महान महाराणा प्रताप के जीवन के कुछ असाधारण पहलू—– Part 4

डा. जे.के.गर्ग
डा. जे.के.गर्ग
झाला सरदार का बलिदान
हल्दीघाटी का युद्ध अत्यन्त घमासान हो गया था। एक समय ऐसा आया जब शहजादा सलीम पर राणा प्रताप स्वयं आक्रमण कर रहे थे,दोनों लहूलुहान हो गये थे,इस द्रश्य को देखकर कर हजारों मुगलसैनिक सलीम की रक्षा करने हेतु उसी तरफ़ बढ़े और राणाप्रताप को चारों तरफ़ से घेर कर उन पर प्रहार करने लगे। राणाप्रताप के सिर परमेवाड़का राजमुकुट लगा हुआ था अत:मुगलों ने मिलकर उन्हीं को निशाना बना लिया था वहीं दुसरी तरफ राणाप्रताप के रणबाकुरें राजपूतसैनिक भी प्रताप को बचाने के लिए अपने प्राण को हथेली पर रख कर संघर्ष कर रहे थे। दुर्भाग्यवश प्रताप संकट में फँसते जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को भांपते हुए झाला सरदार मन्नाजीने स्वामिभक्ति का एक बेमिसाल आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के साथ युद्ध भूमी में सैनिकों को चीरते हुए आगे बढे और राणाप्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर मुगलों से घमासान युद्ध करने लगे।मुगलों ने झाला सरदार मुन्नाजीको ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े इस तरह राणाप्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उनका सारा शरीर असंख्य घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से लोटते समय राणाप्रताप मेवाड़ के वीर मन्नाजी को अपने प्राणों की आहुती देते देखा। इस युद्ध में नगण्य संख्या में मोजूद राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का सामना किया,परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने उनका समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये। इतिहास के पन्नों में झाला सरदार मुन्नाजी का बलिदान स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा|
संकलनकर्ता डा. जे. के गर्ग
सन्दर्भ— विभिन्न पत्रिकाएँ, एम राजीव लोचन- इतिहासकार, पंजाब विश्वविद्यालय, सरकार जदुनाथ (1994).A History of Jaipur: c. 1503 – 1938,आइराना भवन सिंह (2004). महाराना प्रताप — डायमंड पोकेट बुक्स. pp.28, आदि

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