी है। ‘पर दुःखे उपकार करे’ कह कर वे रुक गए होते, तो वैष्णव जनों की संख्या बहुत बढ़ जाती है। ‘पर दुःखे उपकार करे तोए मन अभिमान न आणे रे’ कह कर नरसी मेहता ने हम सब में छिपे सूक्ष्म अहं को विगलित करने की चेतावनी दी है। पैसे का अहं तो शैतान से भी ज्यादा खतरनाक होता है। विषमता गरीबी को बढ़ा कर ही बढ़ सकती है और साथ ही जब हाथ में एकाएक जरूरत से ज्यादा पैसा आता है तो भोंडापन एवं अहं अपने आप बढ़ता है। इस प्रकार के पैसे और उसके कारण जो चरित्र निर्माण होता है उससे देश मजबूत नहीं बल्कि कमजोर होता है। इस प्रकार बढ़ते नव-धनाढ्यों की लम्बी सूची और उनके भोंडेपन को किसी भी शक्ल में विकास तो कहां ही नहीं जा सकता। इसी तरह के नव-धनाढ्यों और धन का हिंसक एवं भौंडा प्रदर्शन करने वालों के लिये आचार्य श्री तुलसी ने ‘निज पर शासन फिर अनुशासन’ एवं ‘संयमः खलु जीवनम्- संयम ही जीवन है’ का उद्घोष दिया था।
भगवान महावीर ने कहा था कि संसार में लोक कल्याण, विश्वशांति, सद्भाव और समभाव के लिये अपरिग्रह का भाव जरूरी है। यही अहिंसा का मूल आधार है। परिग्रह की प्रवृत्ति अपने मन को अशांत बनाती है और हर प्रकार से दूसरों की शांति को भंग करती है। लेकिन आज बड़ा राष्ट्र छोटे राष्ट्र को हड़पना चाहता है, हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगल रही है। धनवान व्यक्ति परिग्रह और अहं प्रदर्शन के द्वारा असहायों एवं कमजोरों के लिये समस्याएं पैदा करता है। यह संसाधनों पर कब्जा ही नहीं करता बल्कि उसका बेहूदा प्रदर्शन करता है, जिससे मानसिक क्रोध बढ़ता है और हिंसा को बढ़ावा मिलता है। महावीर ने इसलिये एक-दूसरे के सहायक बनने की बात कही। उन्हीं के दिये उपदेशों से निकला शब्द है ‘विसर्जन’। समतामूलक समाज निर्माण के लिये जरूरी है कि कोई भी कितना ही बड़ा व्यवसायी बने, लेकिन साथ में अपरिग्रहवादी भी बने। अर्जन के साथ विसर्जन की राह पर कदम बढ़ाये। डा. अच्यूता सामंता ने कलिंगा विश्वविद्यालय के रूप में उच्च शिक्षा के बड़े गढ़ स्थापित किये तो उससे होने वाली आय को आदिवासी गरीब बच्चों के कल्याण में विसर्जित किया। 12 हजार से अधिक गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने वाले सामंता आज भी एक चट्टाई पर सोते हैं उनका कोई आशियाना नहीं है। इसी भांति गणि राजेन्द्र विजयजी अपनी संतता को सार्थक करते हुए आदिवासी कल्याण के लिये अनेक योजनाएं संचालित कर रहे हैं, उनका भी कोई भव्य आश्रम नहीं है। ऐसे ही प्रयत्नों से हम भारत कोे विकसित होते हुए देख सकते हैं।
गांधीजी ने अहमदाबाद में आश्रम शुरू किया, तब एक समय आर्थिक तंगी के कारण आश्रम बन्द करने की नौबत आयी। गांधीजी मंथन कर रहे थे और आश्रम बन्द होगा, यह बात निश्चित लग रही थी। एक शाम एक सर्वथा अनजाना व्यक्ति आया और रुपयों की एक थैली देकर, साबरमती के अन्धकार में अदृश्य हो गया। आज तक यह पता नहीं लग सका कि ‘व्यक्ति’ कौन था। आश्रम अगर चालू रह सका, तो उस व्यक्ति के कारण। निःस्वार्थ, सहज, सात्विक उपकार ऐसा होता है। सही रूप में विसर्जन, बिना किसी अपेक्षा के। ऐसा उपकार मनुष्य पर प्रकृति पल-पल करती रहती है। सूर्य, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं जंगलों की तरफ से सतत् होता रहता है–तभी हमारा जीवन है/हम जिन्दा हैं।
रेल में या बस में थोड़ा सिकुड़ कर अगर आप किसी के लिए जगह बना देते हैं तो एक विशेष प्रकार के आनन्द और संतोष की अनुभूति होती है। स्मरण कीजिए, भूतकाल में कई बार आपके लिए किसी ने इसी प्रकार जगह बना दी थी। आज आप उनका नाम व चेहरा भी भूल गये होंगे। यह दुनिया भी एक रेल है। यहां भी ऐसे ही किसी अनजान के लिए ‘थोड़ा संकोच करें बिना किसी अपेक्षा के’, पेड़ अगर फल देता है तो क्या आपसे ‘थैंक्यू’ की भी अपेक्षा करता है?’ सचमुच देने का सुख अप्रतिम है। कृतज्ञता अहंकार का विसर्जन है। उपकार का आनन्द अनुभव करना है तो आपने जो किया उसे जितनी जल्दी ही भूल जाएं और आपके लिए किसी ने कुछ किया, उसे कभी न भूलें, यही नये भारत को आदर्श स्थिति प्रदत्त कर सकेगा। आज जरूरत है हर समर्थ आदमी अपने से कमजोर का सहायक बने। तकलीफ तब होती है जब इसका उल्टा होता है।
(ललित गर्ग)
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