मधुमक्खी शहद बनाती ,
पर कभी लड़ जाती है ।
छोटों से मसखरी कभी ,
महँगी पड़ जाती है ।
बाबाओं का देश है ये ,
भक्ति भी अंधी है ।
पर्दा जब उठता है तब,
आँखें झुक जाती है ।
बहुत बड़ा है घर उनका ,
पर दिल छोटा सा है ।
लक्ष्मी भी उनके द्वारे ,
आकर पछताती है ।
वादों की बरसात हुई ,
बरसी इक बूँद नहीं ।
जनता तो हर बार यहाँ,
प्यासी रह जाती है ।
बजट पास होता आया ,
पैसा भी उठता है ।
अफ़सर और दलालों की,
जेबें भर जाती है ।
मंदिर और शिवालय तो ,
मिलजुलकर रहते हैं ।
चंद सिरफिरों के कारण,
दूरी बढ़ जाती है ।
– नटवर पारीक, डीडवाना
9414548148