‘आप’ की सरकार का आगाज नहीं अंजाम सोचिए

-सुशांत कुमार- एक तरफ दिल्ली के तापमान का पारा गिरते जा रहा है तो वहीं बढ़ते सियासी तापमान ने सबको सोचने पर मजबूर कर दिया है। पहले अगर कोई नेता या पत्रकार आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल या उनके सदस्यों से केजरीवाल के दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने की हसरत पूछते थे तो केजरीवाल कैमरे के सामने आकर ऐसे सवालों को बेतुका बताते थे। नकार देते थे। कहते थे – हम न समर्थन देंगे, न लेंगे। सार्वजनिक रूप से इस मुद्दे पर अपने बच्चों की कसम खाते थे… हाल में लोकतंत्र के नाम पर जिस तरह की आम पैमाइश हुई, उसका नतीजा रहा कि केजरीवाल मुख्यमंत्री बनने के लिए बेचैन भी थे और इसका ठीकरा आम जनता पर भी फोड़ दिया। लेकिन अहम बात है कि यह सरकार चलेगी कितने दिन ? क्या लोकसभा चुनाव को लेकर कोई पार्टी तोड़-जोड़ जैसी हरकतों में शामिल नहीं होना चाहती इसलिए बलि का बकरा केजरीवाल को बना दिया गया ? क्या लोकसभा चुनाव में जनता के जनादेश को देखने के बाद पार्टियां जोड़-तोड़ में जुटेंगीं ? क्या ऐसी नौबत आते ही गिर जाएगी केजरीवाल की सरकार ? क्या लोकसभा चुनाव के बाद इस चुनाव में ज्यादा जनादेश हासिल करने वाली और बहुमत से केवल चार सीट पीछे रही भाजपा बना लेगी सरकार ? ये तमाम सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि जो पार्टी सरकार बनाने के लिए किसी दूसरी पार्टी को समर्थन देती है, उसकी सोच सकारात्मक होती है। यहां तो अरविंद केजरीवाल के सरकार बनाने की घोषणा के बाद ही दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित उन्हें शुभकामना तो देती नजर आईं लेकिन एक सहयोगी की हैसियत से नहीं बल्कि एक आलोचक की हैसियत से। शीला ने कहा कि मैं उन्हें शुभकामना देती हूं, लेकिन उन्होंने जो जनता से वादा किया, वो पूरा कर पाएंगे कि नहीं, यह देखना है। अब सहयोगी शुरुआत में ही आलोचक की भूमिका निभाए तो अंजाम स्पष्ट है।

सुशांत कुमार
सुशांत कुमार

मतलब समझिए। एक तरफ केजरीवाल एंड टीम को अनुभव की कमी तो दूसरी ओर जो सहयोगी है वो 15 साल तक दिल्ली में राज कर चुकी है। फिलहाल केंद्र में भी वही काबिज सरकार है। यानि शतरंज पर शोहदे तो अरविंद केजरीवाल के होंगे पर शतरंज के 64 घरों में 16 घर को छोड़कर शेष घरों पर सहयोगी पार्टी का वर्चस्व होगा। जब मन होगा केजरीवाल को चेक दे दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो 15 साल तक काम कर चुकी पूर्ववर्ती शीला सरकार की गद्दी भले ही बदली हो लेकिन उनके नुमांइदे ही चालक होंगे। जब तक पूरे सिस्टम को समझा जाएगा, उन शोहदों पर शिकंजा कसने की शुरुआत होगी, उन्हें बदलने की कवायद होगी, 2014 का लोकसभा चुनाव सामने होगा। केजरीवाल उस समय दागदार होंगे। सफाई देते नजर आएंगे। केजरीवाल एंड टीम की अनुभव की कमी उस वक्त सामने आ गई जब एक तरफ केजरीवाल उपराज्यपाल से मिलने और सरकार बनाने की घोषणा की तैयारी में थे तो दूसरी ओर इस फिक्र में थे कि उनकी टीम को विधानसभा में बैठने का तजुर्बा तो है ही नहीं। केजरीवाल ने नई दिल्ली के कंस्टीच्युशन क्लब में अपनी टीम के लिए ट्रेनिंग की व्यवस्था करवाई कि विधानसभा कैसे कंडक्ड होती है। जीरो आवर क्या होता है… वगैरह-वगैरह… चलिए ट्रेनिंग भी मिल गई तो क्या आम आदमी पार्टी के मंत्री या खुद केजरीवाल संबंधित विभाग, क्षेत्र, सड़क पर हो रहे हर दिन की अनैतिक वाकयों पर काबू पा सकेंगे। केवल विधानसभा के भीतर की ट्रेनिंग लेने और कुर्सी पर बैठ जाने से तो सरकार नहीं चल पाएगी। यहां कुर्सी पर सत्तासीन नेता बैठते नहीं कि विरोध प्रदर्शन और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है और उस पर से कांग्रेस जैसी राजनीति में महारत हासिल कर चुकी पार्टी के सामने टिकना केजरीवाल के लिए कितना कठिन होगा, इस पर भी गौर कीजिए। केजरीवाल लोकसभा चुनाव को दूरबीन से देख जरूर रहे हैं, लेकिन वह उस नाव खड़े हैं जो उन्हें किसी वक्त डूबा सकती है। ऐसे में लोकसभा चुनाव को स्पष्ट देख पाना उनके वश की बात नहीं होगी।

केजरीवाल सरकार जरूर बना रहे हैं, लेकिन इन पहलुओं पर क्या उन्होंने सोचा है – वर्ष 1977 में गठबंधन सरकार चलाने की नई परंपरा शुरू तो हुई लेकिन इसमें समर्थन देने और खींचने का जो दौर चला उसने कई मौकों (अनुमानिक सात बार) पर यह बता दिया कि किसी दल के पास अपनी क्षमता न हो तो सरकार धम्म से गिर सकती है। सरकार से समर्थन वापसी की शुरुआत जुलाई 1979 से हुई। उस समय चौधरी चरण ने अपनी 64 सांसदों वाली जनता पार्टी के साथ मोरारजी देसाई की सरकार से समर्थन खींच लिया। लोकसभा में शक्ति परीक्षण के बगैर ही देसाई को इस्तीफा देना पड़ा था। फिर इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह ने सरकार बनाई लेकिन तीन हफ्ते बाद ही इंदिरा गांधी ने आर्थिक मोर्चों पर सरकार को घेरते हुए समर्थन वापस ले लिया। नवंबर 1990 में बनी वीपी सिंह की गैर-कांग्रेसी और मिली-जुली सरकार से भाजपा ने समर्थन खींच लिया, सरकार गिर गई थी। चंद्रशेखर ने एक समय में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने थे। चार महीने बाद ही कांग्रेस ने समर्थन वापस लेते हुए चंद्रशेखर सरकार पर राजीव गांधी सहित पार्टी के बड़े नेताओं की जासूसी का आरोप लगा दिया। मार्च 1997 में सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने एचडी देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार से यह कहते हुए समर्थन वापस ले लिया कि वे कांग्रेसी नेताओं को अपमानित कर रहे हैं। इस्तीफे की घोषणा के बाद देवगौड़ा की जगह आईके गुजराल को नेता चुना गया। कांग्रेस ने फिर गुजराल को समर्थन देकर अगस्त 1997 में समर्थन खींच लिया। अप्रैल 1999 में जे. जयललिता की अन्नाद्रमुक ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार पर तमिलनाडु की अनदेखी का आरोप लगाते हुए समर्थन खींच लिया था। सरकार केवल एक वोट से विश्वास मत खो बैठी। सरकार गिरने की वो परिस्थितियां उतनी भी भयावह नहीं थी, जितनी इस बार। यहां तो पार्टी सहयोग भी कर रही है और भला-बुरा भी कह रही है।

केजरीवाल द्वारा जनता से समर्थन (राय) का मुद्दा एक अर्थ में तो बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन इसके दूसरे पहलू पर भी विचार कीजिए। जनता चुनाव में खड़े हुए प्रत्याशी को जीताकर या हराकर एक जनादेश देती है। उसके बाद यह उस विजयी या हारे हुए नेता पर निर्भर करता है कि जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए सरकार में हैं तो कैसे सत्ता पक्ष को मजबूत बनाएंगे। विपक्ष में गए तो कैसे जनता हित को ध्यान में रखते हुए विपक्ष के हर गलत कदम पर विरोध करेंगे। अब अगर हर पहलू पर लोकतंत्र का हवाला देते हुए जनता के बीच पांव-पसारा जाए तो जब सब कुछ जनता ही करेगी तो आप क्या करेंगे। क्योंकि आपकी काबिलियत को ही तो देखते हुए आपको विधानसभा या संसद तक पहुंचाया जाता है। अब हर बात के लिए आप लोकतंत्र-लोकतंत्र जपते हुए लोगों के बीच जाते हैं, इसका मतलब कि या तो आपको लोकतंत्र का महत्व नहीं पता, या तो आप अपनी बात मनवाने के लिए जनता को गुमराह कर रहे हैं। क्योंकि यह राजनीति – राज तो चलाने की नीति है। यहां बहुत सारे फैसले होते हैं जिससे एक पक्ष खुश तो दूसरा धड़ा नाराज होता है। अब मान लीजिए भारत-पाकिस्तान को लेकर अक्सर विवाद होता है। इस मुद्दे पर आप अगर जनमत संग्रह करेंगे तो अधिकतर जवाब आएगा कि पाकिस्तान को जवाब दो। कई मैसेजेज तो ऐसे भी आएंगे कि पाकिस्तान को नेस्तनाबूद कर दो। इसलिए क्योंकि देश में युवा पीढ़ी की अधिकता है। उनके फैसले गर्मजोशी से होते हैं। आप अगर दिल्ली में सबके लिए खाना फ्री करने की बात करेंगे तो देखिए 100 में 100 फीसदी जवाब आएगा कि फ्री कर दो। क्या आप इन स्थितियों के लिए तैयार हैं ? दरअसल, राज-हित में फैसले राजा को लेने होते हैं। अब यह राजा पर निर्भर करता है कि या तो वह फैसले ले या दौड़-दौड़ कर प्रजा के पास हर बात के लिए जाए। इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार मीडिया भी है। मीडिया जिस तरह इन चीजों को तवज्जो देती है, वो ठीक नहीं है। आप जब उसे लीड खबर बनाएंगे या प्राइम टाइम में बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसनीय भाव में दिखाएंगे तो गलत महात्वाकांक्षा भी प्रोत्साहित होने लगेगी।

जरा सोचिए, सरकार बनाने की यह नौटंकी अरविंद केजरीवाल ने ही क्यों की ? ‘आप’ के 28 नेताओं को जनता ने विधानसभा पहुंचाया। अब सवाल है कि आप जिन्हें वोट दें वो आपके पास आए कि बताइए मैं इस भरोसे के काबिल हूं या नहीं, तो इसे क्या कहेंगे। यही तो हुआ केजरीवाल के साथ। केजरीवाल ने बार-बार जनता की सहानुभूति बटोरनी चाही, यह जानते हुए कि लोकतंत्र का महापर्व खत्म होकर निर्णय दे चुका है। अगर यही काम भारतीय जनता पार्टी करना चाहती तो उसे केजरीवाल से चार सीटें अधिक 32 सीटें मिली हैं। तो फिर भाजपा ने सरकार बनाना उचित क्यों नहीं समझा ? भाजपा क्यों सरकार बनाने के नाम पर चुप्पी साधे रही ? इसलिए क्योंकि उसे पता है कि मिशन 2014 पर परचम लहराने के लिए विरोध की राजनीतिक मशाल की लौ को कम नहीं होने देना है। उसे पता है कि जनता परेशान है। भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी पर वह अब समझौता नहीं करना चाहती। ऐसे में उसे राजनीति में नाबोद अरविंद केजरीवाल जैसा भी भरोसा दिलाने वाला शख्स मिल जाता है तो वो उस पर भी अपना वोट जड़ देते हैं। विरोध की राजनीति कर खुद केजरीवाल को यह मुकाम हासिल हुआ है। भाजपा को यह पता था कि अभी चार विधायकों को पूरा करने में तोड़-जोड़ जैसी कोई हरकत करेंगे तो पार्टी की नैतिकता पर असर पड़ेगा, जिसका छींटा लोकसभा चुनाव पर भी होगा। इस तीर से दो निशाने को इसलिए देखा जा रहा है क्योंकि कहीं-न-कहीं ‘आप’ ने दिल्ली में सोच से परे 28 सीटें लाकर साबित कर दिया है कि लोकसभा चुनाव में वो बड़े-बड़ों को टक्कर दे सकती हैं। ऐसे में वो लोस चुनाव में भाजपा व कांग्रेस दोनों का वोट काट सकती है। इसलिए ‘आप’ को आगे किया गया। भाजपा को भी पता है कि जो कांग्रेस उसे समर्थन दे रही है वो निकट भविष्य में उसका क्या हश्र करेगी। साथ ही जनता को यह भी कहने का हो जाए कि जिसका विरोध कर चुनाव में खड़ा हुआ, उसी के साथ सरकार बना ली। याद कीजिए दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम के कुछ समय बाद का, जब सरकार बनाने की पहल हो रही थी कांग्रेस ने तुरंत बिना शर्त समर्थन दिया था। वह समर्थन एक लोकोक्ति पर फिट बैठती है – हम तो डूबे हैं सनम, तुमको भी ले डूबेंगे। इसलिए कहते हैं – आगाज नहीं अंजाम की सोचिए।
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1 thought on “‘आप’ की सरकार का आगाज नहीं अंजाम सोचिए”

  1. Congress is a loser and BJP is just planning for LS 14 mission. AAP is right at their place. Actual game is between BJP and Congress and they are using AAP to prevent any kind of incumbency and a hurdle to gain their political goals. I am not a follower of any of them. But as a citizen of this hugest democracy I can say BJP and congress are experienced player and they are preventing Kohli to become a Tendulkar.

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