जैन समाज ही नहीं पुरे देश ने खोया अनमोल रत्न : लुनिया

ravindra jainहिन्दी सिनेमा जगत के महान संगीतकार अपनी आँखों से नहीं वरन मन के कोमल
और सुन्दर नैनो से दुनिया को देख सदैव उसको गीतों में पिरो दिया निश्चल
कोमल मन वाले मधुर कंठ के सरताज गायक एवं संगीतकार रविन्द्र जैन जी हमें
छोड़ चल अपने शब्द और संगीत को हमेशा हमेशा के लिए अमर कर चल दिए। स्व.
श्री रविन्द्र जैन जी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आल मीडिया
जर्नलिस्ट सोशल वेलफेयर एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष वरिष्ठ पत्रकार
संगीत प्रेमी अशोक एल लुनिया ने कहा की सतरंगी के सात सुरों के माध्यम से
श्री जैन मन की पवित्र निगाहो से देख जो कुछ समाज से प्राप्त किया हर
वक़्त हर क्षण में उन्होंने अमूल्य गीतों के रूप में हमेशा लौटाया, सदैव
नयापन के साथ श्रोताओं मंत्रमुग्ध किया। संगीत जगत में मन्ना डे के
दृष्टिहीन चाचा कृष्णचन्द्र डे के बाद रवीन्द्र जैन दूसरे व्यक्ति हैं
जिन्होंने दृश्य-श्रव्य माध्यम में केवल श्रव्य के सहारे ऐसा इतिहास रच
दिया. स्व. रविन्द्र जी जिस तरह संगीत के प्रति समर्पित रहे उसी तरह धर्म
के प्रति भी समर्पित व्यक्तित्व वाले पुण्यात्मा थे. देश विदेश अनगिनत
पुरस्कार प्राप्त कर भारत सरकार के भारतरत्न , पद्मविभूषण जैसे महान
अवार्ड से नवाजे जाने के श्री जैन समाज रत्न के नाम से भी विख्यात थे ऐसे
महान पुण्यात्मा की कमी कभी पूरी नहीं हो सकती. तो वही जैन समाज के
पत्रकार संघ राष्ट्रीय अध्यक्ष पत्रकार विनायक लुनिया ने श्री जैन के
जीवनी पर प्रकाश डालते हुए कहा की 28 फरवरी 1944 को अलीगढ़ में पिता पंडित
श्री इन्द्रमणि जैन तथा माता श्रीमती किरणदेवी जैन के घर श्री रवीन्द्र
जैन जी का जन्म हुआ। 8 भाई बहनो के परिवार में चौथे स्थान के भाई थे
रविन्द्र जी, जन्म से उनकी आँखें बंद थीं जिसे पिता के मित्र डॉ. मोहनलाल
ने सर्जरी से खोला। साथ ही यह भी कहा कि बालक की आँखों में रोशनी है, जो
धीरे-धीरे बढ़ सकती है, लेकिन इसे कोई काम ऐसा मत करने देना जिससे आँखों
पर जोर पड़े। किन्तु उनकी मन की रोशनी आँखों की रोशनी बन निखार पड़ी. डॉ के
निर्देश को देखते हुए पिता ने उनके लिए संगीत का मार्ग चुना भाई के सहयोग
से उन्होंने अनेको उपन्यास, ग्रन्थ, इतिहास, महापुरुषों की जीवनियों को
सुन जीवन का मर्म समझा. वे बचपन से कुशाग्र बुद्धि के होने के कारन एक
बार सुनी गई बात को कंठस्थ कर लेते, जो उन्हें जीवनभर याद रहती। धर्म,
दर्शन और अध्यात्ममय से भरा पारिवारिक माहौल में उनका बचपन बीता। वे
प्रतिदिन मंदिर जाते और वहाँ एक भजन गाकर सुनाना उनकी दिनचर्या में शामिल
था। बदले में पिताजी एक भजन गाने पर 1 रुपया इनाम भी दिया करते थे।
रवीन्द्र भले ही दृष्टिहीन रहे हों, मगर उन्होंने बचपन में खूब शरारतें
की हैं। परिवार का नियम था कि सूरज ढलने से पहले घर में कदम रखो और भोजन
करो। रवीन्द्र ने इस नियम का कभी पालन नहीं किया। रोज देर रात को घर आते।
पिताजी के डंडे से माँ बचाती। उनके कमरे में पलंग के नीचे खाना छिपाकर रख
देतीं ताकि बालक भूखा न रहे। अपनी दोस्त मंडली के साथ रवीन्द्र
गाने-बजाने की टोली बनाकर अलीगढ़ रेलवे स्टेशन के आसपास मँडराया करते थे।
उनके दोस्त के पास टिन का छोटा डिब्बा था जिस पर थाप लगाकर वे गाते और हर
आने-जाने वाले का मनोरंजन करते थे। एक दिन न जाने क्या सूझी कि डिब्बे को
सीधा कर दिया। उसका खुला मुँह देख श्रोता उसमें पैसे डालने लगे। चिल्लर
से डिब्बा भर गया। घर आकर उन्होंने माँ के चरणों में चिल्लर उड़ेल दी।
पिताजी ने यह देखा तो गुस्से से लाल-पीले हो गए और सारा पैसा देने वालों
को लौटाने का आदेश दिया। अब परेशानी यह आई कि अजनबी लोगों को खोजकर पैसा
कैसे वापस किया जाए? दोस्तों ने योजना बनाई कि चाट की दुकान पर जाकर
चाट-पकौड़ी जमकर खाई जाए और मजा लिया जाए। कलकत्ता के विश्व प्रसिद्ध
रविन्द्र -संगीत के बारे में काफी सुन रखा होने के कारन भाई के आग्रह पर
फौरन राजी हो गए। पिताजी ने पचहत्तर रुपए जेबखर्च के लिए दिए। माँ ने
कपड़े की पोटली में चावल-दाल बाँध दिए। कानपुर स्टेशन पर भाई के साथ नीचे
उतरे, तो ट्रेन चल पड़ी। पद्म भाई तो चढ़ गए। रवीन्द्र ने भागने की कोशिश
की। डिब्बे से निकले एक हाथ ने उन्हें अंदर खींच लिया। उस अजनबी ने कहा
कि जब तक भाई नहीं मिले, हमारे साथ रहना। फिल्म निर्माता राधेश्याम
झुनझुनवाला के जरिए रवीन्द्र को संगीत सिखाने की एक ट्‌यूशन मिली।
मेहनताने में चाय के साथ नमकीन समोसा। पहली नौकरी बालिका विद्या भवन में
40 रुपए महीने पर लगी। इसी शहर में उनकी मुलाकात पं. जसराज तथा पं.
मणिरत्नम्‌ से हुई। नई गायिका हेमलता से उनका परिचय हुआ। वे मिलकर
बांग्ला तथा अन्य भाषाओं में धुनों की रचना करने लगे। हेमलता से
नजदीकियों के चलते उन्हें ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग कम्पनी से ऑफर मिलने लगे।
एक पंजाबी फिल्म में हारमोनियम बजाने का मौका मिला। सार्वजनिक मंच पर
प्रस्तुति के 151 रुपए तक मिलने लगे। इसी सिलसिले में वे हरिभाई जरीवाला
(संजीव कुमार) के संपर्क में आए। कलकत्ता का यह पंछी उड़कर मुंबई आ गया।
सन्‌ 1968 में राधेश्याम झुनझुनवाला के साथ मुंबई आए तो पहली मुलाकात
पार्श्वगायक मुकेश से हुई। रामरिख मनहर ने कुछ महफिलों में गाने के अवसर
जुटाए। नासिक के पास देवलाली में फिल्म ‘पारस’ की शूटिंग चल रही थी।
संजीव कुमार ने वहाँ बुलाकार निर्माता एनएन सिप्पी से मिलवाया। रवीन्द्र
ने अपने खजाने से कई अनमोल गीत तथा धुनें एक के बाद एक सुनाईं। श्रोताओं
में शत्रुघ्न सिन्हा, फरीदा जलाल और नारी सिप्पी थे। उनका पहला फिल्मी
गीत 14 जनवरी 1972 को मोहम्मद रफी की आवाज में रिकॉर्ड हुआ।
रामरिख मनहर के मार्फत राजश्री प्रोडक्शन के ताराचंद बड़जात्या से मुलाकात
रवीन्द्र के फिल्म करियर को सँवार गई। अमिताभ बच्चन, नूतन अभिनीत
‘सौदागर’ में गानों की गुंजाइश नहीं थी। उसके बावजूद रवीन्द्र ने गुड़
बेचने वाले सौदागर के लिए मीठी धुनें बनाईं, जो यादगार हो गईं। यहीं से
रवीन्द्र और राजश्री का सरगम का कारवाँ आगे बढ़ता गया। ‘तपस्या’,
‘चितचोर’, ‘सलाखें’, ‘फकीरा’ के गाने लोकप्रिय हुए और मुंबइया संगीतकारों
में रवीन्द्र का नाम स्थापित हो गया। ‘दीवानगी’ के समय सचिनदेव बर्मन
बीमार हो गए तो यह फिल्म उन्होंने रवीन्द्र को सौंप दी।
एक महफिल में रवीन्द्र-हेमलता गा रहे थे। श्रोताओं में राज कपूर भी थे।
‘एक राधा एक मीरा दोनों ने श्याम को चाहा’ गीत सुनकर राज कपूर झूम उठे,
बोले- ‘यह गीत किसी को दिया तो नहीं?’ पलटकर रवीन्द्र जैन ने कहा, ‘राज
कपूर को दे दिया है।’ बस, यहीं से उनकी एंट्री राज कपूर के शिविर में हो
गई। आगे चलकर ‘राम तेरी गंगा मैली’ का संगीत रवीन्द्र ने ही दिया और
फिल्म तथा संगीत बेहद लोकप्रिय हुए। नौवें दशक से हिन्दी सिनेमा के
गीत-संगीत का पतन प्रारंभ हुआ। नए गीतकार-संगीतकारों के समीकरण में काफी
उलटफेर हुए। रवीन्द्र ने अपने को पीछे करते हुए संगीत सिखाने की अकादमी
के प्रयत्न शुरू किए। वे मध्यप्रदेश शासन के सहयोग से यह अकादमी कायम
करना चाहते हैं।
(संकलन इंटरनेट और व्हाट्स अप्प के माध्यम से )

विनायक लुनिया
9039401004

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