जल एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए मानसून पूर्व लाये जन चेतना

2015 - 1मानव जाति बहुत बुद्धिमान है, लेकिन इस मानव जाति ने अपनी बुद्धिमता का उपयोग अपने स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए बिना कुछ सोचे प्रकति प्रदत्त वस्तुओं का पृथ्वी पर किसी भी अन्य प्रजाति से अधिक विनाश मचाया है। वैज्ञानिकों को पता चला है कि धरती का वर्तमान तापमान जितना है, उतना पिछले 11,300 सालों के दौरान कभी उतना नहीं रहा और यह बहुत तेजी से बढ़ रहा है।ग्लोबल वार्मिंग पूरे विश्व में एक मुख्य वायुमण्लीय मुद्दा है। सूरज की रोशनी को लगातार ग्रहण करते हुए हमारी पृथ्वी दिनों-दिन गर्म होती जा रही है जिससे वातावरण में कॉर्बनडाई ऑक्साइड का स्तर बढ़ रहा है। इसके लगातार बढ़ते दुष्प्रभावों से इंसानों के लिये बड़ी समस्याएं हो रही है। जिसके लिये बड़े स्तर पर सामाजिक जागरुकता की जरुरत है। इस समस्या से निपटने के लिये लोगों को इसका अर्थ, कारण और प्रभाव पता होना चाहिये जिससे जल्द से जल्द इसके समाधान तक पहुँचा जा सके। इससे मुकाबला करने के लिये हम सभी को एक साथ आगे आना चाहिये और धरती पर जीवन को बचाने के लिये इसका समाधान करना चाहिए। प्रकृति से छेड़छाड़ मनुष्य को बहुत महंगी पड़ सकती है, उसे अब भी समय रहते हद में आ जाना चाहिए ।

हम सभी एवं हमारा यह संसार आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, अग्नि तथा वन, वृक्ष, नदी, पहाड़, समुद्र एवं पशु-पक्षी आदि से आवृत है। उपर्युक्त समस्त तत्वों तथा पदार्थों का समग्र रूप अथवा समुदित रूप जो पर्यावरण है, उसी में सब पैदा होते हैं, जीवित रहते हैं, साँस लेते हैं, फलते-फूलते हैं और अपने समस्त कार्यकलाप करते हैं। अत: अपने और अपने समस्त समाज के लिए पर्यावरण का संरक्षण व पोषण हमारी सबसे बड़ी जिम्मेवारी हैं । पर्यावरण प्रदूषण एक व्यापक समस्या है। यह मानव जाति के लिए एक संवेदनशील मुद्दा है। पर्यावरण प्रदूषण से ओजोन परत कमजोर हो रही है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग अर्थात धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुंध दोहन यथा वृक्षों की कटाई, अत्यधिक जल दोहन, अनियंत्रित खनन, आदि से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है । इसी तरह बढ़ती आबादी के कारण सभी जगह की आबोहवा बिगड़ रही है, लेकिन शहरों में यह स्थिति कहीं ज्यादा भयावह है। इन आबोहवा के बावजूद लोग शहरों में रहने को विवश हैं और भीषण गर्मी, अकाल, बाढ़ आदि प्राकृतिक प्रकोप बढ़ रहे हैं। वृक्ष, प्राण वायु के भण्डार है। अत पर्यावरण सन्तुलन को ध्यान में रखते हुए आने वाले मानसून में वृक्षारोपण करने लायक जगह यथा राजकीय कार्यालयों, विद्यालयों,सड़क के दोनों और की जगह, चिकित्सालयों व न्यायालय परिसरों में, औद्योगिक क्षेत्र, श्मशान भूमि, ओरण, गौचर, वन भूमि, आदि क्षेत्रों में वृक्षारोपण किया जाना चाहिए, इस संकल्प के साथ की पौध लगाने के पश्चात इनकी सार संभाल अपने बच्चोँ की तरह की जाएगी ।

ashok lodha
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देश में अनगिनित कुओं, बाबड़ियों, तालाबों ने प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं धार्मिक मान्यताओं को हजारों सालों के संघर्षों को झेलने के बाद अपने वजूद में छिपा रखा है। भूजल स्तर लगातार गिरने से उत्पन्न जल संकट का मुख्य कारण जल संरक्षण का अभाव है। एक ओर जल का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है, वहीं उनके संरक्षण की दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं हुए हैं। नदियां नालों में बदल चुकी हैं, झरने सूख गये हैं, बावडिय़ां, पोखर अतिक्रमण के दायरे में आ गये हैं। यदि हम श्रमदान के द्वारा अपने परम्परागत जल स्त्रोतों कुएं, तालाबो, बाबड़ियों आदि की साफ़ सफाई कर, जल प्रवाह में आने वाली रुकावटों को दूर कर लें तो कुछ हद तक जल संकट से निपटा जा सकता है। जल संरक्षण के लिए श्रमदान का प्रयास भविष्य में भी अपने नगर ,कस्बे, गांव के साथ देश की तस्वीर बदलने में महती भूमिका निभा सकता हैं ।

आज देश भर के हर नगर, कस्बो यहाँ तक की छोटे से छोटे गाँवो में भी जल संरक्षण एवं पर्यावरण के प्रति पुरूषों, महिलाओं और बच्चों तक में जागरूकता आई हैं । आज देश का हर जागरूक नागरिक पर्यावरण एवं जल संसाधनो को अपने अनुकूल बनाने में रूचि रखता हैं। सरकार भी यथा संभव इस दिशा में कार्य कर रही हैं लेकिन देश के नागरिको को चाहिए हर काम में सरकार के भरोसे नहीं रहे । आज जरुरत है सभी सरकारी कर्मचारी से लेकर सरपंच, विधायक, सांसद एवं राजनीतिक दलों के नेता अपना स्वार्थ छोड़कर देश भर में जल संरक्षण एवं पर्यावरण के प्रति ईमानदारी से कार्य कर इस मुहीम को असली जामा पहनाये। उपरोक्त सभी व्यक्ति चाहे तो बिना सरकारी मदद के आम लोगो में श्रमदान के प्रति जागरूकता पैदा कर हर कुआँ, बाबड़ी, तालाब एवं अन्य जल स्त्रोतों पर जमा गंदगी, कचरा इत्यादि साफ़ कर इन प्राचीन जल स्त्रोतों को पुनजीर्वित कर सकते हैं। क्योकि जब कुछ व्यक्ति समाज सेवा का बीड़ा उठाते हैं तो धीरे धीरे एक समूह बन जाता है ” बून्द बून्द से घड़ा भरता है ” इस तर्ज पर आर्थिक समस्या का हल भी हो जाता हैं एवं प्रशासन भी समूह की जागरूकता देख कर संसाधन एवं अन्य यथा संभव मदद देने को मजबूर हो जाता हैं ।

पिछले साल ऐसे कई उद्दारण कई कस्बो, गाँवो, और शहरो में देखने को मिले । जहाँ एक समूह द्वारा बेजुवां परिंदो के लिए परिंडे लगाये गए, चिकित्सालय में मरीजों की सुध ली गयी, यहाँ के तालाब, बाबड़ी में श्रमदान के जरिये साफ़ सफाई की गई । इसके बाद यहाँ के प्रशासन ने श्रमदान के महत्व को समझते हुए इन समूह को हर संभव संसाधन उपलब्ध करानें की बात की । यही नहीं बल्कि अपने एरिया में मौजूद सभी जल स्त्रोतों की साफ़ सफाई और मरम्मत के लिए टेंडर की प्रक्रिया शुरू कर दी । ऐसे हजारो उदाहरण हर रोज़ देखने, सुनने को मिलते हैं जिसमे श्रमदान द्वारा हजारो के संख्या में वृक्षारोपण किये गए हैं वर्षो से उपेक्षित पड़े कुओं, बाबड़ियों, तालाबों की एक ही दिन काया पलट की गयी, वर्षो से फैली गंदगी को श्रमदान के द्वारा हटाया जा सका हैं ।

प्राचीन काल से ही श्रमदान का महत्व रहा हैं ब्रज में वर्षा खूब होती थी जिससे यमुना नदी में प्रायः बाढ़ आती रहती थी। ब्रज मैदानी भाग था यहां की अधिकांश भूमि ” गोचर ” थी पर अति वृष्टि के कारण बरसात के बाद तक यह क्षेत्र जल मग्न बना रहता था। एक बार ऐसी बाढ़ आई कि घर सम्पत्ति संभालना कठिन हो गया। लोगों ने गाये हटा दी और घर छोड़कर भागने लगे। श्रीकृष्ण ने इस स्थिति पर गम्भीरता से विचार किया तो मालूम हुआ इस तरह के गम्भीर संकटों का सामना अकेले नहीं हो सकता। उसके लिए सामूहिक श्रमदान और लोक मंगल की भावना से मिल-जुलकर काम करना आवश्यक होता है। उन्होंने वर्षा के जल और बाढ़ से गांव को बचाने के लिए उस क्षेत्र के सभी निवासियों को इकटठा कर सामूहिक श्रमदान की प्रेरणा दी और सबको पत्थर ढोने में लगा दिया। देखते ही देखते 14 मील लम्बा और आधा मील चौड़ा बांध बनकर तैयार हो गया और इस तरह ब्रज को श्रमदान के द्वारा बाढ़ की परेशानी से निजात मिल गयी ।

मानव जीवन एवं हमारी संस्कृति में दान का अत्यधिक महत्व है, अपनी क्षमता के अनुरूप किसी भी सुपात्र को दान देना बहुत महान कार्य है दान कई रूप में किया जा सकता है। श्रमदान भी इसी का एक हिस्सा है। श्रमदान से बढ़ा कोई दान नहीं है । श्रमदान सबसे बढ़कर है। यह दान हर कोई कर सकता हैं । धनदान धनिक ही कर सकता हैं एवं धन का उपयोग श्रम से ही होता हैं । इस दान के माध्यम से कई लोगों को राहत मिलती है। इसमें तन और मन साथ-साथ काम करते हैं। शरीर स्वस्थ रहता हैं । इससे तन और मन संकल्पित होते हैं और व्यक्ति और समाज में सकारात्मकता आती है तो क्यों न हम पर्यावरण सन्तुलन एवं जल संसाधनो की घटती संख्या को ध्यान में रखते हुए आने वाले मानसून में अपने अपने गांव, कस्बे, शहर में एक समूह बना कर वृक्षारोपण करने, परंपरागत जल स्त्रोतों को पुनजीर्वित कर अपने नगर ,कस्बे, गांव के साथ देश की तस्वीर बदलने में महती भूमिका निभा कर आने वाली पीढ़ी को सामाजिक चेतना का सन्देश दे ।

अशोक कुमार लोढ़ा
नसीराबाद

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