लघुकथा ‘गन्जा’ मेरी नज़र में का देवी नागरानी द्वारा सिंधी में अनुवाद

गन्जा – (लघु कथा)
-अनुराग शर्मा

अनुराग शर्मा
अनुराग शर्मा
वह छठी कक्षा से मेरे साथ पढ़ता था। हमेशा प्रथम आता था। फिर भी सारा कॉलेज उसे सनकी मानता था। एक प्रोफैसर ने एक बार उसे रजिस्टर्ड पागल भी कहा था। कभी बिना मूंछों की दाढ़ी रख लेता था तो कभी मक्खी छाप मूंछें। तरह-तरह के टोप-टोपी पहनना भी उसके शौक में शुमार था।
बहुत पुराना परिचय होते हुए भी मुझे उससे कोई खास लगाव नहीं था। सच तो यह है कि उसके प्रति अपनी नापसन्दगी मैं कठिनाई से ही छिपा पाता था। पिछले कुछ दिनों से वह किस्म-किस्म की पगड़ियाँ पहने दिख रहा था। लेकिन तब तो हद ही हो गयी जब कक्षा में वह अपना सिर घुटाये हुए दिखा।
प्रशांत ने चिढ़कर कहा, “सर तो आदमी तभी घुटाता है जब जूँ पड़ जाएँ या तब जब बाप मर जाये।“ वह उठकर कक्षा से बाहर आ गया। जीवन में पहली बार वह मुझे उदास दिखा। प्रशांत की बात मुझे भी बुरी लगी थी सो उसे झिड़ककर मैं भी बाहर आया। उसकी आँख में आंसू थे। उसकी पीड़ा कम करने के उद्देश्य से मैंने कहा, “कुछ लोगों को बात करने का सलीका ही नहीं होता है। उनकी बात पर ध्यान मत दो।“
उसने आंसू पोंछे, तो मैंने मज़ाक करते हुए कहा-“वैसे बुरा मत मानना बाल बढ़ा लो, सिर मुंडवा कर पूरे कैंसर के मरीज़ लग रहे हो।“
मेरी बात सुनकर वह मुस्कराया। हम दोनों ठठाकर हंस पड़े। आज उसका सैंतालीसवाँ जन्मदिन है। सर घुटाने के बाद भी कुछ महीने तक मुस्कुराकर कैंसर से लड़ा था वह।
अनुराग शर्मा,
मुख्य सम्पादक,
सेतु, पिट्सबर्ग (संयुक्त राज्य अमेरिका)

सिन्धी अनुवाद: देवी नागरानी
गँजो- लघुकथा (लघुकथा)

देवी नागरानी
देवी नागरानी
हू छहें दरजे में मूसां गडु पढ़हंदो हो. हमेशा पहरियों नंबर ईंदो हो, पर पोइ ब् सञो कालेज हुनखे सनकी मञींदो हो. हिक प्रोफेसर त् हिक दफ़े हुन खे रजिस्टर्ड चरियो ब् चयो हो. कडंहि बिना मुच्छुन जे डाढ़ी रखंदो हुयों त् कडंह मखि छाप मुच्छूं . ब्ये ब्ये किस्म जूँ टोप्यूं पाइण ब् हुन जे शौंक में शामिल हुयो.
पुराणी सुञाणप जे बावजूद ब् मूंखे हुन साँ को खास मोह कोन हुयों. सच त् इहो आहे कि हुन खे नापसंद करण जो भ्रम मुश्किल सां लिकाए सघंदो हुयस. कुछ डींह हू किस्म किस्म जूँ पगड्यूं पाए डेखारींदो हुयो, पर तडंह त हद ई थी जडहिं हू मथो कूडाए पहंजे क्लास में डिठो व्यो.
प्रशांत चिढ़ी करे चयो ” मथो त माण्हूं तडंह कूड़ाईंदो आहे जडंह मथे में जूं पइजी वञन या जडहिं पीउ मरी वञे.”
हू उथी क्लास खाँ बाहिर आयो. हयातीअ में हू पहर्यों भेरो मूंखे उदास लगो. प्रशांत जी गाल्ह मुखे ब् ख़राब लगी, सो हुन खे छिरब् डई माँ ब् बाहर आयुस. हुन जे अख्युन में लुड्क हुया. मूँ हुन जो दुख घटाइण जे ख़्याल खाँ चयों ” किन माणहुन खे गाल्हाइण जो डाँउ न ईंदों आहे. तूं हुन जी गाल्ह ते ध्यान न डे.”
हुन लुड़क उघिया, त् मूं खिल कंदे चयोमांस ” हूंअ तू बुरो न मञंजइ, वार वधाए छड, मथो कूड़ाए कैंसर जो मरीज़ प्यो लगीं.” मुहंजी गाल्ह बुधी हू मुरक्यो. असीं बई टहकु डई खिलियासीं . अञु हुन जो सतेतालियों जन्म डींहु आहे. मथो कूड़ाइण बइद् कुछ महीना हू कैंसर सां जँग जोटींदो रह्यो.
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विचार मंथन-
संवेदनात्मक अनुभूति का अभिव्यक्ति तक का सफ़र है -देवी नागरानी

साहित्य के बेपनाह विस्तार में कविता, लेख, लघुकताएँ, आलोचनाएँ सब हिन्दी भाषा की धारा है. शीर्षक ‘लघुकथा’ सिर्फ़ शीर्षक नहीं एक सूत्र भी है , वह तो सागर की गागर में एक प्रविष्ट है: “लघु और कथा एक दूसरे के पूरक है लघुता ही उसकी पूर्णता है, लघुता ही उसकी प्रभुता है. लघुकथा जीवन का साक्षात्कार है, गध्य और शिल्प निजी व्यवहार है और लेखक का परिचय भी.”
लघुकथा और कहानी को एक दूजे से अलग कर पाना मुश्किल है “कथा किसी एक व्यक्ति के द्वारा कही गयी कोई घटना है या उसकी आत्मकथा है, पर उस विषय में कथा हो, जो मन को टटोले, स्पर्श करे. जिसमें कथा ना हो, वो लघुकता कैसी? जीवन के छोटे छोटे जिये जाने वाले पल ही लघुकथा ही तो हैं । लघुकथा तब ही जीवित होकर साँसे लेती है जब वह पाठकों तक पहुंचती है, उनके हृदय को टटोल कर उनके मनोभावों को झकझोरती है, फिर चाहे उसमें चुटकीलापन, चुलबुलापन ही क्यों न हो, बस आत्मीयता भरा अपनापन ज़रूर हो। ऐसी ही एक लघुकथा श्री अनुराग शर्मा की है- ‘गन्जा’ ।
लघुकथा की पेचकश में, जाने अनजाने किरदार के जीवन की हक़ीकत से नावाक़िफ़, उसे ‘गँजा’ कहा जाने पर उस दोस्त को फ़टकारने के पश्चात मज़ाक करते हुए पात्र कहता है “वैसे बुरा मत मानना बाल बढ़ा लो, सर मुंडवा कर पूरे कैंसर के मरीज़ लग रहे हो।”
कथा अपनी लघुता में प्रवेश करके संवाद करती है, अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति का उद्देश्य ख़ुद को प्रकट कर देता है.” कथा का अंत बेपनाह मार्मिकता दर्शा रहा है जो इस अंश से ज़ाहिर है.
“मेरी बात सुनकर वह मुस्कराया। हम दोनों ठठाकर हंस पड़े। आज उसका सैंतालीसवाँ जन्मदिन है। सर घुटाने के बाद भी कुछ महीने तक मुस्कुराकर कैंसर से लड़ा था वह।“
उसकी शैली, उसकी लघुता, उसकी परिभाषा बनी
अब स्वाभाविक है प्रकट, आकार बनके लघुकथा.

है लघु सी ये कथा, विस्तार जिसका है बड़ा
अंकुरित भाषा सी उपजे, शब्द बनके लघुकथा.

देवी नागरानी

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