विवाह के शुभाशुभ योग

पंडित दयानन्द शास्त्री
पंडित दयानन्द शास्त्री

सप्तम भाव का स्वामी खराब है या सही है, वह अपने भाव में बैठकर या किसी अन्य स्थान पर बैठ कर अपने भाव को देख रहा है तो विवाह के योग बनते हैं। किसी अन्य पाप ग्रह की दृष्टि सप्तम भाव और सप्तमेश पर न हो तो विवाह के योग बनते हैं।
कोई पाप ग्रह सप्तम में बैठा न हो तो शीघ्र विवाह के योग बनते हैं। यदि सप्तम भाव में सम राशि हो अथवा सप्तमेश और शुक्र सम राशि में हों तो। सप्तमेश बली हो तो शीघ्र विवाह होता है। दूसरे, सातवें व बारहवें भाव के स्वामी केन्द्र या त्रिकोण में हों और गुरु से दृष्ट हों तो। सप्तमेश की स्थिति के आगे के भाव में या सातवें भाव में क्रूर ग्रह न हो तो विवाह के योग बनते हैं।
विवाह कब होगा इस प्रश्न का विचार करने के लिए द्वितीय, सप्तम, तथा एकादश भाव में कौन से ग्रह हैं इनको देखा जाता है (The second and the seventh house should be assessed for marriage.)
ज्योतिषशास्त्र की इस विधा में विवाह का विचार सप्तम भाव के साथ साथ द्वितीय और एकादश भाव से भी किया जाता है. सप्तम भाव जीवनसाथी, संधि, और साझेदारी का घर होता है अत: विवाह के विषय में इस भाव से विचार किया जाता है. भारतीयदर्शन में विवाह को सम्बन्ध में वृद्धि की दृष्टि से भी देखा जाता है अत: एकादश भाव से भी विचार किया जाता है. इन भावों के नक्षत्र कौन कौन से हैं. इन भावों के स्वामी के नक्षत्र में स्थित ग्रह. इन भावो के स्वामी तथा इन भाव में स्थित ग्रह के मध्य दृष्टि और युति सम्बन्ध को भी देखा जाता है. प्रश्न ज्योतिष में इन तथ्यों से विचार करते हुए सबसे अधिक नक्षत्रो को महत्व दिया जाता है|

योगिनी अष्टकूट गुण मिलान क्यों?
हमारे देश में ज्योतिष परम्परा के अनुसार जब स्त्री और पुरूष की शादी की बात चलती है तब सबसे पहले दोनों की कुण्डली मिलायी जाती है। कुण्डली मिलाने से ज्ञात होता है कि वर और वधू की कुण्डली में ग्रह, नक्षत्र एवं राशियों में किस तरह का सम्बन्ध बन रहा है। ग्रह नक्षत्र एवं राशियो के मध्य सम्बन्ध का विश्लेषण इसलिए किया जाता है क्योंकि ज्योतिष शास्त्र का मानना है कि ग्रह, नक्षत्र एवं राशियों के बीच जैसा सम्बन्ध होता है वैसा ही प्रभाव हमारे जीवन पर होता है यानी इनके बीच मित्रता पूर्ण सम्बन्ध है तो आपके बीच भी प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रहता है और अगर इनमें दुश्मनी है तो आपके गृहस्थ जीवन में विवाद और कलह होता रहता है।
आज जीवन यूं भी काफी तनाव और संघर्षपूर्ण हो गया है इस स्थिति में पारिवारिक जीवन में यूं ही बहुत से उतार चढ़ाव आते रहते हैं, इस स्थिति में अगर कुण्डली मिलान किये बिना अथवा सही प्रकार से कुण्डली मिलाये बगैर शादी की जाए तो हो सकता है कि ग्रह, नक्षत्र एवं राशियां प्रतिकूल स्थिति पैदा करे और पारिवारिक जीवन कलह से भर जाए। इन स्थितियों मे आज के समय में कुण्डली मिलान के पश्चात ही शादी की जाए तो अधिक अच्छा माना जाता है।
भारत में कुण्डली मिलान की मुख्य दो पद्धति है अष्टकूट और बीसकूट(There are two type of kundli matching system in India those are Ashtkoota and Beeskoota)। अष्टकूट पद्धति उत्तर भारत में प्रचलित है और 20 कूट दक्षिण भारत में मान्य है । अष्टकूट के अन्तर्गत आठ प्रकार के वर्ग या कूट होते हैं और 20 कूट में 20 प्रकार के होते हैं। योगिनी कूट जिसकी बात हम करने जा रहे हैं वह 20 कूट के अन्तर्गत आने वाला एक कूट है । इस कूट के विषय में बात को आगे बढ़ाते हुए सबसे पहले जानते हैं कि योगिनियां कितने प्रकार की होती है।
योगिनी के प्रकार:—-
ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार योगिनियां आठ प्रकार की होती है जिनका क्रम इस प्रकार है —
1.ब्रह्मणी, 2.कौमारी, 3.वाराही, 4.वैष्णवी, 5.माहेन्द्री, 6. चामुण्डा , 7. माहेश्वरी, 8.महालक्ष्मी।
योगिनी कूट के अन्तर्गत योगिनियों को उत्तर पूर्व दिशा के क्रम में स्थापित किया जाता है। सभी योगिनियां तीन तीन नक्षत्र की स्वामिनी मानी जाती है। जिन नक्षत्रों की जो योगिनी मालकिन हैं उन्हें उनके साथ पूर्व दिशा में चक्र के अनुसार स्थापित किया जाता है जैसे ब्राह्मणी प्रथम योगिनी है तो उनके साथ प्रथम नक्षत्र अश्विनी को रखा जाता है। इसी प्रकार क्रम चलता है। नक्षत्रों की कुल संख्या 27 हैं अत: आठों योगिनियों के साथ तीन तीन नक्षत्र स्थापित करने से 3 नक्षत्र पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती शेष बच जाते हैं। इन तीनों नक्षत्रों को पुन: पूर्व दिशा से ब्राह्मणी, कौमारी और वारही में स्थापित किया जाता है।
योगिनियों के साथ नक्षत्रों को स्थापित करने के बाद स्त्री और पुरूष की कुण्डली में नक्षत्रों का आंकलन किया जाता है। नक्षत्रों के आंकलन से ज्ञात होता है कि स्त्री और पुरूष दोनों का जन्म समान योगिनी में हुआ है तो इसे बहुत ही शुभ माना जाता है। इस स्थिति में यह माना जाता है कि अगर स्त्री और पुरूष का विवाह होता है तो इनके बीच मधुर सम्बन्ध रहेंगे और गृहस्थी खुशहाल रहेगी। स्त्री और पुरूष के जन्म नक्षत्र अगर आंकलन में अलग अलग योगिनी में आते हैं तो इसे अशुभ माना जाता है क्योंकि इस स्थिति में दाम्पत्य जीवन में कलह की संभावना रहती है।
ध्यान देने वाली बात है कि एक अन्य योगिनी कूट के अन्तर्गत जब नक्षत्रों को स्थापित किया जाता है तब आठों योगिनियों के साथ तीन तीन नक्षत्र को स्थापित करने के बाद शेष बचे तीन नक्षत्रों को वैष्णवी योगिनी में स्थापित किया जाता है। परिणाम की दृष्टि से योगिनी कूट में दोनों ही के परिणाम समान की बताये गये हैं अत: आप जिस पद्धति से चाहें फलादेश प्राप्त कर सकते हैं।

जन्म कुण्डली में जब योगों के आधार पर विवाह की आयु निर्धारित हो जाये तो, उसके बाद विवाह के कारक ग्रह शुक्र व विवाह के मुख्य भाव व सहायक भावों की दशा- अन्तर्दशा में विवाह होने की संभावनाएं बनती है. आईये देखे की दशाएं विवाह के समय निर्धारण में किस प्रकार सहयोग करती है:-
1. सप्तमेश की दशा- अन्तर्दशा में विवाह——
जब कुण्डली के योग विवाह की संभावनाएं बना रहे हों, तथा व्यक्ति की ग्रह दशा में सप्तमेश का संबन्ध शुक्र से हो तों इस अवधि में विवाह होता है. इसके अलावा जब सप्तमेश जब द्वितीयेश के साथ ग्रह दशा में संबन्ध बना रहे हों उस स्थिति में भी विवाह होने के योग बनते है.
2. सप्तमेश में नवमेश की दशा- अन्तर्द्शा में विवाह ——
ग्रह दशा का संबन्ध जब सप्तमेश व नवमेश का आ रहा हों तथा ये दोनों जन्म कुण्डली में पंचमेश से भी संबन्ध बनाते हों तो इस ग्रह दशा में प्रेम विवाह होने की संभावनाएं बनती है.
3. सप्तम भाव में स्थित ग्रहों की दशा में विवाह——
सप्तम भाव में जो ग्रह स्थित हो या उनसे पूर्ण दृष्टि संबन्ध बना रहे हों, उन सभी ग्रहों की दशा – अन्तर्दशा में विवाह हो सकता है. इसके अलावा निम्न योगों में विवाह होने की संभावनाएं बनती है:-
क) सप्तम भाव में स्थित ग्रह, सप्तमेश जब शुभ ग्रह होकर शुभ भाव में हों तो व्यक्ति का विवाह संबन्धित ग्रह दशा की आरम्भ की अवधि में विवाह होने की संभावनाएं बनाती है. या
ख) शुक्र, सप्तम भाव में स्थित ग्रह या सप्तमेश जब शुभ ग्रह होकर अशुभ भाव या अशुभ ग्रह की राशि में स्थित होने पर अपनी दशा- अन्तर्दशा के मध्य भाग में विवाह की संभावनाएं बनाता है.
ग) इसके अतिरिक्त जब अशुभ ग्रह बली होकर सप्तम भाव में स्थित हों या स्वयं सप्तमेश हों तो इस ग्रह की दशा के अन्तिम भाग में विवाह संभावित होता है.
4. शुक्र का ग्रह दशा से संबन्ध होने पर विवाह—–
जब विवाह कारक ग्रह शुक्र नैसर्गिक रुप से शुभ हों, शुभ राशि, शुभ ग्रह से युक्त, द्र्ष्ट हों तो गोचर में शनि, गुरु से संबन्ध बनाने पर अपनी दशा- अन्तर्दशा में विवाह होने का संकेत करता है.
5. सप्तमेश के मित्रों की ग्रह दशा में विवाह—–
जब किसी व्यक्ति कि विवाह योग्य आयु हों तथा महादशा का स्वामी सप्तमेश का मित्र हों, शुभ ग्रह हों व साथ ही साथ सप्तमेश या शुक्र से सप्तम भाव में स्थित हों, तो इस महाद्शा में व्यक्ति के विवाह होने के योग बनते है.
6. सप्तम व सप्तमेश से दृ्ष्ट ग्रहों की दशा में विवाह——
सप्तम भाव को क्योकि विवाह का भाव कहा गया है. सप्तमेश इस भाव का स्वामी होता है. इसलिये जो ग्रह बली होकर इन सप्तम भाव , सप्तमेश से दृ्ष्टि संबन्ध बनाते है, उन ग्रहों की दशा अवधि में विवाह की संभावनाएं बनती है
7. लग्नेश व सप्तमेश की दशा में विवाह ——-
लग्नेश की दशा में सप्तमेश की अन्तर्दशा में भी विवाह होने की संभावनाएं बनती है.
8. शुक्र की शुभ स्थिति—–
किसी व्यक्ति की कुण्डली में जब शुक्र शुभ ग्रह की राशि तथा शुभ भाव (केन्द्र, त्रिकोण) में स्थित हों, तो शुक्र का संबन्ध अन्तर्दशा या प्रत्यन्तर दशा से आने पर विवाह हो सकता है. कुण्डली में शुक्र पर जितना कम पाप प्रभाव कम होता है. वैवाहिक जीवन के सुख में उतनी ही अधिक वृ्द्धि होती है
9. शुक्र से युति करने वाले ग्रहों की दशा में विवाह—–
शुक्र से युति करने वाले सभी ग्रह, सप्तमेश का मित्र, अथवा प्रत्येक वह ग्रह जो बली हों, तथा इनमें से किसी के साथ द्रष्टि संबन्ध बना रहा हों, उन सभी ग्रहों की दशा- अन्तर्दशा में विवाह होने की संभावनाएं बनती है.
10. शुक्र का नक्षत्रपति की दशा में विवाह—-
जन्म कुण्डली में शुक्र जिस ग्रह के नक्षत्र में स्थित हों, उस ग्रह की दशा अवधि में विवाह होने की संभावनाएँ बनती है।

युवक/वर की कुंडली—
यदि वर की कुंडली के सप्तम भाव में वृषभ या तुला राशि होती है तो उसे सुंदर पत्नी मिलती है। यदि कन्या की कुंडली में चन्द्र से सप्तम स्थान पर शुभ ग्रह बुध, गुरु, शुक्र में से कोई भी हो तो उसका पति राज्य में उच्च पद प्राप्त करता है तथा धनवान होता है।
जब सप्तमेश सौम्य ग्रह होता है तथा स्वग्रही होकर सप्तम भाव में ही उपस्थित होता है तो जातक को सुंदर, आकर्षक, प्रभामंडल से युक्त एवं सौभाग्यशाली पत्नी प्राप्त होती है। जब सप्तमेश सौम्य ग्रह होकर भाग्य भाव में उपस्थित होता है तो जातक को शीलयुक्त, रमणी एवं सुंदर पत्नी प्राप्त होती है तथा विवाह के पश्चात जातक का निश्चित भाग्योदय होता है।
जब सप्तमेश एकादश भाव में उपस्थित हो तो जातक की पत्नी रूपवती, संस्कारयुक्त, मृदुभाषी व सुंदर होती है तथा विवाह के पश्चात जातक की आर्थिक आय में वृद्धि होती है या पत्नी के माध्यम से भी उसे आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं।
यदि जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में वृषभ या तुला राशि होती है तो जातक को चतुर, मृदुभाषी, सुंदर, सुशिक्षित, संस्कारवान, तीखे नाक-नक्श वाली, गौरवर्ण, संगीत, कला आदि में दक्ष, भावुक एवं चुंबकीय आकर्षण वाली, कामकला में प्रवीण पत्नी प्राप्त होती है।
यदि जातक की जन्मकुंडली में सप्तम भाव में मिथुन या कन्या राशि उपस्थित हो तो जातक को कोमलाङ्गी, आकर्षक व्यक्तित्व वाली, सौभाग्यशाली, मृदुभाषी, सत्य बोलने वाली, नीति एवं मर्यादाओं से युक्त बात करने वाली, श्रृंगारप्रिय, कठिन समय में पति का साथ देने वाली तथा सदैव मुस्कुराती रहने वाली पत्नी प्राप्त होती है। उन्हें वस्त्र एवं आभूषण बहुत प्रिय होते हैं।
जिस जातक के सप्तम भाव में कर्क राशि स्थित होती है, उसे अत्यंत सुंदर, भावुक, कल्पनाप्रिय, मधुरभाषी, लंबे कद वाली, छरहरी तथा तीखे नाक-नक्श वाली, सौभाग्यशाली तथा वस्त्र एवं आभूषणों से प्रेम करने वाली पत्नी प्राप्त होती है।
यदि किसी जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में कुंभ राशि स्थित हो तो ऐसे जातक की पत्नी गुणों से युक्त धार्मिक, आध्यात्मिक कार्यो में गहरी अभिरुचि रखने वाली एवं दूसरों की सेवा और सहयोग करने वाली होती है।
सप्तम भाव में धनु या मीन राशि होने पर जातक को धार्मिक, आध्यात्मिक एवं पुण्य के कार्यो में रुचि रखने वाली, सुंदर, न्याय एवं नीति से युक्त बातें करने वाली, वाक्पटु, पति के भाग्य में वृद्धि करने वाली, सत्य का आचरण करने वाली और शास्त्र एवं पुराणों का अध्ययन करने वाली पत्नी प्राप्त होती है।

कन्या/युवती की कुंडली-
जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में चन्द्र, बुध, गुरु या शुक्र उपस्थित होता है, उसे धनवान पति प्राप्त होता है।
जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में गुरु उपस्थित हो तो उसे सुंदर, धनवान, बुद्धिमान पति व श्रेष्ठ संतान मिलती है।भाग्य भाव में या सप्तम, अष्टम और नवम भाव में शुभ ग्रह होने से ससुराल धनाढच्य एवं वैभवपूर्ण होती है।
कन्या की जन्मकुंडली में चन्द्र से सप्तम स्थान पर शुभ ग्रह बुध, गुरु, शुक्र आदि में से कोई उपस्थित हो तो उसका पति राज्य में उच्च पद प्राप्त करता है तथा उसे सुख व वैभव प्राप्त होता है। कुंडली के लग्न में चंद्र हो तो ऐसी कन्या पति को प्रिय होती है और चंद्र व शुक्र की युति हो तो कन्या ससुराल में अपार संपत्ति एवं समस्त भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त करती है।
कन्या की कुंडली में वृषभ, कन्या, तुला लग्न हो तो वह प्रशंसा पाकर पति एवं धनवान ससुराल में प्रतिष्ठा प्राप्त करती है।कन्या की कुंडली में जितने अधिक शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध या चन्द्र लग्न को देखते हैं या सप्तम भाव को देखते हैं, उसे उतना धनवान एवं प्रतिष्ठित परिवार एवं पति प्राप्त होता है।
कन्या की जन्मकुंडली में लग्न एवं ग्रहों की स्थिति की गणनानुसार त्रिशांश कुंडली का निर्माण करना चाहिए तथा देखना चाहिए कि यदि कन्या का जन्म मिथुन या कन्या लग्न में हुआ है तथा लग्नेश गुरु या शुक्र के त्रिशांश में है तो उसके पति के पास अटूट संपत्ति होती है तथा कन्या सदैव ही सुंदर वस्त्र एवं आभूषण धारण करने वाली होती है।
कुंडली के सप्तम भाव में शुक्र उपस्थित होकर अपने नवांश अर्थात वृषभ या तुला के नवांश में हो तो पति धनाढच्य होता है।सप्तम भाव में बुध होने से पति विद्वान, गुणवान, धनवान होता है, गुरु होने से दीर्घायु, राजा के संपत्ति वाला एवं गुणी तथा शुक्र या चंद्र हो तो ससुराल धनवान एवं वैभवशाली होता है। एकादश भाव में वृष, तुला राशि हो या इस भाव में चन्द्र, बुध या शुक्र हो तो ससुराल धनाढच्य और पति सौम्य व विद्वान होता है।हर पुरुष सुंदर पत्नी और स्त्री धनवान पति की कामना करती है।
यदि जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में सूर्य हो तो उसकी पत्नी शिक्षित, सुशील, सुंदर एवं कार्यो में दक्ष होती है, किंतु ऐसी स्थिति में सप्तम भाव पर यदि किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो दाम्पत्य जीवन में कलह और सुखों का अभाव होता है।
जातक की जन्मकुंडली में स्वग्रही, उच्च या मित्र क्षेत्री चंद्र हो तो जातक का दाम्पत्य जीवन सुखी रहता है तथा उसे सुंदर, सुशील, भावुक, गौरवर्ण एवं सघन केश राशि वाली रमणी पत्नी प्राप्त होती है। सप्तम भाव में क्षीण चंद्र दाम्पत्य जीवन में न्यूनता उत्पन्न करता है।
जातक की कुंडली में सप्तमेश केंद्र में उपस्थित हो तथा उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि होती है, तभी जातक को गुणवान, सुंदर एवं सुशील पत्नी प्राप्त होती है।पुरुष जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में शुभ ग्रह बुध, गुरु या शुक्र उपस्थित हो तो ऐसा जातक सौभाग्यशाली होता है तथा उसकी पत्नी सुंदर, सुशिक्षित होती है और कला, नाटच्य, संगीत, लेखन, संपादन में प्रसिद्धि प्राप्त करती है। ऐसी पत्नी सलाहकार, दयालु, धार्मिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में रुचि रखती है।

दाम्पत्य सुख के उपाय—-
१॰ यदि जन्म कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, द्वादश स्थान स्थित मंगल होने से जातक को मंगली योग होता है इस योग के होने से जातक के विवाह में विलम्ब, विवाहोपरान्त पति-पत्नी में कलह, पति या पत्नी के स्वास्थ्य में क्षीणता, तलाक एवं क्रूर मंगली होने पर जीवन साथी की मृत्यु तक हो सकती है। अतः जातक मंगल व्रत। मंगल मंत्र का जप, घट विवाह आदि करें।
२॰ सप्तम गत शनि स्थित होने से विवाह बाधक होते है। अतः “ॐ शं शनैश्चराय नमः” मन्त्र का जप ७६००० एवं ७६०० हवन शमी की लकड़ी, घृत, मधु एवं मिश्री से करवा दें।
३॰ राहु या केतु होने से विवाह में बाधा या विवाहोपरान्त कलह होता है। यदि राहु के सप्तम स्थान में हो, तो राहु मन्त्र “ॐ रां राहवे नमः” का ७२००० जप तथा दूर्वा, घृत, मधु व मिश्री से दशांश हवन करवा दें। केतु स्थित हो, तो केतु मन्त्र “ॐ कें केतवे नमः” का २८००० जप तथा कुश, घृत, मधु व मिश्री से दशांश हवन करवा दें।
४॰ सप्तम भावगत सूर्य स्थित होने से पति-पत्नी में अलगाव एवं तलाक पैदा करता है। अतः जातक आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ रविवार से प्रारम्भ करके प्रत्येक दिन करे तथा रविवार कप नमक रहित भोजन करें। सूर्य को प्रतिदिन जल में लाल चन्दन, लाल फूल, अक्षत मिलाकर तीन बार अर्ध्य दें।
५॰ जिस जातक को किसी भी कारणवश विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो नवरात्री में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक ४४००० जप निम्न मन्त्र का दुर्गा जी की मूर्ति या चित्र के सम्मुख करें।
“ॐ पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्।।”
६॰ किसी स्त्री जातिका को अगर किसी कारणवश विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो श्रावण कृष्ण सोमवार से या नवरात्री में गौरी-पूजन करके निम्न मन्त्र का २१००० जप करना चाहिए-
“हे गौरि शंकरार्धांगि यथा त्वं शंकर प्रिया।
तथा मां कुरु कल्याणी कान्त कान्तां सुदुर्लभाम।।”
७॰ किसी लड़की के विवाह मे विलम्ब होता है तो नवरात्री के प्रथम दिन शुद्ध प्रतिष्ठित कात्यायनि यन्त्र एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर स्थापित करें एवं यन्त्र का पंचोपचार से पूजन करके निम्न मन्त्र का २१००० जइ लड़की स्वयं या किसी सुयोग्य पंडित से करवा सकते हैं।
“कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्दगोप सुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः।।”
८॰ जन्म कुण्डली में सूर्य, शनि, मंगल, राहु एवं केतु आदि पाप ग्रहों के कारण विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो गौरी-शंकर रुद्राक्ष शुद्ध एवं प्राण-प्रतिष्ठित करवा कर निम्न मन्त्र का १००८ बार जप करके पीले धागे के साथ धारण करना चाहिए। गौरी-शंकर रुद्राक्ष सिर्फ जल्द विवाह ही नहीं करता बल्कि विवाहोपरान्त पति-पत्नी के बीच सुखमय स्थिति भी प्रदान करता है।
“ॐ सुभगामै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्।।”
९॰ “ॐ गौरी आवे शिव जी व्याहवे (अपना नाम) को विवाह तुरन्त सिद्ध करे, देर न करै, देर होय तो शिव जी का त्रिशूल पड़े। गुरु गोरखनाथ की दुहाई।।”
उक्त मन्त्र की ११ दिन तक लगातार १ माला रोज जप करें। दीपक और धूप जलाकर ११वें दिन एक मिट्टी के कुल्हड़ का मुंह लाल कपड़े में बांध दें। उस कुल्हड़ पर बाहर की तरफ ७ रोली की बिंदी बनाकर अपने आगे रखें और ऊपर दिये गये मन्त्र की ५ माला जप करें। चुपचाप कुल्हड़ को रात के समय किसी चौराहे पर रख आवें। पीछे मुड़कर न देखें। सारी रुकावट दूर होकर शीघ्र विवाह हो जाता है।
१०॰ जिस लड़की के विवाह में बाधा हो उसे मकान के वायव्य दिशा में सोना चाहिए।
११॰ लड़की के पिता जब जब लड़के वाले के यहाँ विवाह वार्ता के लिए जायें तो लड़की अपनी चोटी खुली रखे। जब तक पिता लौटकर घर न आ जाए तब तक चोटी नहीं बाँधनी चाहिए।
१२॰ लड़की गुरुवार को अपने तकिए के नीचे हल्दी की गांठ पीले वस्त्र में लपेट कर रखे।
१३॰ पीपल की जड़ में लगातार १३ दिन लड़की या लड़का जल चढ़ाए तो शादी की रुकावट दूर हो जाती है।
१४॰ विवाह में अप्रत्याशित विलम्ब हो और जातिकाएँ अपने अहं के कारण अनेल युवकों की स्वीकृति के बाद भी उन्हें अस्वीकार करती रहें तो उसे निम्न मन्त्र का १०८ बार जप प्रत्येक दिन किसी शुभ मुहूर्त्त से प्रारम्भ करके करना चाहिए।
“सिन्दूरपत्रं रजिकामदेहं दिव्ताम्बरं सिन्धुसमोहितांगम् सान्ध्यारुणं धनुः पंकजपुष्पबाणं पंचायुधं भुवन मोहन मोक्षणार्थम क्लैं मन्यथाम।
महाविष्णुस्वरुपाय महाविष्णु पुत्राय महापुरुषाय पतिसुखं मे शीघ्रं देहि देहि।।”
१५॰ किसी भी लड़के या लड़की को विवाह में बाधा आ रही हो यो विघ्नकर्ता गणेशजी की उपासना किसी भी चतुर्थी से प्रारम्भ करके अगले चतुर्थी तक एक मास करना चाहिए। इसके लिए स्फटिक, पारद या पीतल से बने गणेशजी की मूर्ति प्राण-प्रतिष्टित, कांसा की थाली में पश्चिमाभिमुख स्थापित करके स्वयं पूर्व की ओर मुँह करके जल, चन्दन, अक्षत, फूल, दूर्वा, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजा करके १०८ बार “ॐ गं गणेशाय नमः” मन्त्र पढ़ते हुए गणेश जी पर १०८ दूर्वा चढ़ायें एवं नैवेद्य में मोतीचूर के दो लड्डू चढ़ायें। पूजा के बाद लड्डू बच्चों में बांट दें।
यह प्रयोग एक मास करना चाहिए। गणेशजी पर चढ़ये गये दूर्वा लड़की के पिता अपने जेब में दायीं तरफ लेकर लड़के के यहाँ विवाह वार्ता के लिए जायें।
१६॰ तुलसी के पौधे की १२ परिक्रमायें तथा अनन्तर दाहिने हाथ से दुग्ध और बायें हाथ से जलधारा तथा सूर्य को बारह बार इस मन्त्र से अर्ध्य दें- “ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय सहस्त्र किरणाय मम वांछित देहि-देहि स्वाहा।”
फिर इस मन्त्र का १०८ बार जप करें-
“ॐ देवेन्द्राणि नमस्तुभ्यं देवेन्द्र प्रिय यामिनि। विवाहं भाग्यमारोग्यं शीघ्रलाभं च देहि मे।”
१७॰ गुरुवार का व्रत करें एवं बृहस्पति मन्त्र के पाठ की एक माला आवृत्ति केला के पेड़ के नीचे बैठकर करें।
१८॰ कन्या का विवाह हो चुका हो और वह विदा हो रही हो तो एक लोटे में गंगाजल, थोड़ी-सी हल्दी, एक सिक्का डाल कर लड़की के सिर के ऊपर ७ बार घुमाकर उसके आगे फेंक दें। उसका वैवाहिक जीवन सुखी रहेगा।
१९॰ जो माता-पिता यह सोचते हैं कि उनकी पुत्रवधु सुन्दर, सुशील एवं होशियार हो तो उसके लिए वीरवार एवं रविवार के दिन अपने पुत्र के नाखून काटकर रसोई की आग में जला दें।
२०॰ विवाह में बाधाएँ आ रही हो तो गुरुवार से प्रारम्भ कर २१ दिन तक प्रतिदिन निम्न मन्त्र का जप १०८ बार करें-
“मरवानो हाथी जर्द अम्बारी। उस पर बैठी कमाल खां की सवारी। कमाल खां मुगल पठान। बैठ चबूतरे पढ़े कुरान। हजार काम दुनिया का करे एक काम मेरा कर। न करे तो तीन लाख पैंतीस हजार पैगम्बरों की दुहाई।”
२१॰ किसी भी शुक्रवार की रात्रि में स्नान के बाद १०८ बार स्फटिक माला से निम्न मन्त्र का जप करें-
“ॐ ऐं ऐ विवाह बाधा निवारणाय क्रीं क्रीं ॐ फट्।”
२२॰ लड़के के शीघ्र विवाह के लिए शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को ७० ग्राम अरवा चावल, ७० सेमी॰ सफेद वस्त्र, ७ मिश्री के टुकड़े, ७ सफेद फूल, ७ छोटी इलायची, ७ सिक्के, ७ श्रीखंड चंदन की टुकड़ी, ७ जनेऊ। इन सबको सफेद वस्त्र में बांधकर विवाहेच्छु व्यक्ति घर के किसी सुरक्षित स्थान में शुक्रवार प्रातः स्नान करके इष्टदेव का ध्यान करके तथा मनोकामना कहकर पोटली को ऐसे स्थान पर रखें जहाँ किसी की दृष्टि न पड़े। यह पोटली ९० दिन तक रखें।
२३॰ लड़की के शीघ्र विवाह के लिए ७० ग्राम चने की दाल, ७० से॰मी॰ पीला वस्त्र, ७ पीले रंग में रंगा सिक्का, ७ सुपारी पीला रंग में रंगी, ७ गुड़ की डली, ७ पीले फूल, ७ हल्दी गांठ, ७ पीला जनेऊ- इन सबको पीले वस्त्र में बांधकर विवाहेच्छु जातिका घर के किसी सुरक्षित स्थान में गुरुवार प्रातः स्नान करके इष्टदेव का ध्यान करके तथा मनोकामना कहकर पोटली को ऐसे स्थान पर रखें जहाँ किसी की दृष्टि न पड़े। यह पोटली ९० दिन तक रखें।
२४॰ श्रेष्ठ वर की प्राप्ति के लिए बालकाण्ड का पाठ करे।

मंगली दोष का ज्योतिषीय आधार——
मंगल उष्ण प्रकृति का ग्रह है.इसे पाप ग्रह माना जाता है. विवाह और वैवाहिक जीवन में मंगल का अशुभ प्रभाव सबसे अधिक दिखाई देता है. मंगल दोष जिसे मंगली के नाम से जाना जाता है इसके कारण कई स्त्री और पुरूष आजीवन अविवाहित ही रह जाते हैं.इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है ताकि इसका भय दूर हो सके.
वैदिक ज्योतिष में मंगल को लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में दोष पूर्ण माना जाता है.इन भावो में उपस्थित मंगल वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है.जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ जितने क्रूर ग्रह बैठे हों मंगल उतना ही दोषपूर्ण होता है जैसे दो क्रूर होने पर दोगुना, चार हों तो चार चार गुणा.मंगल का पाप प्रभाव अलग अलग तरीके से पांचों भाव में दृष्टिगत होता है
जैसे:—-
====लग्न भाव में मंगल लग्न भाव से व्यक्ति का शरीर, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व का विचार किया जाता है.लग्न भाव में मंगल होने से व्यक्ति उग्र एवं क्रोधी होता है.यह मंगल हठी और आक्रमक भी बनाता है.इस भाव में उपस्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख सुख स्थान पर होने से गृहस्थ सुख में कमी आती है.सप्तम दृष्टि जीवन साथी के स्थान पर होने से पति पत्नी में विरोधाभास एवं दूरी बनी रहती है.अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि जीवनसाथी के लिए संकट कारक होता है.
====द्वितीय भाव में मंगल भवदीपिका नामक ग्रंथ में द्वितीय भावस्थ मंगल को भी मंगली दोष से पीड़ित बताया गया है.यह भाव कुटुम्ब और धन का स्थान होता है.यह मंगल परिवार और सगे सम्बन्धियों से विरोध पैदा करता है.परिवार में तनाव के कारण पति पत्नी में दूरियां लाता है.इस भाव का मंगल पंचम भाव, अष्टम भाव एवं नवम भाव को देखता है.मंगल की इन भावों में दृष्टि से संतान पक्ष पर विपरीत प्रभाव होता है.भाग्य का फल मंदा होता है.
====चतुर्थ भाव में मंगल चतुर्थ स्थान में बैठा मंगल सप्तम, दशम एवं एकादश भाव को देखता है.यह मंगल स्थायी सम्पत्ति देता है परंतु गृहस्थ जीवन को कष्टमय बना देता है.मंगल की दृष्टि जीवनसाथी के गृह में होने से वैचारिक मतभेद बना रहता है.मतभेद एवं आपसी प्रेम का अभाव होने के कारण जीवनसाथी के सुख में कमी लाता है.मंगली दोष के कारण पति पत्नी के बीच दूरियां बढ़ जाती है और दोष निवारण नहीं होने पर अलगाव भी हो सकता है.यह मंगल जीवनसाथी को संकट में नहीं डालता है.
====सप्तम भाव में मंगल सप्तम भाव जीवनसाथी का घर होता है.इस भाव में बैठा मंगल वैवाहिक जीवन के लिए सर्वाधिक दोषपूर्ण माना जाता है.इस भाव में मंगली दोष होने से जीवनसाथी के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव बना रहता है.जीवनसाथी उग्र एवं क्रोधी स्वभाव का होता है.यह मंगल लग्न स्थान, धन स्थान एवं कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि डालता है.मंगल की दृष्टि के कारण आर्थिक संकट, व्यवसाय एवं रोजगार में हानि एवं दुर्घटना की संभावना बनती है.यह मंगल चारित्रिक दोष उत्पन्न करता है एवं विवाहेत्तर सम्बन्ध भी बनाता है.संतान के संदर्भ में भी यह कष्टकारी होता है.मंगल के अशुभ प्रभाव के कारण पति पत्नी में दूरियां बढ़ती है जिसके कारण रिश्ते बिखरने लगते हैं.जन्मांग में अगर मंगल इस भाव में मंगली दोष से पीड़ित है तो इसका उपचार कर लेना चाहिए.
====अष्टम भाव में मंगल अष्टम स्थान दुख, कष्ट, संकट एवं आयु का घर होता है.इस भाव में मंगल वैवाहिक जीवन के सुख को निगल लेता है.अष्टमस्थ मंगल मानसिक पीड़ा एवं कष्ट प्रदान करने वाला होता है.जीवनसाथी के सुख में बाधक होता है.धन भाव में इसकी दृष्टि होने से धन की हानि और आर्थिक कष्ट होता है.रोग के कारण दाम्पत्य सुख का अभाव होता है.ज्योतिष विधान के अनुसार इस भाव में बैठा अमंलकारी मंगल शुभ ग्रहों को भी शुभत्व देने से रोकता है.इस भाव में मंगल अगर वृष, कन्या अथवा मकर राशि का होता है तो इसकी अशुभता में कुछ कमी आती है.मकर राशि का मंगल होने से यह संतान सम्बन्धी कष्ट देता है।
====द्वादश भाव में मंगल कुण्डली का द्वादश भाव शैय्या सुख, भोग, निद्रा, यात्रा और व्यय का स्थान होता है.इस भाव में मंगल की उपस्थिति से मंगली दोष लगता है.इस दोष के कारण पति पत्नी के सम्बन्ध में प्रेम व सामंजस्य का अभाव होता है.धन की कमी के कारण पारिवारिक जीवन में परेशानियां आती हैं.व्यक्ति में काम की भावना प्रबल रहती है.अगर ग्रहों का शुभ प्रभाव नहीं हो तो व्यक्ति में चारित्रिक दोष भी हो सकता है..
भावावेश में आकर जीवनसाथी को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं.इनमें गुप्त रोग व रक्त सम्बन्धी दोष की भी संभावना रहती है.

जब दो कुंडली के मिलान में ग्रहों का माकूल साथ हो तो प्रेम भी होगा और प्रेम विवाह भी। ज्योतिष की मानें तो चंद्र और शुक्र का साथ किसी भी व्यक्ति को प्रेमी बना सकता है और यही ग्रह अगर विवाह के घर से संबंध रखते हों तो इस प्रेम की परिणति विवाह के रूप में तय है। ऐसा नहीं कि प्रारब्ध को मानने से कर्म की महत्ता कम हो जाती है लेकिन इतना तय है कि ग्रहों का संयोग आपके जीवन में विरह और मिलन का योग रचता है। किसी भी व्यक्ति के प्रेम करने के पीछे ज्योतिषीय कारण भी होते हैं। कुंडली में शुक्र और चंद्र की प्रबलता है तो किसी भी जातक का प्रेम में पड़ना स्वाभाविक है। कुंडली में पाँचवाँ घर प्रेम का होता है और सातवाँ घर दाम्पत्य का माना जाता है। लग्न, पंचम, सप्तम या एकादश भाव में शुक्र का संबंध होने से प्रेम होता है। जब पाँचवें और सातवें घर में संबंध बनता है तो प्रेम विवाह में तब्दील हो जाता है।शुक्र या चंद्र के अलावा वृषभ, तुला और कर्क राशि के जातक भी प्रेम करते हैं। शुक्र और चंद्र प्रेम विवाह करवाते हैं तो सूर्य की मौजूदगी संबंधों में विच्छेद का कारण भी बनती है। सूर्य और शुक्र या शनि का आपसी संबंध जोड़े को अलग करने में मुख्य भूमिका निभाता है। सप्तम भाव का संबंध यदि सूर्य से हो जाए तो भी युवा प्रेमी युगल का नाता लंबे समय तक नहीं चलता। इनकी युति तलाक तक ले जाती है। अब आँखें चार हों तो कुंडली देख लें, संभव है शुक्र और चंद्र का साथ आपको प्रेमी बना रहा हो।
प्राय: सभी माता-पिता यह चाहते हैं कि उनकी बेटी या बेटे की शादी होने के बाद उनका जीवन सुखमय और सौहार्दपूर्ण रहे। दोनों में वैचारिक मतभेद नहीं हों और वे तरक्की करें। लेकिन शादी होने के बाद यदि पति-पत्नी के बीच क्लेश और विवाद होने लगें और नौबत तलाक तक आ जाए, तो यह विचारणीय विषय है।
विवाह के बाद यदि दांपत्य सुख न मिले या पति-पत्नी के बीच मतभेद जीवनपर्यन्त चलते रहें, आपसी सामंजस का अभाव हो, तो इसका ज्योतिषीय कारण कुंडली में कुछ बाधक योगों का होना हो सकता है। क्योंकि बाधक योग होने पर ही पति-पत्नी के बीच वैचारिक मतभेद होते हैं और उनमें एक-दूसरे के प्रति भावनात्मक लगाव कम होने लगता है। यदि ऎसी स्थिति किसी के साथ हो तो भयभीत नहीं हों, इन बाधक योगों के उपचार कर लेने से प्रतिकूल प्रभावों में कमी आती है। दांपत्य सुख में बाधक योग कौन से संभव हैं और उनका परिहार ज्योतिष में क्या बताया गया है इसे समझें।
विवाह भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण संस्कार है। कहते हैं कि जोड़ियां संयोग से बनती हैं जो कि परमात्मा द्वारा पहले से ही तय होती हैं। यह भी सत्य है कि अच्छी पत्नी व अच्छी सन्तान भाग्य से ही मिलती है। पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही जीवन साथी मिलता है, यदि सुकर्म अधिक हैं तो वैवाहिक जीवन सुखमय और कुकर्म अधिक हैं तो वैवाहिक जीवन दुखमय होता है।
जन्मकुंडली में विवाह का विचार सातवें भाव से होता है। इस भाव से पति एवं पत्नी, काम (भोग विलास), विवाह से पूर्व एवं पश्चात यौन संबंध, साझेदारी आदि का विचार मुख्य रूप से किया जाता है।

फलित ज्योतिष में योग की महत्ता——
सप्तम यानी केन्द्र स्थान विवाह और जीवनसाथी का घर होता है. इस घर पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव होने पर या तो विवाह विलम्ब से होता है या फिर विवाह के पश्चात वैवाहिक जीवन में प्रेम और सामंजस्य की कमी रहती है.
जिनकी कुण्डली में ग्रह स्थिति कमज़ोर हो और मंगल एवं शुक्र एक साथ बैठे हों उनके वैवाहिक जीवन में अशांति और परेशानी बनी रहती है. ग्रहों के इस योग के कारण पति पत्नी में अनबन रहती है.
शनि और राहु का सप्तम भाव होना भी वैवाहिक जीवन के लिए शुभ नहीं माना जाता है क्योंकि दोनों ही पाप ग्रह दूसरे विवाह की संभावना पैदा करते हैं.
राहु, सूर्य, शनि व द्वादशेश पृथकतावादी ग्रह हैं, जो सप्तम (दाम्पत्य)और द्वितीय (कुटुंब) भावों पर विपरीत प्रभाव डालकर वैवाहिक जीवन को नारकीय बना देते हैं। दृष्टि या युति संबंध से जितना ही विपरीत या शुभ प्रभाव होगा उसी के अनुरूप वैवाहिक जीवन सुखमय या दुखमय होगा।
राहु की दशा में शादी हो,या राहु सप्तम को पीडित कर रहा हो,तो शादी होकर टूट जाती है,यह सब दिमागी भ्रम के कारण होता है।
चन्द्रमा मन का कारक है,और वह जब बलवान होकर सप्तम भाव या सप्तमेश से सम्बन्ध रखता हो तो चौबीसवें साल तक विवाह करवा ही देता है।
अष्टकूट मिलान(वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट और नाड़ी) आवश्यक है और ठीक न हो तो भी वैचारिक मतभेद रहता है।
जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में चन्द्र, बुध, गुरु या शुक्र उपस्थित होता है, उसे धनवान पति प्राप्त होता है।
जब सप्तमेश एकादश भाव में उपस्थित हो तो जातक की पत्नी रूपवती, संस्कारयुक्त, मृदुभाषी व सुंदर होती है तथा विवाह के पश्चात जातक की आर्थिक आय में वृद्धि होती है या पत्नी के माध्यम से भी उसे आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं।

क्यों हे आजकल मेलापक की जरुरत/आवश्यकता—
विवाह योग्य वर वधु का भली-भांति विचार कर इन दोनों का मेलापक मिलान करना चाहिए| दम्पति की प्रकृति, मनोवृति एंव अभिरुचि तथा स्वाभावगत अन्य विशेषताओं में कितनी समानता है| यह हम नक्षत्र मेलापक से जान सकते है प्रणय या दांम्पत्य संबधों के लिए वर वधु का मेलापक अनिवार्य रूप से विचारणीय है|
कुछ लोग यह कह सकते है कि ज्योतिषियों द्धारा मेलापक के बाद किए गये विवाह भी बहुधा असफल होते देखें गये है| अनेक दांम्पत्यो में वैचारिक मतभेद या वैमनस्य रहता है|
अनेक युगल गृह-क्लेश से परेशान होकर तलाक ले लेते है तथा अनेक लोग धनहीन, सन्तानहीन या प्रेमहीन होकर बुझे मन से गाड़ी ढकेलते देखें जाते है|
मेलापक का विचार करने के बाद विवाह करना सुखमय दांमपत्य जीवन की क्या गारंटी है|
यह कैसे कहां जा सकता है इस प्रकार की शंकाएं अनेकलोगों के मन में रहती है ज्योतिषी द्धारा मेलापक मिलवाने के बाद विवाह करने पर भी काफी लोगों का दांमपत्य जीवन आज सुखमय नहीं है इसके कुछ कारण है —-
1 बिना जन्मपत्री मिलाएं विवाह करना
2 नकली जन्मपत्री बनवाकर मिलान करवाना
3 प्रचलित नाम से मिलान करवाना
4 जन्मकुंडली का ठीक न होना
5 जिस किसी व्यक्ति से जन्मपत्रियों का मिलान का निणर्य करा लेना|
जिस किसी से मिलवान करा लेना आज ज्योतिष कुछ ऐसे लोगों के हाथों में फंस गया है जिनको ज्योतिष शास्त्र की यथार्थ जानकारी तो क्या प्रारंभिक बातें भी ठीक-ठीक रूप से पता नहीं है ज्योतिष शास्त्र से अनभिज्ञ ज्योतिषीयो की संख्या हमारे देश में ज्यादा है यधपि तो पांच प्रतिशत व्यक्ति ज्योतिष शास्त्र के अधिकारी विदा्न भी है किन्तु मेलापक का कार्य करने वाले लोगों में अधिकांश लोग इस शास्त्र की पुरी जानकारी नही रखते|
जो लोग इस शास्त्र के अच्छे ज्ञाता या विद्वान है सामान्य लोग उनके पास पहुंच नहीं पाते तथा ये विद्वान अपने स्तर से उतर कर कार्य नहीं करते| इन्ही कारणों से मेलापक का कार्य अनेक नीम-हकीम ज्योतिषीयो द्दारा हो जाता है|
कुडंलीयो का मेलापक करना या विधी मिलाना एक जिम्मेदारीपूर्ण कार्य है| जिसमें सुझबुझ की आवश्यकता है| बोलते नाम से नक्षत्र व राशियां ज्ञात कर उनके आधार पर रेडीमेड मेलापक सारणी से गुण संख्या निकाल लेते है यदि 18 से गुण कम हो तो विवाह को अस्वीकृत कर देते है|
यदि 18 से ज्यादा गुण हो तो विवाह की स्वीकृति दे देते है यदि जन्मपत्री उपलब्ध हो तो यह देखते हैं कि वर कि कुडंली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्धादश, में मंगल तो नहीं है|
अगर मंगल इन्ही भावों में हो तो कन्या की कुडंली में इन्ही भावों में मंगल ढुढते है| यदि कन्या कि कुडंली में इन्ही भावो में मंगल मिला तो गुण-दोष का परिहार बता देते है|
मंगल की बजाय यदि इन्ही भावों में से किसी में शनि, राहु, केतु, या सूर्य मिल जाय तो भी गुण दोष का परिहार बताकर जन्मपत्रियों के मिल जाने की घोषणा 5-10 मिनटों में ही कर देते है|
मेलापक करना एक उत्तरदायित्य पूर्ण कार्य है इसे नामधारी ज्योतिषी दो अपरिचित व्यक्तीयो के भावी भाग्य एवं दामपत्य जीवन का फैसला कर देता है यह कैसी विडम्बना है कि आज हर एक पण्डित, करमकाण्डी, कथावाचक, पुजारी, साधु एवं सन्यासी स्वयं को ज्योतिषी बतलाने में लगा हुआ है|
इससे भी दुभाग्य की बात यह है कि जनता ऐसे तथाकथित ज्योतिषीयों के पास अपने भाग्य का निणर्य कराने, मुहूर्त और मेलापक पूछने जाती है तथा ये नामधारी ज्योतिषी लोगों के भाग्य का फैसला चुटकियाँ बजाते-बजाते कर देते है| यही कारण है कि इन लोगों से मेलापक मिलवाने के बाद ही वैवाहिक जीवन सुखमय न होने के असंख्य उदाहरण सामने आते है|
मै यह नहीं कहता कि पण्डित, करमकाण्डी, कथावाचन या पुजारियों में सभी लोग ज्योतिष से अनभिज्ञ होते है इनमें भी कुछ लोग ज्योतिष शास्त्र के अच्छे ज्ञात होते है परन्तु इनकी संख्या प्रतिशत की दष्टि काफी कम है| ज्योतिष को न जानने वाले लोगो की संख्या सवाधिक है|
मेरी राय में मेलापक का विचार ज्योतिष शास्त्र के अच्छे विद्वान से कराना चाहिए| उन्हें विचार करने के लिए भी पुरा अवसर देना चाहिए| मेलापक विचार कोई बच्चों का खेल नहीं है यह एक गूढ़ विषय है, जिसका सावधानी पूवर्क विचार करना चाहिए तथा नक्षत्र मेलापक के साथ-साथ लड़के की कुडंली से स्वास्थ्य, शिक्षा, भाग्य, आयु, चरित्र एवं संतान क्षमता का विचार अवश्य है| कन्या की कुडंली से स्वा स्वास्थ्य, स्वभाव, भाग्य, आयु, चरित्र एवं प्रजनन क्षमता का विचार कर लेना चाहिए|
बाधक योग—–
जन्म कुंडली में 6, 8, 12 स्थानों को अशुभ माना जाता है। मंगल, शनि, राहु-केतु और सूर्य को क्रूर ग्रह माना है। इनके अशुभ स्थिति में होने पर दांपत्य सुख में कमी आती है।
-सप्तमाधिपति द्वादश भाव में हो और राहू लग्न में हो, तो वैवाहिक सुख में बाधा होना संभव है।
-सप्तम भावस्थ राहू युक्त द्वादशाधिपति से वैवाहिक सुख में कमी होना संभव है। द्वादशस्थ सप्तमाधिपति और सप्तमस्थ द्वादशाधिपति से यदि राहू की युति हो तो दांपत्य सुख में कमी के साथ ही अलगाव भी उत्पन्न हो सकता है।
-लग्न में स्थित शनि-राहू भी दांपत्य सुख में कमी करते हैं।
-सप्तमेश छठे, अष्टम या द्वादश भाव में हो, तो वैवाहिक सुख में कमी होना संभव है।
-षष्ठेश का संबंध यदि द्वितीय, सप्तम भाव, द्वितीयाधिपति, सप्तमाधिपति अथवा शुक्र से हो, तो दांपत्य जीवन का आनंद बाधित होता है।
-छठा भाव न्यायालय का भाव भी है। सप्तमेश षष्ठेश के साथ छठे भाव में हो या षष्ठेश, सप्तमेश या शुक्र की युति हो, तो पति-पत्नी में न्यायिक संघर्ष होना भी संभव है।
-यदि विवाह से पूर्व कुंडली मिलान करके उपरोक्त दोषों का निवारण करने के बाद ही विवाह किया गया हो, तो दांपत्य सुख में कमी नहीं होती है। किसी की कुंडली में कौन सा ग्रह दांपत्य सुख में कमी ला रहा है। इसके लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह लें।

विवाह योग के लिये जो कारक मुख्य है वे इस प्रकार हैं-
सप्तम भाव का स्वामी खराब है या सही है वह अपने भाव में बैठ कर या किसी अन्य स्थान पर बैठ कर अपने भाव को देख रहा है।
सप्तम भाव पर किसी अन्य पाप ग्रह की द्रिष्टि नही है।
कोई पाप ग्रह सप्तम में बैठा नही है।
यदि सप्तम भाव में सम राशि है।
सप्तमेश और शुक्र सम राशि में है।
सप्तमेश बली है।
सप्तम में कोई ग्रह नही है।
किसी पाप ग्रह की द्रिष्टि सप्तम भाव और सप्तमेश पर नही है।
दूसरे सातवें बारहवें भाव के स्वामी केन्द्र या त्रिकोण में हैं,और गुरु से द्रिष्ट है।
सप्तमेश की स्थिति के आगे के भाव में या सातवें भाव में कोई क्रूर ग्रह नही है।

विवाह नही होगा अगर—–
सप्तमेश शुभ स्थान पर नही है।
सप्तमेश छ: आठ या बारहवें स्थान पर अस्त होकर बैठा है।
सप्तमेश नीच राशि में है।
सप्तमेश बारहवें भाव में है,और लगनेश या राशिपति सप्तम में बैठा है।
चन्द्र शुक्र साथ हों,उनसे सप्तम में मंगल और शनि विराजमान हों।
शुक्र और मंगल दोनों सप्तम में हों।
शुक्र मंगल दोनो पंचम या नवें भाव में हों।
शुक्र किसी पाप ग्रह के साथ हो और पंचम या नवें भाव में हो।
शुक्र बुध शनि तीनो ही नीच हों।
पंचम में चन्द्र हो,सातवें या बारहवें भाव में दो या दो से अधिक पापग्रह हों।
सूर्य स्पष्ट और सप्तम स्पष्ट बराबर का हो।

विवाह में देरी——
सप्तम में बुध और शुक्र दोनो के होने पर विवाह वादे चलते रहते है,विवाह आधी उम्र में होता है।
चौथा या लगन भाव मंगल (बाल्यावस्था) से युक्त हो,सप्तम में शनि हो तो कन्या की रुचि शादी में नही होती है।
सप्तम में शनि और गुरु शादी देर से करवाते हैं।
चन्द्रमा से सप्तम में गुरु शादी देर से करवाता है,यही बात चन्द्रमा की राशि कर्क से भी माना जाता है।
सप्तम में त्रिक भाव का स्वामी हो,कोई शुभ ग्रह योगकारक नही हो,तो पुरुष विवाह में देरी होती है।
सूर्य मंगल बुध लगन या राशिपति को देखता हो,और गुरु बारहवें भाव में बैठा हो तो आध्यात्मिकता अधिक होने से विवाह में देरी होती है।
लगन में सप्तम में और बारहवें भाव में गुरु या शुभ ग्रह योग कारक नही हों,परिवार भाव में चन्द्रमा कमजोर हो तो विवाह नही होता है,अगर हो भी जावे तो संतान नही होती है।
महिला की कुन्डली में सप्तमेश या सप्तम शनि से पीडित हो तो विवाह देर से होता है।
राहु की दशा में शादी हो,या राहु सप्तम को पीडित कर रहा हो,तो शादी होकर टूट जाती है,यह सब दिमागी भ्रम के कारण होता है।

विवाह का समय—–
सप्तम या सप्तम से सम्बन्ध रखने वाले ग्रह की महादशा या अन्तर्दशा में विवाह होता है।
कन्या की कुन्डली में शुक्र से सप्तम और पुरुष की कुन्डली में गुरु से सप्तम की दशा में या अन्तर्दशा में विवाह होता है।
सप्तमेश की महादशा में पुरुष के प्रति शुक्र या चन्द्र की अन्तर्दशा में और स्त्री के प्रति गुरु या मंगल की अन्तर्दशा में विवाह होता है।
सप्तमेश जिस राशि में हो,उस राशि के स्वामी के त्रिकोण में गुरु के आने पर विवाह होता है।
गुरु गोचर से सप्तम में या लगन में या चन्द्र राशि में या चन्द्र राशि के सप्तम में आये तो विवाह होता है।
गुरु का गोचर जब सप्तमेश और लगनेश की स्पष्ट राशि के जोड में आये तो विवाह होता है।
सप्तमेश जब गोचर से शुक्र की राशि में आये और गुरु से सम्बन्ध बना ले तो विवाह या शारीरिक सम्बन्ध बनता है।
सप्तमेश और गुरु का त्रिकोणात्मक सम्पर्क गोचर से शादी करवा देता है,या प्यार प्रेम चालू हो जाता है।
चन्द्रमा मन का कारक है,और वह जब बलवान होकर सप्तम भाव या सप्तमेश से सम्बन्ध रखता हो तो चौबीसवें साल तक विवाह करवा ही देता है।

तलाक/विवाह विच्छेद के प्रमुख कारक———-
राहु तथा केतु गृह–
ज्योतिष शास्त्रानुसार राहु तथा केतु छाया ग्रह हैं। राहु या केतु जिस भाव में बैठते हैं, उस भाव के स्वामी के समान बन जाते हैं तथा जिस ग्रह के साथ बैठते हैं, उस ग्रह के गुण ग्रहण कर लेते हैं। राहु, शनि के अनुरू प विच्छोदात्मक ग्रह हैं। अत: ये जिस भाव में होता है संबंधित भाव में विच्छेद कर देता है। उदाहरण के लिए ये चौथे भाव में होने पर माता से विच्छेद, पांचवें भाव में होने पर पुत्र से, सप्तम में होने पर पत्नी से, दसवें भाव में होने पर पिता से विच्छेद करा देता है। केतु ग्रह जिस ग्रह के साथ बैठता है उसके प्रभाव को बहुत अधिक बढ़ा देता है।
ऋषि पराशर मत में राहु की उच्च राशि वृषभ तथा केतु की उच्च राशि वृश्चिक मानी गई है। अन्य ज्योतिषियों ने राहु की उच्च राशि मिथुन तथा केतु की उच्च राशि धनु मानी है। वर्तमान में यही मत प्रभावी है। अत: ये दोनों ग्रह अपना शुभाशुभ फल किसी अन्य ग्रह के सहयोग से दे पाते हैं। तीसरे, छठे, दसवें भाव का कारक ग्रह राहु है। दूसरे तथा आठवें भाव का कारक ग्रह केतु है।
राहु-केतु से निर्मित विशिष्ट अशुभ योग-
===जब चंद्र, सूर्य ग्रह राहु के संसर्ग में आते हैं, तो कुंडली में ग्रहण योग निर्मित होता है। जो कि एक अशुभ योग है।
===राहु और केतु के मध्य सभी ग्रह आ जाने पर कुंडली में कालसर्प योग निर्मित होता है।
सावधानी:—इस योग के अध्ययन में ध्यान रखना चाहिए कि राहु मुख का कारक है। जब ग्रह केतु से राहु की ओर अग्रसर होते हैं, तो उस स्थिति में सभी ग्रहों का ग्रहण काल की ओर अग्रसर होना कहलाता है। वे ग्रह राहु के मुख में जाकर पीडि़त होते हैं। [यह एक अशुभ योग है]।
जब ग्रह राहु से केतु के मध्य होते हैं, तो उस स्थिति को ग्रहण से मुक्ति की स्थिति कहते हैं। क्योंकि सभी ग्रह राहु के मुख से बाहर की ओर अग्रसर होते हैं। अगर कुंडली में ये योग पाए जाते हैं, तो भी डरने की आवश्यकता नहीं है।

मंगल का सप्तम में प्रभाव—
मंगल का सप्तम में होना पति या पत्नी के लिये हानिकारक माना जाता है,उसका कारण होता है कि पति या पत्नी के बीच की दूरिया केवल इसलिये हो जाती है क्योंकि पति या पत्नी के परिवार वाले जिसके अन्दर माता या पिता को यह मंगल जलन या गुस्सा देता है,जब भी कोई बात बनती है तो पति या पत्नी के लिये सोचने लायक हो जाती है,और अक्सर पारिवारिक मामलों के कारण रिस्ते खराब हो जाते है।
पति की कुंडली में सप्तम भाव मे मंगल होने से पति का झुकाव अक्सर सेक्स के मामलों में कई महिलाओं के साथ हो जाता है,और पति के कामों के अन्दर काम भी उसी प्रकार के होते है जिनसे पति को महिलाओं के सानिध्य मे आना पडता है।
पति के अन्दर अधिक गर्मी के कारण किसी भी प्रकार की जाने वाली बात को धधकते हुये अंगारे की तरफ़ मारा जाता है,जिससे पत्नी का ह्रदय बातों को सुनकर विदीर्ण हो जाता है,अक्सर वह मानसिक बीमारी की शिकार हो जाती है,उससे न तो पति को छोडा जा सकता है और ना ही ग्रहण किया जा सकता है,पति की माता और पिता को अधिक परेशानी हो जाती है,माता के अन्दर कितनी ही बुराइयां पत्नी के अन्दर दिखाई देने लगती है,वह बात बात में पत्नी को ताने मारने लगती है,और घर के अन्दर इतना क्लेश बढ जाता है कि पिता के लिये असहनीय हो जाता है,या तो पिता ही घर छोड कर चला जाता है,अथवा वह कोर्ट केश आदि में चला जाता है,इस प्रकार की बातों के कारण पत्नी के परिवार वाले सम्पूर्ण जिन्दगी के लिये पत्नी को अपने साथ ले जाते है।
पति की दूसरी शादी होती है,और दूसरी शादी का सम्बन्ध अक्सर कुंडली के दूसरे भाव से सातवें और ग्यारहवें भाव से होने के कारण दूसरी पत्नी का परिवार पति के लिये चुनौती भरा हो जाता है,और पति के लिये दूसरी पत्नी के द्वारा उसके द्वारा किये जाने वाले व्यवहार के कारण वह धीरे धीरे अपने कार्यों से अपने व्यवहार से पत्नी से दूरियां बनाना शुरु कर देता है,और एक दिन ऐसा आता है कि दूसरी पत्नी पति पर उसी तरह से शासन करने लगती है जिस प्रकार से एक नौकर से मालिक व्यवहार करता है,जब भी कोई बात होती है तो पत्नी अपने बच्चों के द्वारा पति को प्रताणित करवाती है,पति को मजबूरी से मंगल की उम्र निकल जाने के कारण सब कुछ सुनना पडता है।
मंगली दोष के उपाय—-
लगन दूसरे भाव चतुर्थ भाव सप्तम भाव और बारहवें भाव के मंगल के लिये वैदिक उपाय बताये गये है,सबसे पहला उपाय तो मंगली जातक के साथ मंगली जातक की ही शादी करनी चाहिये। लेकिन एक जातक मंगली और उपरोक्त कारण अगर मिलते है तो दूसरे मे देखना चाहिये कि मंगल को शनि के द्वारा कहीं द्रिष्टि तो नही दी गयी है,कारण शनि ठंडा ग्रह है और जातक के मंगल को शांत रखने के लिये काफ़ी हद तक अपना कार्य करता है,दूसरे पति की कुंडली में मंगल असरकारक है और पत्नी की कुंडली में मंगल असरकारक नहीं है तो शादी नही करनी चाहिये।
वैसे मंगली पति और पत्नी को शादी के बाद लालवस्त्र पहिन कर तांबे के लोटे में चावल भरने के बाद लोटे पर सफ़ेद चन्दन को पोत कर एक लाल फ़ूल और एक रुपया लोटे पर रखकर पास के किसी हनुमान मन्दिर में रख कर आना चाहिये। चान्दी की चौकोर डिब्बी में शहद भरकर रखने से भी मंगल का असर कम हो जाता है,घर में आने वाले महिमानों को मिठाई खिलाने से भी मंगल का असर कम रहता है,मंगल शनि और चन्द्र को मिलाकर दान करने से भी फ़ायदा मिलता है,मंगल से मीठी शनि से चाय और चन्द्र से दूध से बनी पिलानी चाहिये।
सातवें भाव का अर्थ—-
जन्म कुन्डली का सातंवा भाव विवाह पत्नी ससुराल प्रेम भागीदारी और गुप्त व्यापार के लिये माना जाता है। सातवां भाव अगर पापग्रहों द्वारा देखा जाता है,उसमें अशुभ राशि या योग होता है,तो स्त्री का पति चरित्रहीन होता है,स्त्री जातक की कुंडली के सातवें भाव में पापग्रह विराजमान है,और कोई शुभ ग्रह उसे नही देख रहा है,तो ऐसी स्त्री पति की मृत्यु का कारण बनती है,परंतु ऐसी कुंडली के द्वितीय भाव में शुभ बैठे हों तो पहले स्त्री की मौत होती है,सूर्य और चन्द्रमा की आपस की द्रिष्टि अगर शुभ होती है तो पति पत्नी की आपस की सामजस्य अच्छी बनती है,और अगर सूर्य चन्द्रमा की आपस की १५० डिग्री,१८० डिग्री या ७२ डिग्री के आसपास की युति होती है तो कभी भी किसी भी समय तलाक या अलगाव हो सकता है।
केतु और मंगल का सम्बन्ध किसी प्रकार से आपसी युति बना ले तो वैवाहिक जीवन आदर्शहीन होगा,ऐसा जातक कभी भी बलात्कार का शिकार हो सकता है,स्त्री की कुंडली में सूर्य सातवें स्थान पर पाया जाना ठीक नही होता है,ऐसा योग वैवाहिक जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है,केवल गुण मिला देने से या मंगलीक वाली बातों को बताने से इन बातों का फ़ल सही नही मिलता है,इसके लिये कुंडली के सातंवे भाव का योगायोग देखना भी जरूरी होता है।

सातवां भाव और पति पत्नी—-
सातवें भाव को लेकर पुरुष जातक के योगायोग अलग बनते है,स्त्री जातक के योगायोग अलग बनते है,विवाह करने के लिये सबसे पहले शुक्र पुरुष कुंडली के लिए और मंगल स्त्री की कुन्डली के लिये देखना जरूरी होता है,लेकिन इन सबके बाद चन्द्रमा को देखना भी जरूरी होता है,मनस्य जायते चन्द्रमा,के अनुसार चन्द्रमा की स्थिति के बिना मन की स्थिति नही बन पाता है। पुरुष कुंडली में शुक्र के अनुसार पत्नी और स्त्री कुंडली में मंगल के अनुसार पति का स्वभाव सामने आ जाता है।

स्त्री कुन्डली में ग्रह-फ़ल—
भाव– सूर्य– चन्द्र —मंगल— बुध— गुरु —शुक्र —शनि— राहु— केतु—

1st —क्रोधी अल्पायु विधवा भाग्यवान परिव्रता सुखी बांझ नि:संतान दुखी
2nd —गरीब धनी नि:संतान धनी धनी भाग्यवान दुखी गरीब कपटी चिंतित
3rd —संतान अच्छी सुखी भाई नही संतान सहित अच्छे भाई धनी होशियार धनी रोगी
4th —-रोगी दुर्भागिन दुखी अच्छे घरवाली सुखी सुखी करुणावाली रोगी माता को कष्ट
5th —पुत्र से दुखी अच्छी संतान नि:संतान समझदार कलाकुशल बहुसंतान नि:संतान नि:संतान संतान से दुख
6th —सुखी रोगी स्वस्थ क्रोधी संकटवाली गरीब शिल्पी धनी धनी
7th —-दुखी पतिप्रिया विधवा पतिव्रता इज्जतदार पतिप्रिया विधवा दुखी पति से दुखी
8th —विधवा दुखी चरित्रहीन कृतघ्न रोगी दुखी दुखी पति से दुखी दुखी
9th —धार्मिक बेकार संतान शुभकार्य शिष्ट धनी आचारहीन दुष्कर्मा दुष्कर्मा चिन्तित
10th —उच्चाभिलाषी धार्मिक बेकार संतान शुभकार्य सुशील धनी आचारहीन दुष्कर्मा आचारहीन
11th —-धनी कलाकुशल धनी पतिव्रता शिष्ट संतान अतिधनी शिष्ट संतान स्वस्थ भाग्यवान
12th —-क्रोधी अपंग पापिनी वैरागिन शुभव्यय शुभकार्य मूर्ख मक्कार बीमार

पुरुष कुण्डली में ग्रह फ़ल—-
भाव– सूर्य– चन्द्र —मंगल— बुध— गुरु —शुक्र —शनि— राहु— केतु—

1st —बहादुर सुखी घायल सुखी विद्वान सुखी दुखी बीमार अय्याश
2nd —-गरीब धनी ऋणी विद्वान धनी धनी निर्धन निर्धन पापी
3rd —स्वस्थ सराहनीय साहसी विजयी पापी पापी साहसी साहसी बहादुर
4th —दुखी सुखी दुखी सुखी सुखी सुखी दुखी घर में अशुभ दुखी
5th —-कम संतान बहुसंतान नि:संतान निकम्मी संतान प्रतापी बुद्धिमान संतान से कष्ट कुबुद्धि निर्बुद्धि
6th—- विजयी अल्पायु विजयी बीमार अय्याश रोगी विजयी बहादुर शक्तिवान
7th —कुलटा स्त्री सुभार्या पत्नी से कष्ट धर्मात्मा सुभार्या अय्याश कुलटा स्त्री रोगी पत्नी कुभार्या
8th —अल्पायु रोगी शरारती कलाकुशल अल्पायु आचारहीन नेत्ररोगी रोगी कलहकर्ता
9th –धर्मी आचारहीन सुखी धर्मी तपस्वी अधर्मी वक्ता कुलपालक
10th —-बहादुर पितृहीन कटुवक्ता राजपुरुष अधर्मी स्त्रीपालक गरीब इज्जतदार पिता को कष्ट
11th —–धनी धनी धनी धनी धनी बुद्धिमान धनी विख्यात धनी

आपकी राशि और पारिवारिक सम्बन्ध—–
किसी एक परिवार में जन्म तिथि के भिन्न होने से भिन्न भिन्न राशि के लोग रहते है.आपके परिवार में भिन्न राशि के लोग यदि रह रहे हों तो आपका उनके साथ सामंजस्य कैसा हो सकता है, आइये जानते हैं:—
मेष :— तुला राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. कन्या और वृश्चिक राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के दक्षिण पश्चिम किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
वृषभ :—- वृश्चिक राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. तुला और धनु राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के दक्षिण पूर्वी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
मिथुन :— धनु राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. वृश्चिक और मकर राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के उत्तरी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
कर्क :— मकर राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. धनु और कुम्भ राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के उत्तर पश्चिम किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
सिंह :—कुम्भ राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. मकर और मीन राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के पूर्वी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
कन्या :— मीन राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. कुम्भ और मेष राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के उत्तरी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
तुला :—- मेष राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. मीन और वृषभ राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के दक्षिण पूर्वी या पूर्वी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
वृश्चिक :— वृषभ राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. मेष और मिथुन राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के दक्षिणी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
धनु:—- मिथुन राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. वृषभ और कर्क राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के उत्तर पूर्वी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
मकर :— कर्क राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. मिथुन और सिंह राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के पश्चिमी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
कुम्भ :—- सिंह राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. कर्क और कन्या राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के उत्तर पश्चिमी या पश्चिमी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.
मीन :—- कन्या राशि के जातकों से सम्बन्ध श्रेष्ठ. सिंह और तुला राशि वालों से कष्ट. शेष से सामान्य. घर के पूर्वी या उत्तर पूर्वी किनारे पर रहें तो पारिवारिक शांति और प्रगति होगी.

कैसे जानें कि पति-पत्नी के मध्य संबंध कैसे होंगे?
जब आप यह जान जाएंगे कि पति-पत्नी के मध्य पारस्परिक संबंध कैसे होंगे, तो यह भी निश्चित कर सकेंगे कि पारिवारिक कलह होगी या नहीं।
यदि आपके पास वर-वधू अथवा पति-पत्नी की कुंडलियां हों तो आप पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार पांच प्रकार से कर सकते हैं-
===लग्नेश व सप्तमेश की स्थिति से
===लग्नेश, जन्म राशी व सप्तमेश की स्थिति से
====नवमांश कुंडली के विश्लेषण से
===अष्टक वर्ग द्वारा
===मेलापक द्वारा लग्नेश व सप्तमेश की स्थिति से पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार करने के लिए कुंडली में अधोलिखित पांच ज्योतिषीय योगों का विश्लेषण करें।
लग्नेश सप्तम भाव में एवं सप्तमेश लग्न भाव में स्थित हो तो पति-पत्नी के बीच उत्तम प्रीति रहती है। लग्नेश एवं सप्तमेश के मध्य परस्पर दृ ष्टि सं बंध होने पर पति-पत्नी के संबंध मधुर रहते हैं।
लग्नेश एवं सप्तमेश परस्पर युत हों तो पति-पत्नी में आजीवन उत्तम सामंजस्य बना रहता है। लग्नेश सप्तम भाव में स्थित हो तो जातक पत्नी का भक्त होता है और उसके अनुसार चलता है। सप्तमेश लग्न में हो तो पत्नी पति की आज्ञाकारिणी होती है।
यदि इन योगों में से दो या दो से अधिक योग कुंडली में हों तो समझ लें कि पति-पत्नी के मध्य संबंध अच्छे रहेंगे।
यदि लग्नेश और सप्तमेश के स्वामियों के मध्य परस्पर पंचधा मैत्री विचार करने पर पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार करने के लिए कुंडली में अधोलिखित पांच ज्योतिषीय योगों का विश्लेषण करें। लग्नेश सप्तम भाव में एवं सप्तमेश लग्न भाव में स्थित हो तो पति-पत्नी के बीच उत्तम प्रीति रहती है।
लग्नेश एवं सप्तमेश के मध्य परस्पर दृ ष्टि संबंध होने पर पति-पत्नी के संबंध मधुर रहते हैं।
लग्नेश एवं सप्तमेश परस्पर युत हों तो पति-पत्नी में आजीवन उत्तम सामंजस्य बना रहता है।
लग्नेश सप्तम भाव में स्थित हो तो जातक पत्नी का भक्त होता है और उसके अनुसार चलता है।
सप्तमेश लग्न में हो तो पत्नी पति की आज्ञाकारिणी होती है। यदि इन योगों में से दो या दो से अधिक योग कुंडली में हों तो समझ लें कि पति-पत्नी के मध्य संबंध अच्छे रहेंगे।
यदि लग्नेश और सप्तमेश के स्वामियों के मध्य परस्पर पंचधा मैत्री विचार करने पर लग्नेश राहु या केतु के साथ हो तो जातक की स्त्री पति के विरुद्ध आचरण करने वाली, कलहकारी एवं कठोर वाणी का प्रयोग करने वाली होती है।
नवमांश स्वामी बारहवें भाव में हो तो जातक अपनी स्त्री से संतुष्ट नहीं रहता है। यदि नवमांश स्वामी पापग्रह हो और पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो उसकी स्त्री कटु वचन बोलने वाली एवं कलहकारी होती है।

ये वास्तु उपाय करें पारिवारिक शांति के लिये —-
पारिवरिक शांति के लिये वास्तु कैसा हो?
वैसे तो वास्तु का प्रभाव सभी मनुष्यों पर एक समान नही पड़ता लेकिन सार्वभौमिक वस्तु की चर्चा करें,तो दक्षिण मुखी द्वार, ईशान कोण की अशुद्धि या कटा होना, आग्नेय कोण पर बहुत अधिक पानी का बहना और इसी तरह के अन्य कई कारण पारिवारिक अशांति का कारण बनते हैं.वैसे तो वास्तु सम्मत बहुत से सिद्धांत हैं, जो पारिवारिक शांति के उपाय को बताते हैं,लेकिन यदि कुछा आधारभूत बातों क ध्यान रख जाये तो किसी भी तरह की पारिवारिक अशांति का सामना नही करना पड़ता.
1. परिवार के मुखिया को घर के दक्षिणी किनारे पर नही रहना चाहिये.
2. वैसे तो कमरे से टॉयलेट का अटैच होना वास्तु सम्मत नही है, लेकिन जगह का अभाव होने से यह परम्परा चल पड़ी है. कारपेट एरिया में दो टायलेट न हो इसका ध्यान रखें. यदि बने हुए हैं तो उनके रंग गाढ़े नीले हों और उस स्थान पर फिटकरी और नमक रखें.
3. घर की दीवाल से पाँच फिट के अन्दर बरगद, पीपल, कटहल इत्यादि के वृक्ष न हों.
4. दरवाजा दुरुस्त हो. साँकल या ताले में कोई दोष न हो.
5. घर की दक्षिण पश्चिम दिशा में टूटे फूटे सामान न रखें.
6. घर के सामने कांटे के वृक्ष या पौधे न लगावें।

पारिवारिक शांति के लिये करें ये उपाय
1. प्रतिदिन घर के आंगन में या द्वार पर सुगन्धित जल का छिड़काव करें और यथा सम्भव सफेद रांगोली बनावें.
2. घर के ड्राईंग रूम में पान के पत्तों पर हल्दी रखकर पूर्वी किनारें पर रखें. प्रतिदिन या प्रत्येक गुरुवार को बदल दें.
3. यदि घर में वैचारिक मतभेद हॉं तो एक कलश में ईलाईची और सुपारी डालकर पानी से भर दें और घर के मध्य में किसी ऊँचे स्थान पर रख दें. सायंकाल इस जल को घर में छिड़क दें. दो सप्ताह इस प्रक्रिया को दोहरायें.
4. आम की लकड़ी का स्वास्तिक बनवा कर घर के ईशान कोण में, पुष्य नक्षत्र वाले दिन मंत्रोच्चारण से स्थापित करवायें. पारिवारिक शांति अवश्य आयेगी.
5. संतान की प्रसन्नता और अच्छे आचरण के लिये, सोमवार को घर का प्रत्येक सदस्य श्वेत या हल्के रंग का वस्त्र धारण करें और सायंकालीन समय में एकत्रित हों तो लाभ होगा.

ऐसे हों पत्नी के गुण—–
कार्येषु दासी करणेषु मंत्री रूपे च लक्ष्मी क्षमया धरित्री |
भोज्येषु माता शयनेषु रंभा षट्कर्म युक्ता कुलधर्म पत्नी ||

ज्योतिष और महिलाओं का कार्यक्षेत्र——–
ज्योतिषशास्त्र में स्त्री के व्यक्तित्व और चरित्र पर बड़े ही विस्तार से प्रकाश डाला है। सारावली के ग्रंथकार कल्याण वर्मा के अनुसार स्त्री की कुंडली में अष्टम भाव से वैधव्य, लग्न से शरीर, सप्तम भाव से पति सुख या सौभाग्य और पंचम से संतान का विचार करना चाहिए। महर्षि पाराशर इन विषयों से सहमत हैं तथा आगे कहते हैं कि अन्य फल पुरूष के समान ही ‍स्त्रियों का भी समझ लें परन्तु जो फल स्त्रियों की जन्मपत्रिका में असंभव हों, वे फल उनके पति के संबंध में कहे जाने चाहिए।
यदि जन्म के समय लग्न और चन्द्रमा दोनों सम राशि में हों तो वह कन्या स्त्रियोचित स्वभाव और अत्यन्त गुणवती, सुशीला, रूपवती और देह के सुखों से युक्त होती है। इसके विपरीत यदि चन्द्रमा और लग्न दोनों विषम राशि में हों तो वह कन्या पुरूष के सदृश् स्वभाव और आकृति वाली होती है। यदि इन पर पाप ग्रहों की दृष्टि या योग हो तो वह स्त्री गुणों से हीन हो जाती है। यदि लग्न और चन्द्रमा में से एक समराशि और एक विषमराशि में हो तो मिश्रित गुण देखे जाते हैं। मगर इसमें भी वह गुण अधिक मिलते हैं, जो लग्न बली होता है।
आजकल विषम लग्न या विषम राशि में चन्द्रमा या दोनों अधिक देखने को मिल रहे हैं, यही वजह है कि वर्तमान काल की महिलाएँ घरों का कार्य संपादित करने वाली गृहणी के साथ ही विभिन्न शासकीय, अशासकीय दफ्तरों में उच्चादि पदों का सफलता पूर्वक निर्वह कर रही हैं। हम स्त्री जातक के तहत त्रिशांश का अध्ययन करें या विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित स्त्रीलक्षणाध्याय का वर्णन करें, इससे पहले उपरोक्त योगों के बारे में आधुनिक व्याख्या करने की कोशिश करेंगे। यदि स्त्रियाँ ज्योतिष सीखती हैं, यदि स्त्रियाँ कम्प्यूटर सीखती हैं, स्कूटर, कार चलाती हैं, नौकरी करती हैं, सलाहकार बनती हैं, व्यावसायिक फर्मों में भागीदारी करती हैं तो उक्त योगों की शर्त पूरी हो जाती है। आजकल पुनर्विवाह, तलाक, आधुनिक शिक्षण प्रणालियाँ, खेल प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेना तथा इन सबसे बढ़कर चुनाव लड़कर लोकतांत्रिक संस्थाओं में पहुँचना विषम लग्न व विषम राशि में चन्द्रमा के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। विषम लग्न व विषम राशि में चन्द्रमा होने से ऐसा माना जाता है। स्त्रियाँ सामान्य से अधिक साहस का प्रदर्शन करती हैं। यदि वह स्त्री किसी से प्रेम कर रही हो तो विवाह के लिए दुस्साहस का प्रदर्शन कर सकती है। मान लीजिए माता-पिता ‍तथा समाज को वह कन्या विवाह के लिए मना लेती है, परन्तु उसके ग्रहजन्य दुस्साहस के अंश विद्यमान रहते हैं जो विवाह के कई वर्षों बाद अपना असर दिखाते हैं। इन विवाहों में असफलता की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। विवाह की रक्षा केवल तभी हो सकेगी जब कि विवाह सुख के उच्चाकोटि के योग मौजूद हों।

महिलाओं से संबंधित ज्योतिषीय योग——-
महिलाओं के संबंध में फलित कथन करने के लिए कुण्डली का अष्टम-सप्तम भाव से पति का सुख व त्रिंशांश से स्त्री के गुणों का अध्ययन किया जाना चाहिए। साथ ही अन्य भावों और ग्रहों का उसपर प्रभाव भी देखा जाना चाहिए। यहाँ ऐसे ही कुछ प्रमुख योगों की चर्चा की जाएगी जो विशेषकर महिलाओं से जुड़े प्रश्नों का समाधान करते हैं। यथा-
(1) यदि कुण्डली में लग्न अच्छी स्थिति में हो तथा चन्द्रमा, मंगल की राशि में ही स्थित हो तथा मंगल के ही त्रिंशांश में हो तो वह स्त्री दुष्ट स्वभाव की होती है। यदि मंगल की राशि में शुक्र के त्रिंशांश में लग्न या चन्द्रमा हो तो दुष्चरित्र होगी। यदि मंगल की राशि में बुध की त्रिंशांश में लग्न या चन्द्रमा हो तो ढोंगी होगी। अर्थात्‍प्रकट रूप में पतिव्रता मिलेगी और मौका पाते ही अन्य पुरूषों को आकर्षित करेगी। इसके ठीक विपरीत यदि लग्न और चन्द्रमा इन दोनों में से जो भी बलवान हो, वह मंगल की राशि में हो तथा गुरू के त्रिंशांश में हो तो स्त्री सद्चरित्र होती है। यदि मंगल की राशि में स्थित शनि का त्रिंशांश हो तो स्त्री दासीकर्म करने वाली होती है।
(2) यदि लग्न या चन्द्रमा बलवान हो तथा बुध की राशि में स्थित हों व मंगल के त्रिंशांश में आ जाएँ तो स्त्री कपटपूर्ण आचरण करती है। त्रिंशांश अगर शुक्र का हो तो अधिक कामेच्छा वाली होती है। ऐसी स्त्री तभी घर में रह सकती है जब उसके पति के छठे या बारहवें भाव में शुक्र स्थित हो अन्यथा उसका जीवन निराशाजनक हो जाएगा। जब बुध की राशि में ही बुध का त्रिंशांश हो तो स्त्री गुणवती होती है।
(3) लग्न या चंद्रमा में जो बलवान हो वह बुध की राशि में हो और गुरू के त्रिंशाश में तो स्त्री पतिव्रता होती है और यदि बुध की राशि में बली चन्द्रमा या लग्न शनि के त्रिंशांश में आ जाए तो स्त्री शारीरिक रूप से नपुंसक या काम शून्य होती है। शनि और बुध का ऐसा संबंध बहुधा पुरूष या स्त्री को मनोचिकित्सकों के पास जाने को बाध्य करता है।
(4) यदि चन्द्रमा और लग्न दोनों में से जो भी बलवान हो वह शुक्र की राशि में हो तथा मंगल के त्रिंशांश में चले जाए तो वह दुष्चरित्र हो जाती है। यदि शुक्र के ही त्रिंशांश में चले जाएं तो वह स्त्री गुणों के कारण प्रसिद्ध हो जाती है। यदि शुक्र की राशि में स्थित बलवान लग्न या चन्द्रमा, बुध की त्रिंशांश में हो तो गीत-संगीत, वाद्य यंत्र प्रवीण, दूरदर्शन, फिल्म इत्यादि में कलाकार, कम्प्यूटर या टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ होती है। यदि शुक्र राशिगत चन्द्र-गुरू के त्रिंशांश में आ जाएं तो स्त्री गुणी और शनि के त्रिंशांश में आ जाएं तो एक पति की मृत्यु के पश्चात् पुनर्विवाह होता है।
(5) यदि बली लग्न या चन्द्रमा कर्क राशि में स्थित हों और मंगल के त्रिंशांश में हों तो स्त्री मनचली हो जाती है। यदि चन्द्रमा की राशि में स्थित होकर शुक्र के त्रिंशांश में हों तो स्त्री फिल्म कलाकारों की भाँति हो जाती है, जहाँ पुरूष ऐसे बदले जाते हैं जैसे शरीर पर कप़डे। यदि चन्द्रमा की राशि में स्थित लग्न या चन्द्रमा, बुध के त्रिंशांश में हों तो स्त्री चित्रकार हो सकती है। डॉक्टर या वैद्य भी हो सकती है। बृहस्पति के त्रिंशांश में हों तो स्त्री अत्यंत गुणवती, शनि का यदि त्रिंशांश हो तो पतिहन्ता होती है। ऐसी स्त्रियाँ परपुरूष से संपर्क में आने के बाद पति का नाश करने का उपाय सोचने लगती हैं।
(6) यदि लग्न या चन्द्रमा में जो बली हो, वह सिंह राशि में हो तथा मंगल के त्रिंशांश हों तो स्त्री वाचाल, यदि शुक्र के त्रिंशांश हों तो पतिव्रता स्त्री, यदि बुध के त्रिंशांश में हो तो पुरूष की बराबरी करने वाली, बृहस्पति के त्रिंशांश में विलासिता के साधन प्राप्त करने वाली और शनि के त्रिंशांश में हो तो कुछ अद्भुत करने वाली स्त्री होती है। यदि लग्न या चन्द्रमा बृहस्पति की राशि में हों और मंगल के त्रिंशांश में हों तो गुणवान स्त्री, शुक्र के त्रिंशांश में हों तो चंचला, बुध के त्रिंशांश में हों तो प्रतिभाशाली, बृहस्पति के त्रिंशांश में हों तो आध्यात्म बल से युक्त और शनि के त्रिंशांश में हो तो कम कामेच्छा वाली स्त्री होती है। यदि लग्न या चन्द्रमा में जो बलवान हो, वह शनि की राशि में स्थित होकर मंगल के त्रिंशांश में हो तो स्त्री दासी होती है, शुक्र के त्रिंशांश में हो तो बुद्धिमान, बुध के त्रिंशांश में हो तो दुष्टमति होती है।

जन्म कुंडली में मांगलिक दोष एवं उसका निदान—-
विवाह के अवसर पर वर एवं वधू की कुण्डली मिलान करते समय अष्टकूट के साथ-साथ मांगलिक दोष पर भी विचार किया जाता है। इसे शास्त्रों में कुज दोष या भौम दोष का नाम भी दिया गया है। इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है, ताकि इसका भय दूर हो सके। भारतीय ज्योतिष के अनुसार यदि मंगल प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो तो मंगल दोष माना जाता है।
विद्वानों ने राशि से भी उक्त स्थानों पर मंगल के होने पर यह दोष बताया है। किसी भी जातक पत्रिका में यह योग हो तो उस कुण्डली या जातक को मंगली कहा जाता है। वर-वधू में से किसी एक की कुण्डली के इन भावों में मंगल हो तथा दूसरे की पत्रिका में नहीं तो ऐसी परिस्थिति को वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है तथा ज्योतिषी उन दोनों का विवाह न करने की सलाह दे देते हैं। यदि वर-वधू दोनों की कुण्डली में उक्त दोष हो तो विवाह करना शुभ समझा जाता है। यह दोष तब और प्रबल हो जाता है जब जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ अन्य क्रूर ग्रह (शनि, राहू, केतु) बैठे हों।
बृहत् पाराशर के अनुसारविकलः पाप संयुतः अर्थात्‍पापी ग्रह से युक्त ग्रह विकल अवस्था का होगा तथा दोष कारक होगा।
अतः शनि या राहु की युति से मांगलिक दोष में अभिवृद्धि हो जाती है।
‘‘नीचादी दुःस्थगे भूमिसुते बलविवर्जिते।
पापयुक्ते पापदृष्टे सादशा नेष्टदायिका।।’’ (बृहत् पाराशर होराशास्त्र)
मंगल दोष को लेकर भ्रम——
मंगल ग्रह को ज्योतिष ग्रंथों में रक्त प्रिय एवम हिंसा व विवाद का कारक कहा गया है। सातवाँ भाव जीवन साथी एवम गृहस्थ सुख का है। वहीं प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम तथा द्वादश भावों में स्थित मंगल अपनी दृष्टि या स्थिति से सप्तम भाव अर्थात्‍दाम्पत्य सुख को नुकसान पहुँचाता है।
ऐसे में अधकचरे ज्योतिषी कुण्डली में उपरोक्त स्थानों पर मंगल को देखकर वर या कन्या को तत्काल मंगली घोषित कर देते हैं, फिर चाहे मंगल नीच राशि में हो या उच्च में, मित्र राशि में हो या शत्रु में। मंगल दोष के परिहार को या तो अनदेखा किया जाता है या शास्त्रीय नियमों की अवहेलना करने वाले परिहार वाक्यों को लागू कर त्रुटियुक्त मिलान कर दिया जाता है। ऐसे में परिणाम भावी युगल एवं उनके परिवार को भोगना पड़ता है। अत: जरूरी है कि इन भावों में और मंगल को समझ लिया जाए।
लग्न भाव तथा मंगलदोष—-
लग्न (प्रथम) भाव से व्यक्ति का शरीर, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व का विचार किया जाता है। लग्न में मंगल होने से व्यक्ति उग्र एवं क्रोधी होता है। यह मंगल जिद्दी और आक्रमक भी बनाता है। इस भाव में उपस्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख सुख स्थान पर होने से गृहस्थ सुख में कमी आती है। सप्तम दृष्टि जीवन साथी के स्थान पर होने से पति पत्नी में विरोधाभास एवं दूरी बनी रहती है। अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि जीवनसाथी के लिए संकट कारक होता है।
चतुर्थ भाव तथा मंगलदोष—-
चतुर्थ में बैठा मंगल सप्तम, दशम एवं एकादश भाव को देखता है। यह मंगल स्थायी सम्पत्ति देता है परंतु गृहस्थ जीवन को कष्टमय बना देता है। मंगल की दृष्टि जीवनसाथी के गृह में होने से वैचारिक मतभेद बना रहता है। मतभेद एवं आपसी प्रेम का अभाव होने के कारण जीवनसाथी के सुख में कमी लाता है। मंगली दोष के कारण पति-पत्नी के बीच दूरियाँ बढ़ जाती हैं और दोष निवारण नहीं होने पर अलगाव भी हो सकता है।
सप्तम भाव तथा मंगलदोष—–
यह भाव जीवनसाथी का कारक होता है। इसमें बैठा मंगल वैवाहिक जीवन के लिए सर्वाधिक दोषपूर्ण माना जाता है। यहाँ से मंगली दोष होने से जीवनसाथी के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव बना रहता है। जीवनसाथी उग्र एवं क्रोधी स्वभाव का होता है। यह मंगल लग्न, धन एवं कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि रखता है। इस वजह से आर्थिक संकट, व्यवसाय एवं रोजगार में हानि एवं दुर्घटना की आशंका बनती है। यह चारित्रिक दोष उत्पन्न करता है एवं विवाहेतर सम्बन्ध भी बनाने के योग प्रबल कर देता है। पति-पत्नी में दूरियाँ बढ़ती है जिसके कारण रिश्ते बिखरने लगते हैं। संतान के संदर्भ में भी यह कष्टकारी होता है।
अष्टम भाव तथा मंगलदोष—-
यह स्थान दु:ख, कष्ट, संकट एवं आयु का होता है। इसमें मंगल वैवाहिक जीवन के सुख को निगल लेता है। अष्टमस्थ मंगल मानसिक पीड़ा एवं कष्ट प्रदान करने वाला होता है। जीवनसाथी के सुख में बाधक होता है। धन भाव में इसकी दृष्टि होने से धन की हानि और आर्थिक कष्ट होता है। रोग के कारण दाम्पत्य सुख का अभाव होता है। ज्योतिष विधान के अनुसार इस भाव में बैठा अमंगलकारी मंगल शुभ ग्रहों को भी शुभत्व देने से रोकता है। इस भाव में मंगल अगर वृष, कन्या अथवा मकर राशि का होता है तो इसकी अशुभता में कुछ कमी आती है। मकर राशि का मंगल होने से यह संतान सम्बन्धी कष्ट देता है।
द्वादश भाव तथा मंगलदोष——
कुण्डली का द्वादश भाव शैय्या सुख, भोग, निद्रा, यात्रा और व्यय का स्थान होता है। इस भाव में मंगल की उपस्थिति से मंगली दोष लगता है। इस दोष के कारण पति पत्नी के सम्बन्ध में प्रेम व सामंजस्य का अभाव होता है। धन की कमी के कारण पारिवारिक जीवन में परेशानियां आती हैं.व्यक्ति में काम की भावना प्रबल रहती है। अगर ग्रहों का शुभ प्रभाव नहीं हो तो व्यक्ति में चारित्रिक दोष भी हो सकता है। .भावावेश में आकर जीवनसाथी को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। इनमें गुप्त रोग व रक्त सम्बन्धी दोष की भी आशंका रहती है।
मंगल दोष परिहार—-
फलित ज्योतिष के सर्वमान्य ग्रंथों के अनुसार जो ग्रह अपनी उच्च, मूल त्रिकोण, मित्र, स्वराशि, नवांश में स्थित, वर्गोत्तम, षड्बली, शुभ ग्रहों से युक्त-दृष्ट हो वह सदैव शुभकारक होता है। इसी प्रकार नीचस्थ,अस्त, शत्रु राशिस्थ,पापयुक्त, पाप दृष्ट,षड्बल विहीन ग्रह अशुभ कारक होता है।

मंगल एवं मंगलदोष के बारे में हमारे ज्योतिष ग्रंथों में भी लिखा हैं की—
‘‘नीचारिगो भाव विनाश कृत्खगः समः समर्क्षे सखिभे त्रिकोणभे।
स्वोच्चे स्वभे भावचयप्रदः फलदुःस्थेस्वसत्सत्सु विलोम:।।’’ (ज्योतिष्तत्वम्‍)
‘‘नीचस्थो रिपु राशिस्थ खेटो भावविनाशकः।
मूल स्व तुंग मित्रस्थो भाव वृद्धि करो भवेत्।’’ (जातक-पारिजात)
इसी प्रकार भाव मंञ्जरी में कहा गया है कि –
‘‘स्वीय तुंग सखि सदभ संस्थित पामरोऽपि यदि सत्फलम व्रजेत ।’’
अर्थात्‍ पाप ग्रह भी यदि स्व, उच्च, मित्र राशि, नवांश, वर्गोत्तम, शुभ युक्त, शुभ दृष्ट हो तो शुभता को देने वाला होता है।
जातकमार्ग देश का भी यही मत है- ‘‘पापग्रहा: बलयुताः शुभवर्गस्थिता: सौम्या: भवन्ति शुभवर्गसौम्य दृष्टाः।’’
उपरोक्त सन्दर्भों से यह स्पष्ट है कि कुण्डली के 1, 4, 7, 8 व 12 वें भाव में स्थित मंगल यदि स्व, उच्च, मित्र आदि राशि, नवांश का, वर्गोत्तम, षड्बली होकर शुभता से युक्त हो जाता है तो मांगलिक दोष का परिहार माना जाएगा।

वहीं तथाकथित ज्योतिषीयों द्वारा एक और गंभीर ‍त्रुटि की जा रही है कि मंगलदोष का विचार ‘भाव’ कुण्डली से न करते हुए मात्र लग्न पत्रिका से ही किया जाना है। जो दैवज्ञ हैं वे जानते हैं कि भाव (चलित) कुण्डली में संधि स्थान पर स्थित मंगल (अन्य ग्रह भी) का भावफल शून्य माना जाता है। कभी-कभी भाव मध्य स्पष्ट एवं मंगल स्पष्ट का अंतर 15 अंश से अधिक होने पर मंगल अगले या पिछले भाव का फल करने वाला होने के कारण दोष कारक नहीं रहता।
इसी प्रकार सप्तम भाव का स्वामी बलवान हो तथा अपने भाव को पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो तो मांगलिक दोष का परिहार हो जाता है। इनके अतिरिक्त भी शास्त्रीय ग्रंथों मंग‍ल दोष का परिहार माना गया है, जिसे संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है-
1. यदि मंगल इन भावों में स्व ,उच्च ,मित्र राशिः –नवांश का हो।
2. यदि मंगल इन भावों में वर्गोत्तम नवांश का हो।
3. यदि इन भावों में स्थित मंगल पर बलवान शुभ ग्रहों की पूर्ण दृष्टि हो।
इसके विपरीत एक विसंगतिपूर्ण मान्यता चल रही है कि वर-वधू की आयु के 28 वर्ष बीत जाने पर मांगलिक दोष नहीं लगता। साथ ही मंगल के अशुभ फल समाप्त होकर मात्र शुभ फल प्रदान करता है। यह तथ्य कुछ हद तक तो सत्य है, लेकिन उम्र के 28 वर्ष बीतने के बाद भी मंगल अपनी महादशा, अन्तरदशा, प्रत्यंतर या गोचर में कभी भी अपना अशुभ फल प्रगट कर सकता है। अतः मांगलिक दोष के साथ ही इन बातों का भी अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।
‘‘नीचशत्रुगृहं प्राप्ताः शत्रु निम्नांश सूर्यगाः।
विवर्णाः पापसंबंधा दशां कुर्मुरशोभनाम।।’’ (सारावली)
उपरोक्त तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि मांगलिक दोष का निर्णय वर-वधू की कुण्डलियों का सावधानीपूर्वक अनुशीलन करके करना चाहिए तथा जल्दबाजी से किसी परिणाम पर नहीं पहुँचना चाहिए। परन्तु खेद है कि अधिकांश दैवज्ञ इस महत्वपूर्ण विषय पर विचार न करते हुए तथा कुछ अप्रमाणिक ‍तथा तर्कहीन वाक्यों का आधार बनाकर त्रुटिपूर्ण मिलान करते हैं। ऐसा करते हुऐ ये दैवज्ञ शास्त्र एवम समाज दोनों को हानि पहुंचाते हैं। ऐसे में विवाह संबंध करने वाले परिवार को लोगों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे उचित ज्योतिषी की सलाह लें।

निष्कर्ष——
यद्यपि त्रिंशांश का प्रयोग अरिष्ट के ज्ञान के लिए किया जाता है, परन्तु स्त्री की कुण्डली में अरिष्ट का तात्पर्य उसके चरित्र, स्वभाव तथा कार्यक्षेत्र ही माना जाएगा। अत: त्रिंशांश से स्त्री के रूप, गुण, स्वभाव, उन्नति व पतन देखना अभीष्ट है और इसके बिना सही आकलन संभव नहीं है। इससे निकृष्ट योग शुक्र या शनि का एक-दूसरे की राशियों या नवांशों में परिवर्तन है, जिसमें स्त्रियाँ लेस्बियन या समलिंगी हो जाती हैं। इसी प्रकार शास्त्रीय ग्रन्थों में स्त्रीजातक पर आधारित कई विश्लेषण दिए गए हैं, जिनके होने से उपरोक्त योग भी भंग हो सकते हैं। अत: जब भी फलित के लिए निर्णय लें तो किसी योग्य ज्योतिषी को माध्यम बनाया जाना अत्यन्त आवश्यक होता है।

पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री,(ज्योतिष-वास्तु सलाहकार)
राष्ट्रिय महासचिव-भगवान परशुराम राष्ट्रिय पंडित परिषद्
मोब. 09669290067 (मध्य प्रदेश) एवं 09024390067 (राजस्थान)
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10 thoughts on “विवाह के शुभाशुभ योग”

  1. my dither ka viwah pandit ne 10 march 2015 ka nikala hai par ye mere piriwar me first viwah hai bade logo ka khana hai ki deshi mahina chet me first viwah nahi hota kaya ye shi hai ya galt

  2. मेरी जन्मतिथि 03-10-1984 सुबह लग्भग 09:30 AM है, जन्म स्थान जनपद Gonda (ऊ०प्र०) है.

  3. Respected sir,
    I read your post it was really very informative, but I could completely not understand it. Kindly help and tell me about myself. My d.o.b is 24\10\1979 my p.o.b is Jaipur and t.o.b. is 9:25 am.

    Detail of my wife is d,o,b. Is 3\jan\1983 p.o.b is alwar and t.o.b. is 23:46

  4. Mere vivah mei deri. Horahi hai kyo
    Mera janm 28dec.1990 samay 9:50 , Kolkata me huaa hai

  5. my d. o.b. is 21 feb. 1980 time is 9:35 am my ple. of d.o.b. Dubaldhan teh. Beri distt. Jhajjar (HR)
    sir ji mane apne vivah or nokri ke bare mai puchhna h.

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