प्रजातन्त्र पिघल रहा है

महेन्द्र सिंह भेरूंदा
महेन्द्र सिंह भेरूंदा
मेरा प्रजातन्त्र क्यो पिघल रहा है ।
सिँहासन इसे क्यो निगल रहा है ।
फिर से शकुनि ले दुर्योधन को ।
चौसर के लिए क्यों मचल रहा है ।

कानून कयामत के काल चक्र में ।
क्यों आये धर्म धर्म की टक्कर में ।
क्यों सभी ने लांघी लक्ष्मण रेखा ।
इस मनहूस तख्त के चक्कर में ।

क्या बांटोगे तुम ये सूरज चन्दा ।
मत करो वोटों का गोरख धंधा ।
सब कुछ धरा रहेगा इसी धरा पे ।
हो रहा मनुज क्यों लोभ में अंधा ।

रोको समय रहते इस षड्यंत्र को ।
रोको इस विनाश के महामन्त्र को ।
कानो में कहता हमें यह राष्ट्रवाद ।
सुधारो मतदान से तुम इस तंत्र को ।

एक बार आव्हान करो छूमंतर का ।
करो खात्मा हिन्दू मुस्लिम अंतर का ।
पुनः स्थापित करेंगे भाई चारा फिर ।
मिलकर इतिहास लिखेंगे गणतंत्र का ।
महेंद्र सिंह भेरून्दा

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