क्या रावण इतना बलषाली था कि सीताजी का अपहरण कर सके ?

परमेश्वरी श्री जानकीजी की जयंती 27 अप्रैल के अवसर पर
Jagdish Sharma-जगदीष प्रसाद शर्मा- परमेश्वरी सीताजी के रावण द्वारा बलपूर्वक अपहरण के संदर्भ में मेरा सीधा प्रष्न है कि क्या रावण वास्तव में इतना बलषाली और समर्थ था कि सीताजी का अपहरण कर सके ? इस प्रष्न का उत्तर एक पौराणिक कथा से सहज ही मिल जाता है।
वह, पौराणिक कथा कुछ इस प्रकार है कि भगवान श्री राम के राज्याभिषेक के पष्चात एक दिन संध्याकाल में भगवान तथा जानकीजी अयोध्या के सर्वश्रेष्ठ राजकीय उपवन पहुंचे। उनके पदार्पण के साथ ही उपवन के समस्त पेड़-पौधे, यहां तक कि समूची हरितिमा कल्पवृक्ष बन गई, उपवन की पूरी धरती और परिवेष कामधेनु बन गए। कण-कण परम दिव्य, भव्य, रमणीय तथा आनंददायक बन गया, परन्तु सीता तो खिन्न और उदास ही बनी हुईं थीं। श्री रामजी ने जब इसका कारण पूछा तो परमेष्वरी ने उन्हें बताया कि उन्हें लंका का वह अषोक वृक्ष निरंतर स्मृति में बना रहता है, जिसकी छत्र छाया में उन्होंने शरण ली थी। इस पर श्री रामजी ने कहा कि चिंता करने की आवष्यकता नहीं, हम हनुमानजी को लंका भेजकर उस अषोक वृक्ष को अयोध्या बुलवाकर इसी उद्यान में रोपित करा देंगे।
बस, फिर क्या था, श्री रामजी के आदेष पर हनुमानजी महाराज मन की गति से तत्काल लंका पहुंच गए, पर वहां तो वातावरण पूरी तरह परिवर्तित था। प्रत्येक नागरिक भयभीत होकर मौन धारण किए हुए था, परन्तु वहां हनुमानजी महाराज इतने लोकप्रिय थे कि कुछ नागरिकों ने उस नवीन प्रतिकूल वातावरण का रहस्य प्रकट कर दिया। रहस्य यह था कि लंका में अब विभीषण का नहीं, अपितु रावण के उस पुत्र मुलकासुर का राज्य था, जिसको रावण ने जन्म के तत्काल पष्चात पाताल लोक भिजवा दिया था, क्योंकि उसकी जन्म कुण्डली में रावण द्वारा उसे देखे जाने के साथ, रावण के लिए मरण-घातक योग था। उसी मुलकासुर ने विभीषण को बंदी बनाकर लंका का राज्य हथिया लिया और विभीषण को बेड़ियों में जकड़कर राजमहल के तलघर में डाल दिया था। हनुमानजी को लंकावासियों ने यह भी बता दिया कि मुलकासुर कोई सेना लेकर नहीं आया था। उसके साथ उसके केवल 2 गण थे, परन्तु उन तीनों के पास बेलन के आकार का चपटा सा एक शस्त्र है, जो दिखाते ही विषेष प्रकाष छोड़कर बडे़-बड़े योद्धाओं और सेनाओं को मूर्च्छित कर धराषायी कर देता है। कहने का आषय यह कि उन तीनों के पास परमाणु शस्त्र जैसा कोई अति चमत्कारी आग्नेय शस्त्र था। उन तीनों ने इसी शस्त्र के बल पर विभीषणजी और उनकी सेना को पराजित कर लंका पर आधिपत्य किया था। बुद्धिमत्ताम् श्रेष्ठम् हनुमानजी महाराज को स्थिति की अति विकरालता भांपने में देर नहीं लगी और उन्होंने अयोध्या वापसी के पूर्व विभीषणजी को मुक्त कराने की ठानकर समुद्र मार्ग से राजमहल के उस तलघर के पास पहुंच गए, जहां विभीषणजी बंदी थे। तलघर को तोड़ने में भी उन्हें देर नहीं लगी और वे विभीषणजी को अपने साथ लेकर अयोध्या पहुंच गए। अयोध्या में उन दोनों ने भगवान श्री रामजी को पूरी भीषण स्थिति से अवगत कराया। इस पर रामजी ने मुलकासुर तथा उसके गणों को बंदी बनाने अथवा मारने का आदेष दिया।
आदेष के पालन में भरतजी, लक्ष्मणजी तथा शत्रुघ्न जी सहित अनेक अधीनस्थ सेनापति एक विषाल सेना लेकर लंका पहुंचे। हनुमानजी महाराज भी सेना के साथ गए थे, परन्तु श्री रामजी ने उन्हें रण क्षेत्र से दूर से पर्यवेक्षण करने का निर्देष दिया था। अंततोगत्वा हुआ ये कि श्री रामजी की सेनाएं आक्रमण कर पाएं, इसके पहले ही मुलकासुर तथा उसके साथियों ने अपने चमत्कारी शस्त्र से रामानुजांे सहित सारी सेना को मूर्च्छित कर धराषायी कर दिया। यह देखते ही हनुमानजी महाराज तत्काल अयोध्या पहुंचे और भगवान श्री रामजी को पूरा वृत्तांत सुनाया। स्पष्ट है कि अपने अनुजों सहित अपने योद्धाओं और सेना की ऐसी भीषण पराजय से श्री रामजी शोक में चाहे डूबे, पर इतने कुपित-क्रोधित भी हुए कि स्वयं अपनी शेष सेना लेकर लंका पहुंच गए। हनुमानजी महाराज ने पूर्ववत रण क्षेत्र से दूर रहकर पर्यवेक्षण का दायित्व ग्रहण किया। फिर वहीं हुआ, भगवान श्री राम और उनकी सेना आक्रमण करें, इसके पहले ही मुलकासुर तथा उसके दोनों गणों ने अपने उसी परम चमत्कारी शस्त्र से भगवान श्री रामजी तथा उनकी सेना को मूर्च्छित कर धराषायी कर दिया। अयोध्या पहुंचकर हनुमानजी ने जब यह समाचार राजमहल में सुनाया तो तीनों माताएं अपनी पुत्रबधुओं तथा अन्य परिजनों सहित बिलख-बिलखकर मूर्च्छित हो गईं। हां, जगजननि जानकीजी अवष्य ना बिलखीं, ना मूर्च्छित हुई, अपितु उन्होंने लंका प्रस्थान करने का निर्णय लिया और मन की गति से वे तत्काल लंका पहुंच गई। हनुमानजी महाराज भी उनके साथ गए। लंका पहुंचते ही परमेष्वरी जानकीजी की दृष्टि जैसे ही मूर्च्छित भगवान श्री रामजी, उनके अनुजों, अन्य योद्धाओं तथा सेना पर पड़ी तो उनका आकार हिमालय से भी बड़ा हो गया और उनका विषाल शीष आकाष छूने लगा। वे साक्षात रणचण्डी बन गईं। उनके विषाल मुख से एक साथ अनेक ज्वालामुखी प्रकट हो गए। देखते ही देखते उन्होंने मुलकासुर और उसके गणों को उनके शस्त्रों सहित निगलकर मौत के घाट उतार दिया। जब इसके बाद भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तो आकाष से ब्रह्मा, विष्णु, महेष आदि एक साथ उनके पास पहुंचे और उनसे शांत होने की प्रार्थना करने लगे। इस पर जानकीजी ने अपनी परमदिव्य शक्ति से सभी मूर्च्छितों की मूर्छा दूर कर अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। इसके बाद भी जब जानकीजी शांत नहीं हुई तो अंततोगत्वा भगवान श्रीरामजी को भी उनसे निवेदन करना पड़ा। तभी वे शांत हुईं और रामजी के साथ अयोध्या लौटीं।
अब मैं यह प्रष्न दोहराऊँ कि क्या रावण, ऐसी परम शक्ति जानकीजी का अपहरण कर सकता था, इसके पहले कुछ और स्मरण करा दूं। महाराजा जनक के धनुष यज्ञ में रावण जिस षिव धनुष को हिला भी नहीं पाया था, उस धनुष को तो पराम्बा जानकीजी ने तब अपने हाथों पर उठा लिया था, जब वे ठुमुक-ठुकुक कर चलना सीख रहीं थीं और ऐसे ही ठुमकते हुए षिव धनुष के पास पहुंच गईं थीं। महाराजा जनक ने उसी घटना के कारण सीताजी के विवाह के लिए धनुष यज्ञ आयोजित कर घोषणा की थी कि सीताजी का विवाह उसी के साथ होगा, जो षिव धनुष तोड़ेगा।
मुलकासुर मर्दिनी तो वे काफी बाद में बनीं, पर षिव धनुष उठाने का चमत्कार तो उन्होंने शैषवकाल में ही कर दिखाया था। क्या ऐसी परम शक्ति का रावण क्या, कोई भी अपहरण कर सकता था ? फिर प्रष्न यह है कि जानकी जी ने अपना अपहरण क्यों होने दिया ? इसका सीधा सा उत्तर है, ‘‘मैच फिक्सिंग’’। वह सीता-रामजी और रावण के मध्य ‘‘मैच फिक्सिंग’’ थी और रावण की परम अनुनय-विनय पर भगवान षिवषंकर की अनुषंसा पर सीतारामजी ने मैच फिक्सिंग की थी, जिससे रावण अपने सम्पूर्ण कुल-खानदान और सहयोगियों आदि सहित पापों से छुटकारा पाकर मोक्ष प्राप्त कर सके। रावण जानता था कि भगवान भोलेनाथ और भगवान श्री रामजी उसे क्षमाकर पाप मुक्त तो कर सकते थे, पर उससे उसे मोक्ष नहीं मिलता। दूसरे, वह अकेले नहीं, अपितु अपने समस्त परिजनों-आत्मीयजनों तथा स्वजनों और सहयोगियों सहित उद्धार चाहता था, इसलिए उसने मैच फिक्सिंग के लिए भगवान को तैयार कर उनके हाथों मरकर सद्गति और परम मुक्ति पाई।
यहां यह भी स्मरणीय है कि रावण की नीयत में कोई खोट होती तो वह सीताजी को अपने महल में ले गया होता, अषोक वाटिका में नही रखता। वह तो अपनी परम पूज्या माँ को अपने साथ लेकर गया था। जमाने को दिखाने उसके साथ सीताजी को भी नाटकीयता करनी पड़ी थी।
परम दुखद विडम्बना यह है कि रामानुजों सहित श्रीराम सेना को पराजित और स्वयं भगवान श्रीराम को भी युद्ध की चुनौती देने वाले लव-कुष की परम पूज्या मातुश्री मुलकासुर मर्दिनी सीताजी को परित्याग का दंष भी झेलना पड़ा। यह परित्याग भी रामजी और सीताजी का पारस्परिक मैच फिक्सिंग ही प्रतीत होता है, क्योंकि महर्षि बाल्मीकि के आश्रम में ही लव-कुष बाल्यकाल में ही सर्वथा संस्कारित, सुषिक्षित तथा परम अजेय योद्धा बन सकते थे।
सर्वज्ञात है कि रामजी ही भगवान श्री कृष्णजी के स्वरूप में अवतरित हुए। प्रष्न यह है कि सीताजी किस स्वरूप में अवतरित हुईं ? क्या रूक्मणिजी अथवा राधाजी के रूप में ? वास्तविकता यह है कि धरती की बेटी सीताजी का व्यक्तित्व धरा जैसा ही इतना विराट था कि वे किसी एक स्वरूप में समाहित नहीं हो सकतीं थीं, अतएव वे भगवान श्री कृष्ण की 16 हजार 108 पटरानियो, महारानियों-रानियों सहित राधाजी और अन्य लाखों गोपियों के रूप में एक साथ अवतरित हुईं। क्या ऐसी विराट स्परूपा परमेष्वरी का रावण अथवा अन्य कोई कभी अपहरण कर सकता था ?
धन्य हैं ऐसी परमेष्वरी ! हनुमानजी महाराज को तो उन्होंने लव-कुष के जन्म के पूर्व ही अपना सुत अर्थात स्वयं का जाया सुपुत्र घोषित कर दिया था। लंका में अषोक वृक्ष के नीचे हनुमान जी को सुत कहते हुए, ‘‘अजर-अमर, गुणनिधि सुत होऊ, करहिं सदा रघुनायक छोहू’’ और ऐसा परमाषीष तो उन्होंने किसी और को क्या, लव-कुष को भी नहीं दिया। वैसे भी, शुभाषीर्वाद देने में वे कुछ कृपण रहीं हैं, क्योंकि उनके शुभाषीर्वाद अमोध रहे हैं। उनके शुभाषीर्वाद के लिए हनुमानजी महाराज जैसी परम सुपात्रता परमावष्यक है। धन्य हैं हनुमानजी महाराज जिन्हे परमेष्वरी जानकीजी का ऐसा परम दिव्य शुभाषीर्वाद प्राप्त हुआ।
परमेश्वरी जानकीजी परम शारीरिक शक्ति के साथ एक और परम दुर्लभ परम शक्ति से भी संपन्न हैं। वो परम विषेष शक्ति हैं, किसी को भी परम मोक्ष्य प्रदान करने की शक्ति। कैसे ? ‘‘‘‘जनकसुता जगजननी जानकी, अतिषय प्रिय करूणानिधान की, ताके युग पदकमल मनाऊँ, जासु कृपा ‘‘निर्मल मति’’ पाऊं’’’’ अर्थात उनकी कृपा हो जाए तो ‘‘निर्मल मति’’ प्राप्त हो जाए। समस्त शास्त्र और संत इस तथ्य पर एक मत हैं कि कितने ही बड़े ज्ञानी हो जाओ, कितनी ही भक्ति कर लो, पर यदि ‘‘मति निर्मल’’ नहीं है तो परम मुक्ति नहीं हो सकती। स्पष्ट है कि जगजननि जानकीजी कि दया से परम मोक्ष्य रूपी परम वरदान भी प्राप्त होता है। हाँ, श्रीरामजी के बिना अकेली जानकीजी की भक्ति से वे प्रसन्न नहीं हो सकतीं। दोनों की ही भक्ति एक साथ करनी होगी। सीता-रामजी के साथ हनुमानजी महाराज की भक्ति भी हो जाए तो सोने पे सुहागा। फिर, जानकीजी को प्रसन्न करने से स्वयं जानकीजी भी नहीं रोक सकतीं।

टीप
यह पौराणिक कथा ब्रह्मलीन सन्यासी-संत तथा सुविख्यात वेदांताचार्य पूज्य योगानंदजी सरस्वतीजी महाराज ने विदिषा में अपने प्रवचन में सुनाई थी। इन स्वामीजी को भिण्ड-मुरैना लोकसभा क्षेत्र से भाजपा ने अपना प्रत्याषी घोषित किया था, परन्तु उन्होनें समूची प्रचार अवधि में अपना अथवा अपने दल का कोई प्रचार नहीं किया। प्रचार सभाओं में भी प्रवचन ही किए और वे विधिवत लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए थे और उसके बाद उन्होंने पुनः लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया था। वे उस लोकसभा के सदस्य रहे, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। वे प्रायः कहा करते थे कि जब उन्हें सुनाई देना बंद हो गया, तब अटलजी ने उन्हें श्रवण यंत्र विदेष से मंगवाकर भेंट किया था।

(जगदीष प्रसाद शर्मा)
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