राजस्थान के लोक देवता—— गोगाजी

dr. j k garg
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वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में भादो शुक्ल नवमी को हुआ था हुआ था | उनके पिता चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) एवं माता बाछल थी | किवदंती के अनुसार श्रीगोगादेव का जन्म नाथ संप्रदाय के योगी गोरक्षनाथ के आशीर्वाद से हुआ था। योगी गोरक्षनाथ ने ही गोगादेवजी की माता बाछल को प्रसाद रूप में अभिमंत्रित गुग्गल दिया था। जिसके प्रभाव से महारानी बाछल से जाहरवीर (श्रीगोगादेव महाराज), पुरोहितानी से नरसिंह पाण्डे, दासी से मज्जूवीर, महतरानी से रत्नावीर तथा बन्ध्या घोड़ी से नीलाववीर का जन्म हुआ। इन सभी ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए विधर्मी राजाओं से घोर युद्ध किया जिसमें श्रीगोगादेवजी व नीलाश्व को छोड़कर अन्य वीरगति को प्राप्त हुए। अंत में गुरु गोरक्षनाथ के योग, मंत्र व प्रेरणा से श्रीजाहरवीर गोगाजी ने नीले घोड़े सहित धरती में जीवित समाधि ली। गोगा के वैवाहिक जीवन के संबंध में पर्याप्त इतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं है । लोक-कथाओं में उनकी पत्नियों के रूप में राणी केलमदे व राणी सुरियल के नामों का उल्लेख है। राणी केलमदे को पाबूजी के भाई बुड़ोजी की पुत्री बताया गया है। समय का अंतराल अधिक होने के कारण यह सत्य प्रतीत नहीं होता। राणी सुरियल का वर्णन कामरूप देश की राजकुमारी के रूप में किया गया है। गोगा के एक पुत्र नानक के अलावा अन्य पुत्रों का नाम ज्ञात नहीं है। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।
उत्तर प्रदेश में इन्हें जहर पीर तथा मुसलमान इन्हें गोगा पीर कहते हैं | इसीलिये चुरू जिले के ददरेवा गावं हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक बन गया है | लोकमान्यताओं तथा लोक कथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।
गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्‍था टेककर मन्नत एवं दुआएं माँगते हैं। आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है। गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है। लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है। गोगा को जहरीले सर्पों के जहर को नष्ट करने की अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई। गाँव-गाँव में गोगा के पूजा स्थान बनने लगे। गोगामेड़ियों की स्थापना हुई। गोगाजी के जन्म स्थान ददरेवा में बनी मेड़ी को ‘शीश मेड़ी’ कहा जाता है। ददरेवा की मेड़ी बाहर से देखने पर किसी राजमहल से कम नहीं लगती है। दादरेवा का दूसरा महत्वपूर्ण स्थान गोरखधुणा (जोगी आसान) है, यह वही स्थान है जहां नाथ संप्रदाय के एक सिद्ध संत तपस्वी योगी ने गोरखनाथ के आशीर्वाद से बाछल को यशस्वी पुत्र पैदा होने की भविष्यवाणी की थी। यहाँ पर सिद्ध तपस्वियों का धूणा एवं गोरखनाथ जी और अन्य की समाधियाँ भी हैं।
गोगाजी का समाधि-स्थल ‘धुरमेड़ी’ कहलाता है। यह गोगामेड़ी स्थान भादरा से 15 किमी उत्तर-पश्चिम मे हनुमानगढ़ जिले में है। यहाँ पुरानी मूर्तियाँ हैं। यहाँ के पुजारी चायल मुसलमान हैं जो चौहान के वंशज हैं। गोगामेड़ी में गोरख-टिल्ला व गोरखाणा तालाब दर्शनीय स्थान हैं। गोरखमठ में कालिका व हनुमान जी की मूर्तियाँ हैं। गोगाजी के भक्त ददरेवा के साथ ही गोगामेड़ी आने पर यात्रा सफल मानते हैं। भादवा माह के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोगा पीर व जाहिर वीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं। गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं। मेले में राजस्थान के अलावा पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश व गुजरात सहित विभिन्न प्रांतों से श्रद्धालु पहुंचते हैं। जातरु ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां अखाड़े (ग्रुप) में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है।
प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा वीर | गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।
प्रस्तुतिकरण—डा.जे.के.गर्ग
संदर्भ – विकीपीडिया, वेबइण्डिया, ददरेवा के इतिहास का यह भाग ‘श्री सार्वजनिक पुस्तकालय तारानगर’ की स्मारिका 2013-14: ‘अर्चना’ में प्रकाशित मातुसिंह राठोड़ के लेख ‘चमत्कारिक पर्यटन स्थल ददरेवा आदि
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