किस पार्टी में वंशवाद नहीं है ? किस देश में वंशवाद नहीं है ?

देवेन्द्रराज सुथार
देवेन्द्रराज सुथार
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का पार्टी का अध्यक्ष निर्विरोध चुना जाना तय है। क्योंकि नामांकन के लिए अब तक कोई आवेदन दाखिल नहीं हुआ है। गौरतलब है कि वे अपनी मां सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी होंगे जो इस पद पर 19 साल से विराजमान हैं। राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के साथ ही एक बार फिर राजनीति में वंशवाद और आंतरिक लोकतंत्र पर बहस शुरु हो गई है। देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी में एक ही वंश के वर्चस्व को लेकर सियासी दलों सहित आम जनता की ओर से अलग-अलग प्रतिक्रिया सामने आ रही है। इस बीच पार्टी से बगावत के सुर अलाप चुके शहजाद पूनावाला ने तो यह सवाल उठाते हुए राहुल गांधी से पूछा है कि क्या हम किसी फैमिली बिजनेस में हैं ? आपको यह बताते चले कि शहजाद पूनावाला प्रियंका वाड्रा के पति रॉबर्ट वाड्रा के बहनोई तहसीन पूनावाला शहजाद के भाई हैं। शहजाद अक्सर टीवी डिबेट्स में कांग्रेस का पक्ष रखते हुए नजर आते हैं, कई बार वह कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ कार्यक्रमों में दिख चुके हैं। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर जुबानी हमले करते हुए कांग्रेस पार्टी को एक सल्तनत बताया, जहां केवल एक ही परिवार राज कर सकता है। एक विपक्षी के तौर पर प्रधानमंत्री के इस बयान को गलत नहीं कहा जा सकता।

हालांकि, भारतीय लोकतंत्र में वंशवाद का प्रश्न कोई नई बात नहीं है। एक ओर सवाल उठ रहा है कि नये लोगों को भी आगे आने का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए तो वहीं दूसरी ओर सवाल यह भी है कि कांग्रेस के दारोमदार का सही हकदार कौन है ? हम देखें तो गांधी परिवार अपनी पार्टी व विचारधारा को लेकर प्रारंभ से पूर्णतया समर्पित रहा है। भले वे महात्मा गांधी हो या इंदिरा गांधी सभी अपनी हत्या तक पार्टी के प्रति पूर्ण निष्ठावान रहे है। इस बीच उनके ही वंशज राहुल गांधी को पार्टी की कमान दी जाती है तो यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। क्योंकि अपने पूर्वजों का पार्टी के प्रति बलिदान उनको ओर भी पार्टी के सन्निकट ले जाने का काम करेगा। पिता की अनुपस्थिति में नौकर से कई गुना खुद के बेटे द्वारा दुकान के सही चलने के आसार होते है। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के अंदर से कोई ऐसा नेता वर्तमान में निकलकर बाहर नहीं आया है, जिसने राहुल से बेहत्तर पार्टी के लिए काम किया हो। अन्य विकल्प के अभाव में राहुल गांधी का अध्यक्ष बनना उचित प्रतीत होता है। बरहाल, ऐसे भी कांग्रेस की कमान राहुल गांधी के हाथों में है। अभी वह कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं और सारे फैसले वही लेते हैं। वह ऐसे समय में अध्यक्ष बनने जा रहे हैं जब गुजरात के मैदान में राहुल गांधी नरेंद्र मोदी से जूझ रहे हैं। उनके सामने कांग्रेस को लेकर एक नहीं सैकड़ों चुनौतियां हैं। जो हालत कांग्रेस की सोनिया के अध्यक्ष बनने के समय थे उससे कहीं ज्यादा खराब अब है। ऐसे में आशा कि जाने चाहिए कि राहुल कांग्रेस को नाजुक दौर से बाहर निकालने के साथ ही पार्टी के अच्छे दिन लायेंगे और वर्तमान राजनीति को एक मजबूत विपक्ष भी देंगे।

जहां तक बात वंशवाद की है तो किस पार्टी में वंशवाद नहीं है ? किस देश में वंशवाद नहीं है ? एक रिपोर्ट के अनुसार 2014 में जब भाजपा की सरकार बनी तो उसमें तब 15 प्रतिशत सांसद तथा 24 प्रतिशत कैबिनेट मंत्री वंशवादी राजनीति का हिस्सा थे। वहीं एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के अनुसार 34 प्रतिशत से अधिक सांसदो के ऊपर आपराधिक मामले भी दर्ज हैं। एडीआर आगे कहता है “साफ रिकॉर्ड वाले लोगों की तुलना में आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले उम्मीदवारों के जीतने की संभावना लगभग दुगनी होती है।” अगर बात हम महिला सांसदों कि करें तो 2014 में 11.23 प्रतिशत सांसद महिलाएं हैं, जिनमें से ज्यादातर महिलाएं किसी ना किसी प्रकार से वंशवादी राजनीति का हिस्सा हैं। आंकड़ा देखें तो 61 में से 29 महिला सांसद ऐसी हैं जिनके परिवार में उनसे पहले कोई ना कोई राजनीति में था, तो वहीं लगभग 8 प्रतिशत महिला सांसदों का ताल्लुक फिल्मी जगत से है। भारत की पहली महिला प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी, पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल और पहली महिला लोकसभा स्पीकर भी इसी वंशवादी राजनीति से ही हमें मिली हैं। मोतीलाल नेहरु से लेकर राहुल गांधी तक, राजनाथ सिंह से लेके पंकज सिंह तक, लालू से लेके तेजस्वी और तेज प्रताप तक, या मुलायम से अखिलेश तक या कश्मीर के फारूक अब्दुल्लाह और उमर अब्दुल्लाह तक, यह फेहरिस्त काफी लम्बी है। राजनीति में वंशवाद केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। पाकिस्तान में भुट्टो परिवार, नेपाल में कोईराला परिवार, बांग्लादेश में शेख हसीना और खालिदा जिया परिवार, श्रीलंका जयवर्धने और भंडारनायके परिवार, अमेरिका में बुश, केनेडी और क्लिंटन वंश का दबदबा चला आ रहा है। 2014 में छपी एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 46 प्रतिशत भारतीयों को वंशवादी नेताओं से कोई दिक्कत नहीं थी। लगभग हर दूसरे भारतीय का कहना था कि वो वंशवादी राजनेता को वोट देना ज्यादा पसंद करते हैं, बनिस्बत किसी गैर वंशवादी नेता के।

असल मयाने में सवाल यह उठना चाहिए कि जिस देश की 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम की हो वहां 60 साल से अधिक उम्र के सांसदो की संख्या आखिर इतनी ज्यादा क्यूं है ? बाकी सरकारी क्षेत्र की तरह चुनाव आयोग को चुनाव लड़ने की अधिकतम उम्र की समय-सीमा भी तय करनी चाहिए। लोकतन्त्र में वंशवाद तभी सफल और टिकाऊ हो सकता है जब उसके वारिसों में राजनीतिक योग्यता हो। वंशवाद की राजनीति के मुद्दे को उठाने का असली मकसद कुछ भी हो, इसके पीछे की मंशा किसी बड़े मुद्दे को दबाने की कोशिश हो या ना हो, लेकिन सरकार को ये आंकड़े भी जारी करने चाहिए कि जिस लोकसभा क्षेत्र में वंशवादी नेता या सांसद हुए हैं, विकास की गति उस इलाकों में गैर वंशवादी सांसद या नेता के मुकाबले कैसी रही है? आपराधिक मामले और भ्रष्टाचार के मामले किस पर ज्यादा है ? तभी हम सही निर्णय पर पहुंच पायेंगे। और उचित मूल्यांकन भी कर पायेंगे कि वंशवाद सही है या गलत है।
(ये लेखक के निजी विचार है।)

– देवेंद्रराज सुथार

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