वास्तु शास्त्र द्वारा गृह क्लेश निवारण

पंडित दयानन्द शास्त्री
पंडित दयानन्द शास्त्री

आज के आधुनिक युग में भवन निर्माण का कार्य अत्यन्त कठिन हो गया है। साधारण मनुष्य जैसे तैसे गठजोड़ करके अपने लिए भवन की निर्माण करता है। तब भी यदि भवन वास्तु के अनुसार न हो तो मनुष्य दुखी, चिंतित एवं परेशान रहने लगता है।
वास्तु शास्त्र वस्तुतः कला भी हैं और विज्ञान भी । चुंकि कलाओं और विज्ञान का जन्म शास्त्रों से ही हुआ हैं, इसलिए ‘‘वास्तु विद्या‘‘ को भी ‘‘शास्त्र‘‘ ही कहा गया हैं किन्तु आज यह शास्त्र से अधिक विज्ञान और शिल्प की दृष्टि से कला बन चुका हैं । वास्तु काफी पुराना हैं । इसके सिद्धान्त किसी न किसी रूप में हर युग और हर देश में प्रभावी रहे हैं । किसी भी नव निर्माण से पूर्व कुछ मूलभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना होता हैं । अतः वास्तु विद्या उतनी ही पुरानी हैं जितनी की मानव सभ्यता । वास्तु विज्ञान का उद्गम स्थल मस्तिष्क हैं, कारण कि ज्ञान यहीं से प्राप्त होता हैं । दिशाओं, ग्रहों आदि को ज्ञानवर्धक बनाते हुए ‘‘वास्तु‘‘ का सृजन हुआ हैं । एक शिल्पकार भवन को सुन्दर रूप दे सकता हैं किन्तु सुख शान्ति की गारन्टी केवल वास्तृ विज्ञ ही दे सकता हैं ।
यदि आप पारिवारिक, मानसिक और शारीरिक समस्याओं से ग्रस्त हैं तो इनका समाधान वास्तुशास्त्र के द्वारा किया जा सकता हैं। मनुष्य के जीवन को मुख्यतः भाग्य एवं वास्तु प्रभावित करती हैं। यदि वास्तु ठीक नहीं हो और सितारे बुलन्द हो तो उसके परिणाम आधे मिलते हैं । वास्तु सम्मत निवास करने पर भाग्य की स्थिति बदल सकती हैं । वास्तु घर की सुखः-शान्ति व सुरक्षा के साथ पुरूषार्थ की प्राप्ति में सहायक बनता हैं । हमारे जीवन में होने वाले अनुकूल और प्रतिकूल प्रभावों को वास्तु से सुधारकर दूर किया जा सकता हैं ।
भवन निर्माण के लिए भूमिखंड (प्लाट) का चयन करते समय यह ध्यान रखें कि वह वर्गाकार या आयताकार हो । इनमें भी आयताकार सर्वश्रेष्ठ हैं । जमीन खरीदते समय ढलान का ध्यान रखना चाहिए, जमीन का ढलान पूर्व और उत्तर दिशा में होने पर जहॉ धन लाभ होता हैं वहीं पश्चिम दिशा में होने पर पुत्र हानि, दक्षिण में मृत्युभय, ईशान कोण में विद्यालाभा और नेऋत्य कोण में होने पर धन हानि होती हैं।
भूखण्ड के आस-पास कोई कब्रिस्तान, औषधालय या शमशान आदि न हो तथा सीधी सड़क उस भूखण्ड आकर खत्म न होती हो । इन सब के कारण वहॉ नकारात्मक प्रभाव पैदा होता हैं तथा वहॉ निवास करने वालों में उत्साह और आशावाद की कमी नजर आती हैं। भूखण्ड के चयन के बाद शुभ मुहूर्त में भूमि का वास्तु पूजन और गृह शान्ति सुयोग्य पंडित से करवाकर निर्माण कार्य आरम्भ करना चाहिए ।
ऐसा भवन जहॉ सुख, शान्ति और समृद्धि हो, भवन न रहकर घर बन जाता हैं तथा वहॉ रहने वालों की जिन्दगी में खुशी भर जाती हैं । प्रायः सभी घरों में किसी न किसी बात के कारण विवाद बना ही रहता हैं । माता-पिता, पति-पत्नि युवाओ ंव बुजुर्गो में किसी बात को लेकर तनाव का वातावरण बना रहता हैं जिससे सभी परेशान रहते हैं । घर में व्याप्त तनाव एवं कलह का वातावरण अशान्ति आदि का मुख्य कारण घर में वास्तुदोष का होना भी हो सकता हैं ।
बने हुए भवनों एवं नवनिर्माण होने वाले भवनों में वास्तुदोष निवारण का प्रयास करना चाहिए बिना तोड़-फोड़ के प्रथम प्रयास में दिशा परिवर्तन कर अपनी दशा को बदलने का प्रयास करें । यदि भवन वास्तु शास्त्र के नियमों के विपरीत बना हो तब
उसमें बिना तोड-फोड किये वास्तु दोषों को दूर किया जा सकता है। जैसे कमरों की बन्द दीवारों पर आईना, सुन्दर फूलों के मनोरम दृश्यों, सुखद प्राकृतिक दुश्यों तथा लुभावने दृश्यों के चित्रों को टाँगने से मनुष्य की उर्जा का चक्र पूरा हो जाता है और वास्तु के दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक कमरे के ईशान कोंण को खाली रखने, दक्षिण-पश्चिम कोंण को भारी तथा वजनदार रखने,गैर-सृजनात्मक दिशाओं में खुले दरवाजों, खिडकियों को बंद रखने से वास्तु दोषें का कुप्रभाव कम होने लगता है। वास्तुदोष होने पर गृह क्लेश का निवारण निम्न उपाय अपनाकर किया जा सकता हैं.
1. घर का प्रवेश द्वार यथासम्भव पूर्व या उत्तर दिशा में होना चाहिए। प्रवेश द्वार के समक्ष सीढियॉ व रसोई नहीं होनी चाहिए । प्रवेश द्वार भवन के ठीक बीच में नहीं होना चाहिए। भवन में तीन दरवाजे एक सीध में न हो ।
2 . भवन में कांटेदार वृक्ष व पेड़ नहीं होने चाहिए ना ही दूध वाले पोधे – कनेर, ऑकड़ा केक्टस, बाैंसाई आदि । इनके स्थान पर सुगन्धित एवं खूबसूरत फूलों के पौधे लगाये ।
3 . घर में युद्ध के चित्र, बन्द घड़ी, टूटे हुए कॉच, तथा शयन कक्ष में पलंग के सामने दर्पण या ड्रेसिंग टेबल नहीं होनी चाहिए ।
4 . भवन में खिड़कियों की संख्या सम तथा सीढ़ियों की संख्या विषम होनी चाहिए ।
5 . भवन के मुख्य द्वार में दोनों तरफ हरियाली वाले पौधे जैसे तुलसी और मनीप्लान्ट आदि रखने चाहिए । फूलों वाले पोधे घर के सामने वाले आंगन में ही लगाए । घर के पीछे लेगे होने से मानसिक कमजोरी को बढावा मिलता हैं ।
6 . मुख्य द्वार पर मांगलिक चिन्ह जैसे स्वास्तिक, ऊँ आदि अंकित करने के साथ साथ गणपति लक्ष्मी या कुबेर की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए ।
7 . मुख्य द्वार के सामने मन्दिर नहीं होना चाहिए । मुख्य द्वार की चौड़ाई हमेशा ऊँचाई की आधी होनी चाहिए ।
8 . मुख्य द्वार के समक्ष वृक्ष, स्तम्भ, कुआं तथा जल भण्डारण नहीं होना चाहिए । द्वार के सामने कूड़ा कर्कट और गंदगी एकत्र न होने दे यह अशुभ और दरिद्रता का प्रतिक हैं ।
9. रसोई घर आग्नेय कोण अर्थात दक्षिण पूर्व दिशा में होना चाहिए । गैस सिलेण्डर व अन्य अग्नि के स्त्रोतों तथा भोजन बनाते समय गृहणी की पीठ रसोई के दरवाजे की तरफ नहीं होनी चाहिए । रसोईघर हवादार एवं रोशनीयुक्त होना चाहिए । रेफ्रिजरेटर के ऊपर टोस्टर या माइक्रोवेव ओवन ना रखे । रसोई में चाकू स्टैण्ड पर खड़ा नहीं होना चाहिए । झूठें बर्तन रसोई में न रखे ।
10 . ड्राइंग रूम के लिए उत्तर दिशा उत्तम होती हैं । टी.वी., टेलिफोन व अन्य इलेक्ट्रोनिक उपकरण दक्षिण दिशा में रखें । दीवारों पर कम से कम कीलें प्रयुक्त करें । भवन में प्रयुक्त फर्नीचर पीपल, बड़ अथवा बेहडे के वृक्ष की लकड़ी का नहीं होना चाहिए ।
11 . किसी कौने में अधिक पेड़-पौधें ना लगाए इसका दुष्प्रभाव माता-पिता पर भी होता हैं वैसे भी वृक्ष मिट्टी को क्षति पहुॅचाते हैं ।
12 . पुरानी एवं बेकार वस्तुओं को घर से बाहर निकाले ।
13 . बेडरूम में डबल बैड पर दो अलग-अलग गद्दों के स्थान पर एक ही गद्दा प्रयोग में लावे । यह तनाव को दूर करता हैं। दो गद्दे होने से तनाव होता हैं व सम्बन्धों में दरार आकर बात तलाक तक पहुॅच सकती हैं । शयन कक्ष में वाश बेसिन नहीं होना चाहिए । हॉ अटेच बाथरूम होने पर वाश बेसिन हो सकता हैं । शयन कक्ष में हिंसा या युद्ध दर्शाता चित्र नहीं होना चाहिए । शयन कक्ष में पति-पत्नि का एक संयुक्त चित्र हंसते हुए लगाना चाहिए। शयन कक्ष में कॉच (ड्रेसिंग टेबिल) आदि नहीं होने चाहिए । नकारात्मक ऊर्जा बढती है। गुलाबी रंग का उपयोग करें । शयन कक्ष में क्रिस्टल बाल व लव बर्ड का प्रयोग करने से प्यार व रोमांस बढता हैं तथा सम्बन्धों में मधुरता आती हैं तथा एक दूसरे के प्रति विश्वास में प्रगाढता आती हैं। शयनकक्ष दक्षिण पश्चिम दिशा में सर्वोत्तम हैं । शयन के समय सिर दक्षिण में होना चाहिए इससे शरीर स्वस्थ्य रहता हैं तथा नींद अच्छी आती हैं ।
14. झाड़-फानूस लगाने से अविवाहित युवक-युवती का विवाह शीघ्र हो जाता हैं। इसके साथ ही अविवाहित युवक-युवती को पूर्व दिशा में सिर रखकर शयन करना चाहिए ।
15 . क्रिस्टल (स्फटिक) की माला का पयोग करें । क्रिस्टल की वस्तुओं का प्रयोग करें जैसे – पैन्डल, माला, पिरामिड, शिवलिंग, श्रीयंत्र आदि ।
16 . मोती का प्रयोग करें । यह तन-मन को निरोगी एवं शीतल रखता हैं। घर में तनाव उत्पन्न नहीं होगा ।
17 . घर का मुख्य द्वार छोटा हो तथा पीछे का दरवाजा बड़ा हो तो वहॉ के निवासी गंभीर आर्थिक संकट से गुजर सकते हैं ।
18 . घर का प्लास्टर उखड़ा हुआ नहीं होना चाहिए चाहे वह आंगन का हो, दीवारों का या रसोई अथवा शयनकक्ष का । दरवाजे एवं खिड़किया भी क्षतिग्रस्त नहीं होनी चाहिए। मुख्य द्वार का रंग काला नहीं होना चाहिए । अन्य दरवाजों एवं खिडकी पर भी काले रंग के इस्तेमाल से बचे ।
19 . मुख्य द्वार पर कभी दर्पण न लगायें । सूर्य के प्रकाश की और कभी भी कॉच ना रखे। इस कॉच का परिवर्तित प्रकाश आपका वैभव एवं ऐश्वर्य नष्ट कर सकता हैं ।
20 . घर में जगह-जगह देवी देवताओं के चित्र प्रतिमाएॅ या केलेन्डर ना लगाएॅ ।
21 . घर में भिखारी, वृद्धो या रोते हुए बच्चों के चित्र व पोस्टर आदि ना लगाएॅ । ये गरीबी, बीमारी या दुख दर्द का आभास देते हैं । इनके स्थान पर खुशहाली, सुख-समृद्धि एवं विकास आदि का आभास देने वाले चित्र व पोस्टर लगाएॅ ।
22 . घर एवं कमरे की छत सफेद होनी चाहिए, इससे वातावरण ऊर्जावान बना रहता हैं ।
23 . पूजा कक्ष पूर्व दिशा या ईशान (उत्तर पूर्व) में होना चाहिए । प्रतिमाएॅ पूर्व या पश्चिम दिशा में स्थापित करें । सीढ़ियों के नीचे पूजा घर कभी नहीं बनावें । एक से अधिक मूर्ति (विग्रह) पूजा घर में ना रखे ।
24 . धनलाभ हेतु जेवर, चेक बुक, केश बुक, ए.टी.एम. कार्ड, शेयर आदि सामग्री अलमारी में इस प्रकार रखें कि अलमारी प्रयुक्त करने पर उसका द्वार उत्तर दिशा में खुले। अलमारी का पिछवाड़ा दक्षिण दिशा में होना चाहिए ।
25 . बारामदा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा में तथा बालकनी उत्तर पूर्व में रखनी चाहिए ।
26 . भवन में सीढियॉ पूर्व से पश्चिम या दक्षिण अथवा दक्षिण पश्चिम दिशा में उत्तर रहती हैं । सीढिया कभी भी घूमावदार नहीं होनी चाहिए । सीढियों के नीचे पूजा घर और शौचालय अशुभ होता हैं । सीढियों के नीचे का स्थान हमेशा खुला रखें तथा वहॉ बैठकर कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं करना चाहिए ।
27 . पानी का टेंक पश्चिम में उपयुक्त रहता हैं । भूमिगत टंकी, हैण्डपम्प या बोरिंग ईशान (उत्तर पूर्व) दिशा में होने चाहिए । ओवर हेड टेंक के लिए उत्तर और वायण्य कोण (दिशा) के बीच का स्थान ठीक रहता हैं। टेंक का ऊपरी हिस्सा गोल होना चाहिए ।
28 . स्नानघर पूर्व दिशा में ही बनवाएॅ । यह ध्यान रखें कि नल की टोटियों से पानी न टपके न रिसें, यह अशुभ होता हैं।
29. शौचालय की दिशा उत्तर दक्षिण में होनी चाहिए अर्थात इसे प्रयुक्त करने वाले का मुँह दक्षिण में व पीठ उत्तर दिशा में होनी चाहिए । मुख्य द्वार के बिल्कुल समीप शौचालय न बनावें । सीढियों के नीचे शौचालय का निर्माण कभी नहीं करवायें यह लक्ष्मी का मार्ग अवरूद्ध करती हैं । शौचालय का द्वार हमेशा बंद रखे । उत्तर दिशा, ईशान, पूर्व दिशा एवं आग्नेय कोण में शौचालय या टेंक निर्माण कदापि न करें ।
30 . भवन में दर्पण हमेशा उत्तर अथवा पूर्व दिशा में होना चाहिए ।
31 . श्रीमद् भगवत गीता का एक अध्याय रोज पढे़ ।
32 . घड़ी को उत्तर दिशा में टांगना या रखना शुभ होता हैं ।
33. पानी हमेशा उत्तर या पूर्व की ओर मुँह करके पिएं ।
34 . भोजन करते समय मुख पूर्व में रखना चाहिए ।
35 . भवन की दीवारों पर आई सीलन व दरारें आदि जल्दी ठीक करवा लेनी चाहिए क्योकि यह घर के सदस्यों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं रहती ।
36 . घर की छत पर तुलसी को गमले में स्थापित करने से बिजली गिरने का भय नहीं रहता हैं।
37 . घर के सभी उपकरण जैसे टीवी, फ्रिज, घड़ियां, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर आदि चलते रहने चाहिए। खराब होने पर इन्हें तुरन्त ठीक करवां लें क्योकि बन्द (खराब) उपकरण घर में होना अशुभ होता हैं ।
38 . भवन का ब्रह्म स्थान रिक्त होना चाहिए अर्थात भवन के मध्य कोई निर्माण कार्य नहीं करें ।
39 . बीम के नीचे न तो बैठंे और न ही शयन करें । शयन कक्ष, रसोई एवं भोजन कक्ष बीम रहित होने चाहिए ।
40 . वाहनों हेतु पार्किंग स्थल आग्नेय दिशा में उत्तम रहता हैं क्योंकि ये सभी उष्मीय ऊर्जा (ईधन) द्वारा चलते हैं ।
41 . भवन के दरवाजें व खिड़कियां न तो आवाज करें और न ही स्वतः खुले तथा बन्द हो ।
42 . एक ही दिशा में तीन दरवाजे एक साथ नहीं होने चाहिए ।
43. व्यर्थ की सामग्री (कबाड़) को एकत्र न होने दें । घर में समान को अस्त व्यस्त न रखें । अनुपयोगी वस्तुओं को घर से निकालते रहें ।
44 . भवन के प्रत्येक कोने में प्रकाश व वायु का सुगमता से प्रवेश होना चाहिए । शुद्ध वायु आने व अशुद्ध वायु बाहर निकलने की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए । ऐसा होने से छोटे मोटे वास्तु दोष स्वतः समाप्त हो जाते हैं ।
45 . अध्ययन करते समय मुख पूर्व, उत्तर या ईशान दिशा में होना चाहिए ।
46 . गृह कलेश निवारण हेतु योग्य आचार्य से पितृदोष शान्ति एवं कालसर्प योग निवारण करवाएॅ ।
यूं तो सारे नियम ही महत्वपूर्ण हैं किन्तु रसोईघर, पानी का भण्डारण, शौचालय व सैप्टिक टेंक बनाते समय विशेष ध्यान रखें । इसके बावजूद भी यदि निर्माण करवाना पड़े तो पिरामिड के प्रयोग द्वारा बिना तोड़-फोड़ किये गृहक्लेश निवारण किया जा सकता हैं ।
पं0 दयानन्द शास्त्री
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान

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