वैरागी राजकुमार

कंचन पाठक
कंचन पाठक
जीवन के दुःख दर्द, अभावों और विभीषिकाओं से व्यथित मन में अगर उदासीनता का भाव उत्पन्न हो जाए या वयस के उत्तरार्ध में संसार की क्षणभंगुरता का, वास्तविकता का अनुभव होने पर वैराग्य की भावना ह्रदय में प्रस्फुटित हो जाए तो इसे सामान्य माना जा सकता है l किन्तु राजमहल के वैभव में पले किसी सुन्दर राजकुमार के मन में अगर ऐसे भाव उत्पन्न हो जाएँ तो उसे क्या कहेंगे ! जहाँ जरा-सी भूख महसूस होने पर छप्पन व्यन्जनों से सजी थालियाँ लेकर बीसियों दासियाँ तत्क्षण उपस्थित हो जाती हों, अथवा ज़रा-सा मन उदास होने पर स्वर्ग की अप्सराओं-सी निपुण और सुन्दर नर्तकियाँ सुर-साज़ के संग संगीत के एक अलग हीं संसार की संरचना कर देती हों … इंद्रधनुष से दिन हों और फूलों जैसी रातें और फिर भी सुन्दर सुकुमार का मन इन सबमें न रमे तो इसे क्या कहा जाए … ऐसा हीं कुछ हुआ था आज से करीब ढाई हजार साल पहले जब सोलह साल के सुन्दर राजकुमार वर्धमान ने अपने अंतर-उपवन में प्रज्ज्वलित वैराग्य-अग्नि को अनुभव कर मन हीं मन निवृति मार्ग का चयन कर अपनी माता त्रिशला से गृहत्याग की अनुमति माँगी थी l जाहिर है कि अनुमति तो नहीं मिली हाँ, पर माता का ह्रदय आशंकित ज़रूर हो उठा l पुत्र का मन सांसारिकता की ओर मोड़ने के लिए सुन्दर-सी राजकुमारी ढूँढकर उनका विवाह कर दिया गया l पर जिसके ह्रदय में वैराग्य ने डेरा डाल लिया, जिसे समूची संसृति की चेतनाओं को जगाना हो, उनके दुःख दर्द मिटाना हो उसके पाँवों को भला कौन रोक पाया है l माता के देहान्त के बाद 30 वर्ष की उम्र में अपने ज्येष्ठबंधु की आज्ञा लेकर इन्होंने राजमहल और संसार के समस्त सुखों को तिलांजलि देकर घर-बार छोड़ दिया और कठिन तपस्या करके ‘कैवल्य ज्ञान’ को प्राप्त किया । ये थे जैनधर्म के प्रवर्तक भगवान् वर्धमान महावीर जिनका जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व चैत्र कृष्ण तेरस को वैशाली (बिहार) के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था । वह लम्बे कद, अत्यंत गौर वर्ण के दिव्य सुन्दर, तेजस्वी, साहसी और बलशाली राजकुमार थे l उन्होंने दुनिया को सत्य एवम अहिंसा का पाठ पढ़ाया और जैन-धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है – अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य । सांसारिक अन्धकार की जड़ता का विनाश करने जब उनके पग बढ़ रहे थे तो एक-एक कर अपने शरीर पर पड़े मणियों और स्वर्णाभूषणों को मार्ग के भिखारियों को देते हुए वे आगे बढ़ते रहे l अन्त में उनके शरीर पर केवल एक उत्तरीय बचा रह गया जिसे उन्होंने कमर पर बाँध रखा था, तब एक भिखारी आया और उसने महावीर से दान की अपेक्षा व्यक्त की इस पर उन्होंने अपने शरीर पर पड़े उस एकमात्र वस्त्र का भी दान कर दिया और इस प्रकार राजघराना छोड़कर चीवर धारण करनेवाले उस सुन्दर राजकुमार ने जीवन में फ़िर कभी लँगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा l 12 वर्ष और 6.5 महीने तक कठोर तप करने के बाद वैशाख शुक्ल दशमी को ऋजुबालुका नदी के किनारे ‘साल वृक्ष’ के नीचे महावीर को ‘कैवल्य ज्ञान’ की प्राप्ति हुई l भगवान् महावीर अहिंसा के साक्षात् प्रतिमूर्ति थे l उनके अनुसार न केवल सीधे-सीधे वध करना हीं हिंसा है, अपितु मन में किसी के प्रति बुरा विचार रखना भी हिंसा है । भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना करने के साथ देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूमकर अपना पवित्र संदेश फैलाया । त्याग, संयम, प्रेम, करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था । ईसापूर्व 527, 72 वर्ष की आयु में बिहार के पावापुरी (राजगीर) में कार्तिक कृष्ण अमावस्या (दीपावली) को महावीर ने निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया । उस समय निर्वाण स्थल पर अपने प्रिय शिष्य गौतम के अतिरिक्त उन्होंने किसी और को आने की अनुमति नहीं दी थी l एक अत्यंत विस्तृत और सुन्दर तालाब के बीचोंबीच उस निर्वाण स्थल पर वर्तमान में एक भव्य जलमन्दिर स्थापित है l यह विश्वविख्यात जल मंदिर बिहार के पावापुरी शहर में स्थित है । यह नगरी जैन संम्प्रदाय का सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है l कहा जाता है कि महावीर ने अपना प्रथम धर्म-प्रवचन यहीं पर किया था साथ हीं भगवान् महावीर स्वामी द्वारा जैन संघ की स्थापना भी पावापुरी में हीं की गई थी । विमान के आकर में बने इस भव्य मंदिर का निर्माण महावीर के बड़े भाई महाराजा नंदीवर्द्धन ने करवाया था । जल मंदिर में मुख्‍य पूज्‍यनीय वस्‍तु के रूप में भगवान महावीर की चरण पादुका अब भी रखी हुई है । यहाँ एक अखण्ड दीपक सदैव प्रज्जवलित रहता है । राजगृह (वर्तमान में राजगीर) से दस मील दूर महावीर के निर्वाण का सूचक एक स्तूप भी यहाँ खंडहर के रूप में उपस्थित है ।

– कंचन पाठक
कवियित्री, लेखिका

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