होली : हर्ष-उल्लास, सोहार्द—प्रेम स्नेह के रंगो का पावन पर्व

अंहकार, दुर्गुणों तथा कुसंस्कारों की आहुति देने का एक यज्ञ
holiत्योहार सामाजिक बंधनों को प्रगाढ़ बनाने का एक माध्यम है होली भारतीय संस्कृति की पहचान का एक पुनीत पर्व है, आपसी भेदभाव मिटाकर, पारस्परिक प्रेम व सदभाव प्रकट करने का एक सुनहरा अवसर है | अपने अंहकार, दुर्गुणों तथा समस्त कुसंस्कारों की आहुति देने का एक यज्ञ है एवं पारस्परिक प्रेम-सोहार्द को, आनंद को, सहजता को, सहिष्णुता को, निरहंकारिता और सरल सहजता के सुख को उभारने का पावन उत्सव है| होली का पावन रंगोत्सव हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता है जो अनेकों सामाजिक विषमताओं के बीच भी समाज में एकत्व का संचार करता है | होली के रंग-बिरंगे रंगों की बौछार हमारे मन में एक सुखद अनुभूति भी उत्पन्न करती है |

होली कब बनाई जाती है–
यों तो होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है।
होली का पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है (फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं) । यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन तक मनाया जाता है। भारत-नेपाल के साथ दुनिया भर के विभिन्न देशों में जहाँ जहाँ हिन्दू रहते हैं वहां यह त्यौहार धूम धाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता हैं! पहले दिन दुष्कर्मों-अंहकार की प्रतीक होलिका को जलाया जाता है, जिसे होलिका दहन भी कहते है।

इतिहास
इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी होली पर्व का प्रचलन था | इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है, जिनमें प्रमुख हैं— जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र, नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण आदि | विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं किन्तु मुसलमान भी हर्षोउल्लास के साथ मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की हैं, इसी काल में अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।

होली की कहानियाँ
भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध
प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली दानव था। अपने बल के अंहकार में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में भगवान ( विष्णु-हरी) का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद परमात्मा का परम भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर उसके पिता हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक तरह की यातनायें एवं अमानवीय कठोर दंड दिए, किन्तु भक्त प्रहलाद ने ईश्वर की भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन (प्रहलाद की भुआ) होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे जिससे प्रहलाद आग में जल कर भष्म हो जाये, आग में बैठने पर होलिका तो जल गई पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।
प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त होली का पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।

परंपराएँ
होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्णिमा के पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा बंसत के आगमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि भी कहते हैं।

होलिका दहन
होली के पर्व पर पहला काम डंडा (या झंडा) गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल के चोराहे पर या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की लकडीयां इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए लाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है।

सार्वजनिक होली मिलन

डॉ. जुगल किशोर गर्ग
डॉ. जुगल किशोर गर्ग

होली दहन के दूसरे दिन को धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, इस दिन बच्चे-बूढ़े, स्त्री- पुरुष संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता दुश्मनी को भूला कर आपस में प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।

होली पर रंगों से खेलते वक्त बरती जाने वाली सावधानियां-–रंग खेलने से पहले अपने शरीर पर नारियल अथवा सरसों के तेल को अच्छी प्रकार से लगा लेना चाहिए | ताकि त्वचा पर रंग या अन्य रसायनों का दुष्प्रभाव न पड़े और साबुन लगाने मात्र से ही शरीर पर से रंग छुट जाये | रंग आंखों में या मुँह में न जाये इसकी विशेष सावधानी रखनी चाहिए | इससे आँखों तथा फेफड़ों को नुक्सान हो सकता है | जो लोग कीचड़ व पशुओं के मलमूत्र से होली खेलते हैं वे स्वयं तो अपवित्र बनते ही हैं दूसरों को भी अपवित्र करने का पाप करते हैं | अतः ऐसे दुष्ट कार्य करने वालों से दूर हीरहें अच्छा | यदि सावधानी, संयम तथा विवेक न रखा जाये तो ये ही रंग कभीकभार दुखद भी बन जाते हैं | अतः इस पर्व पर कुछ सावधानियाँ रखना भी अत्यंत आवश्यक है |

होली:– रंगबिरंगे पकवानों का पर्व
होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। श्रीखंड, आम या अंगूरी का श्रीखंड,मालपुआ, कांजी बड़ा, पूरन पोली, कचौरी, पपड़ी, मूंग हलवा आदि बेसन के सेव और दही- -बड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं।
प्रस्तुति जे के गर्ग

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