पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी से जुड़े सवाल

lalit-gargहाल के दिनों में पेट्रोल और डीजल की कीमत साल 2014 के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें तीन साल पहले के मुकाबले आधी रह गई हैं, बावजूद इसके देश में पेट्रोल, डीजल की कीमत लगातार बढ़ती जा रही है। पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर आम-आदमी की थाली पर पड़ता है। गरीबांे के साथ यह क्रूर मजाक है। महंगाई बढ़ने का कारण बनता है पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी होना। इससे मध्यम एवं निम्न वर्ग के लोगों की हालत तबाही जैसी हो जाती है, वे अपनी परेशानी का दुखड़ा किसके सामने रोए? बार-बार पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाना सरकार की नियत में खोट को ही दर्शाता है, इस तरह की सरकार की नीति बिल्कुल गलत है, शुद्ध बेईमानी है। इस तरह की नीतियों से जनता का भरोसा टूटता है और यह भरोसा टूटना सरकार की विफलता को जाहिर करता है।
जिसके पास सब कुछ, वह स्वयंभू नेता और जिसके पास कुछ नहीं वह निरीह जनता। इसी परिभाषा ने तथाकथित नेताओं को बडबोला बना दिया है, पेट्रोल और डीजल के बढ़े दामों की नाराजगी के बीच नए बने केंद्रीय पर्यटन राज्यमंत्री अल्फोंस कनन्नथानम ने ऐसा बयान दिया है जो जले पर नमक छिड़कने का काम कर रहा है। उन्होंने कहा कि पेट्रोल-डीजल खरीदने वाले लोग कोई भूखे रहने वाले नहीं हैं, वे कार और मोटरसाइकिलों से चलते हैं। उन्हें डीजल और पेट्रोल का पैसा खर्च करने में क्यों तकलीफ होनी चाहिए। तेल की कीमत बढ़ाने का फैसला सरकार ने जानबूझ कर किया है। इससे मिलने वाले राजस्व का उपयोग गरीबों के लिए आवास, शौचालय बनाने और बिजली पहुंचाने पर खर्च किया जाता है। यह तर्क इसलिए लोगों के गले नहीं उतर रहा कि पहले ही सरकार ने अलग-अलग मदों में कई तरह के उपकर लगा रखे हैं। नोटबंदी के बाद जीएसटी के घाव अभी भरे ही नहीं कि ऊपर से इस तरह के बयान सरकार की तानाशाही को दर्शाता है। देश में ऐसे कितने लोग है जो कारों एवं मोटरसाइकिलों पर चलते हैं? क्या गरीबों के नाम पर गरीबी का मजाक नहीं उडाया जा रहा है? क्या इसका असर किसानों, मजदूरों, गरीबों और मेहनतकशों पर नहीं पड़ेगा? आम जनता पर जबरन लादा जा रहा है इस तरह का भार। अतार्किक ढंग से गलत निर्णयों एवं नीतियों को जायज ठहराने की कोेशिशों से सरकार की छवि खराब ही होती है। आखिर दाम बढ़ाने एवं करों के निर्धारण में कोई व्यावहारिक तर्क तो होना चाहिए।
यह विडम्बनापूर्ण बयान है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने से केवल आम वाहन चालकों पर असर नहीं पड़ता, असर उन पर भी पड़ता है, बजट उनका भी डांवाडोल होता है, परेशान वे भी होते हैं, लेकिन इसका ज्यादा असर आम जनजीवन पर पड़ता है क्योंकि इससे ढुलाई, सार्वजनिक परिवहन और फिर उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ती हैं। अभी जब विकास दर ने नीचे का रुख किया हुआ है और महंगाई ऊपर चढ़ रही है, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें उनसे पार पाने में मुश्किलें ही पैदा करेंगी। कोई भी सरकार स्पष्ट बहुमत में होने का अर्थ यह नहीं कि वह मनमानी करें। मंत्रीजी का यह तर्क कि गरीबों के कल्याण की योजनाओं के लिये यह बढ़ोत्तरी की गयी है, गले नहीं उतरती। क्योंकि पेट्रोल और डीजल से मिलने वाले राजस्व का कितना हिस्सा अब तक गरीबों के उत्थान के लिए उपयोग किया गया है, इसका कोई जवाब शायद उनके पास नहीं होगा।
नेतृत्व की पुरानी परिभाषा थी, ”सबको साथ लेकर चलना, निर्णय लेने की क्षमता, समस्या का सही समाधान, कथनी-करनी की समानता, लोगांे का विश्वास, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता।“ लेकिन अल्फोंस के बयान एवं अतार्किक पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी ने इस परिभाषा पर पानी फेर दिया है। 2014 चुनावों से पहले बीजेपी का नारा था, ‘बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ सरकार बने तीन साल बीत चुके हैं लेकिन जो महंगाई कांग्रेस राज में भाजपा के लिए डायन थी वह अब देवी बन गई है। लगातार महंगाई बढ़ती ही जा रही है लेकिन पता नहीं किन विवशताओं के चलते विपक्ष भी सरकार के खिलाफ मुंह खोलने को तैयार नहीं है। कच्चे तेल की कीमत मनमोहन सरकार की तुलना में आधी हो गई हैं लेकिन मोदी सरकार में लगातार पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। मोदी सरकार की जनलुभावन योजनाओं में इस तेल-नीति ने पलीता लगा दिया है।
जब भाजपा सरकार बनी थी तो तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 6000 रु. प्रति बेरल थी, अब वह 3000 रु. बेरल हो गई है। इस हिसाब से आज भारत में पेट्रोल 30-35 रु. लीटर बिकना चाहिए लेकिन उसे 80 रु. लीटर कर दिया गया है। पेट्रोल पर सवा सौ प्रतिशत और डीजल पर पौने चार सौ प्रतिशत कर ठोक दिया गया है। यह सरासर लूटपाट नहीं है तो क्या है? यूपीए सरकार के समय जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें लगातार बढ़ने की वजह से पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने का फैसला किया गया था, तब भाजपा ने किस तरह संसद में हंगामा किया था। आज के अनेक मंत्री एवं भाजपा नेताओं ने किस तरह विरोध प्रदर्शन किया, फेसबुक पर उन तस्वीरों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। एक बार तो अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद परिसर में बैलगाड़ी पर बैठ कर जुलूस निकाला था। अब जब कच्चे तेल की कीमतें काफी कम हैं, डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ा कर गरीबों के उत्थान का हवाला देना तर्कसंगत नहीं है। जबकि नेताओं और नौकरशाहों की फिजूलखर्ची और ठाठ-बाट में कोई कमी नहीं आई है। सरकार की नीतियों पर संदेह होने लगा है, इन स्थितियों में कैसे नया भारत निर्मित होगा? कैसे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा? देखने में आ रहा है कि सरकार अपनी नीतियों के माध्यम से उच्च वर्ग एवं मध्यम वर्ग पर कठोरता बरत रही है, लेकिन आखिरकार वंचित वर्ग इस कठोरता का शिकार हो रहा है। जनता को अमीर बना देंगे, हर हाथ को काम मिलेगा, सभी के लिए मकान होंगे, सड़कें, स्कूल-अस्पताल होंगे, बिजली और पानी होगा- सरकार की इन योजनाओं एवं नीतियों के जनता मीठे स्वप्न लेती रहती है। कोई भी सरकार हो, जनता को मीट्ठे सपने ही दिखाये जाते हैं, पर यह दुनिया का आठवां आश्चर्य है कि कोई भी सपना या लक्ष्य अपनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं हुआ। नेतृत्व चाहे किसी क्षेत्र में हो- राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, वह सुविधानुसार अपनी ही परिभाषा गढ़ता रहा है। न नेता का चरित्र बन सका, न जनता का और न ही राष्ट्र का चरित्र बन सका। सभी भीड़ बनकर रह गए। लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनने दिया जा रहा है। अपने स्वार्थ हेतु, प्रतिष्ठा हेतु, आंकड़ों की ओट में नेतृत्व झूठा श्रेय लेता रहा और भीड़ आरती उतारती रही। लेकिन इस तरह की स्थितियों में कोई भी राष्ट्र कभी भी मजबूत नहीं बनता।

( ललित गर्ग)
-60, मौसम विहार, तीसरा माला,
डीएवी स्कूल के पास, दिल्ली-51
फोनः 22727486, 9811051133

error: Content is protected !!