आखिर कश्मीर समस्या क्या है?

धर्म साम्राज्य भौगोलिक बाध्यताओं केसम्मुख असहाय हो जाते हैं। भूगोल ही संस्कृतियों का मुख्य कर्ता होता है। कश्मीर के रास्ते में हिंदूकुश पड़ता है। खैबर और बोलन दर्र्रो से आ रहे धर्म साम्राज्य निर्माताओं ने कोशिशें तो कीं, लेकिन वे इलाके का भाग्य नहीं बदल सके। चूंकि अब कश्मीर बड़ी समस्या मान ली गई है तो समाधान आसान कैसे हो सकता है? किसी जमाने में स्कर्वी नाम की भयानक बीमारी से बड़ी संख्या में समुद्री यात्री मरा करते थे। एक मामूली डाक्टर ने बताया कि यह बीमारी नींबू का रस पीने से ठीक हो जाती है। ठीक होने भी लगी, लेकिन इतनी भयंकर बीमारी के इतने आसान इलाज की बात स्वीकार करने में ही सौ साल लगे। आज इस बीमारी के बारे में सुना भी नहीं जाता।

एक सवाल की रोशनी में कश्मीर की समस्या देखी जाए। अगर कश्मीर मतांतरित न हुआ होता, हिंदू या बौद्ध ही बना रहता तो क्या आज कश्मीर समस्या होती? हां, कश्मीर में समस्याएं तो होतीं, रोजगार और गरीबी की, अशिक्षा की और विकास की, जैसे कि बाकी भारत में है, लेकिन कोई कश्मीर-समस्या न होती।

राजनीति जब ईश्वर-अल्लाह के नाम पर चलने लगती है तो जाहिर है वह हमें आज की समस्याओं का समाधान नहीं देती। क्या धर्म ने पाकिस्तान की समस्याओं का समाधान कर दिया है? नहीं, क्योंकि धर्म तो जिंदगी के बाद का रास्ता बनाता है। हमने शोपियां में दो महिलाओं की हत्याओं की प्रतिक्रिया देखी है, जैसे संपूर्ण घाटी में उबाल आ गया हो। वहीं जब दहशतगर्र्दो द्वारा शीराजा की हत्या की गई तो सन्नाटा छा जाता है। अमरनाथ यात्रा की भूमि पर घाटी में हुए आदोलन को भी देखा है। अगर धर्म का फर्क न होता तो क्या ये प्रतिक्रियाएं होतीं?

 हमें मालूम है कि कश्मीर के अलगाववादी आदोलन की असलियत क्या है। अगर कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में चला जाता तो वही सब कुछ पाकिस्तानी भू-स्वामीवर्ग और पाकिस्तानी सेना द्वारा वहां किया जाता, जो कबाइलियों ने 1947 में प्रारंभ किया था। हुर्रियत के बिलाल गनी लोन ने स्वीकार किया है कि ये पैसों पर बिकी कायरों की जमातें हैं। पाकिस्तान का समापन किस रूप में होगा, इसका परिदृश्य सामने आने लगा है। कश्मीर को अपनी आखिरी उम्मीद मानकर वह किसी भी तरह वार्ताओं का दौर प्रारंभ करना चाहता है।
पाकिस्तान से वार्ता करना तो उसके आतंकी और साजिशी स्वरूप को मान्यता देना है। आजादी के आदोलन के अंतिम दौर में कश्मीर को लेकर ब्रिटिश सोच बदल चुकी थी। यही सोच समस्या का कारण बनी।
माउंटबेटन उत्तरी कश्मीर के स्ट्रेटेजिक महत्व से वाकिफ थे। उन्होंने सेनाओं को जानबूझकर उड़ी से डोमेल, मुजफ्फराबाद की ओर नहीं बढ़ने दिया। वह चाहते थे कि गिलगिट बालतिस्तान का क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में रहे, जिससे आगे चलकर सीटो, सेंटो संगठन द्वारा उसका उपयोग सैन्य अड्डों के लिए किया जा सके।
कश्मीर मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाने के प्रस्ताव में उनकी मुख्य भूमिका थी।
शेख अब्दुल्ला जनमत संग्रह के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जनमत संग्रह के प्रस्ताव ने कश्मीर को एक ऐसी ओपेन एंडेड स्कीम का रूप दे दिया जिसमें कभी भी कोई भी निवेश कर सकता है।
शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में चुनावों के बाद पहली विधानसभा में ही भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकृत कराया जिससे जनमत संग्रह का झगड़ा ही खत्म हो जाए।
हिंदू मुसलमान का विवाद खत्म करने के लिए उन्होंने कश्मीरियत की बात की।
इसलिए कश्मीर समस्या के लिए शेख अब्दुल्ला को दोष देना गलत है। भारत के राजनीतिक दलों ने शेख के सामने जो धर्मसंकट था उसे समझने की कोई कोशिश नहीं की।
कश्मीर की इन नकली समस्याओं के कारण जो असल समस्याएं शिक्षा, रोजगार और विकास की हैं, पीछे रह गई हैं। इस जाहिलियत के माहौल ने उन्हें राष्ट्रीय नागरिक नहीं बनने दिया। हम सशक्त देश हैं, पर कमजोरों की तरह व्यवहार करते हैं। गठबंधनों से आ रही सत्ताएं हमारी कमजोरी का मूल स्त्रोत बन गई हैं। घटक दलों के सामने दुम हिलाना और फिर उसी सास में चीन को चेतावनी देना कहां संभव है?

आखिर कश्मीर समस्या क्या है? 
क्या जो समस्या कश्मीर की है वही जम्मू की भी है?
क्या लद्दाख भी वही सोचता है जो घाटी के हुर्रियत नेता चाहते हैं?
जो बात जम्मू के लिए कोई समस्या नहीं वह कश्मीर घाटी के चालीस लाख लोगों के लिए समस्या क्यों है?
यह मूलत: एक मनोवैज्ञानिक समस्या है ‘हिंदू भारत’ के साथ रहने की। वे हमारे 15 करोड़ मुसलमानों से अपने को अलग समझते हैं। कश्मीर घाटी के लोगों को अलगाववादी मानसिकता के हवाले कर दिया गया है। यह मनोविज्ञान जनमत संग्रह के अनायास स्वीकार से पैदा हुआ है। इतिहास में कहीं भी और कभी भी वोट देकर राष्ट्रीयताओं पर निर्णय नहीं हुआ।

यह नेहरू युग का ऐसा फैसला था जो वास्तव में हमारी इस मनोवैज्ञानिक समस्या की जड़ में है। जनमत संग्रह के तर्क की मजबूरी के कारण आज के कश्मीरी नेताओं की भाषा आजादी, स्वशासन, खुदमुख्तारी, संयुक्त शासन आदि शब्दजालों की बन गई है।

पाकिस्तान के रहते उनका धर्मसंकट बरकरार है। जब से पाकिस्तान परमाणु हथियारों से संपन्न हुआ है, हम उसी स्तर के देश रह गए हैं। चीन और भारत यदि बराबर के शक्तिशाली देश होते तो निश्चित ही तिब्बत आज चीन की एक बड़ी समस्या के रूप में होता। हमारी समस्या कश्मीर नहीं, बल्कि पाकिस्तान है।
मनोवैज्ञानिक समस्याओं का इलाज आपरेशन नहीं होता। सशक्त राष्ट्र की तरह व्यवहार करना हमें अपने से बहुत छोटे देशों वियतनाम, इजरायल, ईरान यहां तक कि पाकिस्तान से भी सीखना है। युद्ध अवश्यंभावी है तो युद्ध होगा, लेकिन उसकी आशकाओं से कमजोरों की तरह व्यवहार करना हमें समाधान की ओर नहीं ले जाता।
[आर. विक्रम सिंह: लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं]
jammukashmirrealities.blogspot.in से साभार

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